मोहम्मद अहमद सिद्धिबप्पा उर्फ यासीन भटकल के बारे में आईबी के अधिकारियों का मानना है कि 2008 के बाद वह नेपाल के रास्ते खाड़ी और वहां से फिर पाकिस्तान कई बार जा चुका है. 2010 में पुणे ब्लास्ट के बाद वह लगातार पाकिस्तान में ही आईएसआई के संरक्षण में रह रहा था. एनआईए के एक बड़े अधिकारी बताते हैं कि यासीन भटकल पिछले करीब एक साल से नेपाल के पोखरा व उसके आस-पास के क्षेत्रों में रह रहा था. कुछ महीने पहले असदुल्ला भी नेपाल पहुंच गया. एटीएस सूत्रों के अनुसार असदुल्ला भी बाटला हाउस कांड के बाद नेपाल गया था जहां से वह बांग्लादेश होते हुए पाकिस्तान निकल गया. भारतीय सुरक्षा एजेंसियां इन पर नजर न रख सकें लिहाजा दोनों फोन का इस्तेमाल बिल्कुल ही नहीं करते थे. एनआईए के सूत्र बताते हैं कि इन्हें जब अपने लोगों से संपर्क करना होता था तो इंटरनेट का सहारा लेते थे. इंटरनेट पर भी इनकी चैटिंग छद्म नाम से होती थी. इस चैटिंग के सहारे इनका पता लगाने में एजेंसियों को कुछ समय लगा. घेराबंदी मजबूत करने के बाद नेपाल पुलिस की मदद से आईबी ने दोनों को पकड़ कर बिहार के रक्सौल में पुलिस के हवाले किया जहां से दिल्ली की एनआईए टीम उन्हें आगे की कार्रवाई के लिए लेकर गई.
भारत-नेपाल सीमा पर स्थित कुछ जिलों के एसपी रह चुके आईजी स्तर के एक आईपीएस अधिकारी बताते हैं कि 10-15 साल पहले भारत व नेपाल पुलिस के बीच तालमेल काफी अच्छा था. ये अधिकारी बताते हैं, ‘स्थितियां यहां तक थीं कि नेपाल के सीमावर्ती कस्बे कृष्णानगर में तैनात पुलिसकर्मी कई बार भारत के बढ़नी थाने में ही आकर सोते थे. सीमाएं खुली हैं लिहाजा भारत का अपराधी अपराध कर के नेपाल और नेपाल का अपराधी भारत में शरण ले लेता है. ऐसे में पहले दोनों देशों के सीमावर्ती जिलों के पुलिस अधिकारी आपसी तालमेल के साथ आसानी से अपराधियों को पकड़ कर एक-दूसरे को सौंप देते थे. लेकिन बीच में जब नेपाल में अस्थिरता का दौर आया तो नेपाल की पुलिस ने सहयोग करना बंद कर दिया. लेकिन पिछले कुछ समय से नेपाल में हालात फिर से सुधरे हैं लिहाजा वहां की पुलिस व सुरक्षा एजेंसियां फिर से भारत का सहयोग कर रही हैं. इसके अच्छे नतीजे भी आए हैं.’
लेकिन भटकल और असदुल्ला की गिरफ्तारी और उसके पीछे के घटनाक्रम पर नजर डालें तो सियासत का एक ऐसा चेहरा भी सामने आता है जो काफी डरावना है. दरअसल दिल्ली राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का मुख्यालय है. इसकी एक यूनिट और उसका कार्यालय उत्तर प्रदेश के लखनऊ में भी है. लखनऊ यूनिट के अंतर्गत उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे राज्य हैं. ऐसे में जब भटकल और असदुल्ला की गिरफ्तारी बिहार से लगी नेपाल सीमा पर दिखाई गई तो उन्हें एनआईए की यूपी यूनिट के हवाले किया जाना था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो इसके पीछे राजनीतिक कारण थे. दरअसल बिहार व उत्तर प्रदेश दोनों जगह की सरकारें लोकसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को लेकर काफी संवेदनशील हैं. उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी की सरकार पहले ही जेल में बंद आतंकवाद के आरोपितों के मुकदमों की वापसी की बात कर रही है. एनआईए की यूपी यूनिट में जो आईपीएस व अन्य स्टाफ लगा है, वह सब राज्य सरकार का है. सूत्रों के मुताबिक ऐसे में जब एनआईए की उत्तर प्रदेश यूनिट भटकल और असदुल्ला को लेकर प्रदेश में आती तो सरकार इन अधिकारियों पर किसी न किसी तरह दबाव बनाने का प्रयास करती. सूत्र तो यहां तक कहते हैं कि इस पूरे ऑपरेशन में एटीएस यूपी के उच्चाधिकारियों ने भी इसीलिए हाथ खड़े कर दिए थे.
वैसे यह पहला मौका नहीं है जब सुरक्षा एजेंसियों की मोस्ट वांटेड लिस्ट में शामिल इन नामों को लेकर पर्दे के पीछे से सियासत हुई है. जिस असदुल्ला को आईबी सहित तमाम सुरक्षा एजेंसियां पिछले पांच साल से तलाश रही थीं उसे लेकर 2010 में भी राजनीतिक सरगर्मी हो चुकी है. 2012 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना था. सभी राजनीतिक पार्टियां चुनावी तैयारी में लगी थीं. इसी बीच फरवरी, 2010 में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष डा. रीता बहुगुणा जोशी सहित तमाम कांग्रेसी आजमगढ़ के संजरपुर गांव गए. संजरपुर वही गांव है जहां के दो नौजवान बाटला हाउस कांड में मारे गए थे. गांव में बैठक के दौरान खुले मंच से दिग्विजय सिंह ने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए पूरी मुठभेड़ पर ही सवालिया निशान लगा दिया था. वे तो यहां तक कह गए थे कि पूरे मामले की फिर से न्यायिक जांच होनी चाहिए. उसी समय असदुल्ला के पिता और उलेमा काउंसिल से जुड़े डॉ जावेद कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस के सूत्रों की मानें तो उस समय डॉ जावेद दिग्विजय सिंह सहित अन्य नेताओं पर यही दबाव बना रहे थे कि उनके बेटे का नाम ही पूरे प्रकरण से निकाल दिया जाए. यह केंद्र से ही संभव था. लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हुआ. कांग्रेस को इस बात का डर था कि यदि एक को बख्शा जाएगा तो आजमगढ़ के दूसरे फरार नौजवानों का क्या होगा. एक को रियायत देने के बाद दूसरे मामलों में अन्य मुस्लिम मतदाताओं की नाराजगी झेलनी पड़ेगी. लिहाजा डॉ जावेद का समझौता परवान नहीं चढ़ सका और विधानसभा चुनाव से पहले ही उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया. वे फिर से उलेमा काउंसिल में चले गए.
बाटला हाउस कांड के बाद फरार हुए और आजमगढ़ के खालिसपुर निवासी शहजाद को लेकर भी 2009 के लोकसभा चुनाव में सियासी उठापटक हो चुकी है. एटीएस के सूत्र बताते हैं कि 2008 में बाटला हाउस कांड के बाद शहजाद भी सीधे नेपाल निकल गया था. लेकिन कुछ समय बाद शहजाद वापस भारत आ गया. लौटने के बाद वह उत्तर प्रदेश के बलिया, आजमगढ़ के मुबारकपुर, अपनी ननिहाल ककरेहटा आदि स्थानों पर छिप कर रह रहा था. पुख्ता खुफिया जानकारी के बाद एटीएस ने अप्रैल, 2009 में उसे दबोचने की पूरी योजना तैयार कर ली थी. लेकिन यह धरी की धरी रह गई. एटीएस सूत्र बताते हैं कि पूरे ऑपरेशन के कुछ घंटे पहले ही तत्कालीन सरकार की ओर से एटीएस अधिकारियों को निर्देश दिया गया कि आपरेशन चुनाव तक टाल दिया जाए क्योंकि लोकसभा चुनाव अपने अंतिम दौर में था और तत्कालीन बसपा सरकार मुस्लिम वोटों को अपनी ओर जोड़ने का हर संभव प्रयास कर रही थी. ऑपरेशन टलने के बाद शहजाद जो एक बार फिर भूमिगत हुआ तो एटीएस को उसे खोजने में फिर शून्य से काम शुरू करना पड़ा. जनवरी, 2010 में एटीएस को फिर सुराग लगा कि शहजाद अपने घर पर आया हुआ है. इस बार शहजाद की गिरफ्तारी के लिए फिर खाका तैयार हुआ. ऑपरेशन में शामिल रहे एटीएस के जवान बताते हैं कि उसे जिंदा पकड़ना महत्वपूर्ण था ताकि अन्य फरार आतंकवादियों के बारे में कुछ पता लग सके. इसलिए अधिकारियों ने उसे पकड़ने का नाटकीय तरीका अपनाया. पहले आजमगढ़ के सांसद कोटे से एक इंडिया मार्का हैंडपंप जारी करवाया गया और उसे खालिसपुर स्थित शहजाद के घर के बाहर लगवाने की कागजी प्रक्रिया शुरू की गई. इसमें क्षेत्र के लेखपाल व राजस्व विभाग के अन्य कर्मचारियों की मदद ली गई. लेकिन इन सबको ऑपरेशन के बारे में भनक तक नहीं थे. राजस्व कर्मचारी इस पूरी प्रक्रिया को एक सामान्य बात मान कर ही चल रहे थे. जनवरी, 2010 के अंतिम सप्ताह में एटीएस के जवान ठेकेदार व हैंडपंप की बोरिंग करने वाले बन कर खालिसपुर पहुंचे और तीन-चार दिन काम करने के बाद जैसे ही उन्हें शहजाद एक दिन घर के बाहर नजर आया, उन्होंने उसे धर लिया.
आतंकवाद पर पर्दे के पीछे से चल रही सियासत एक गंभीर समस्या की तरफ इशारा करती है. आंकड़ों पर नजर डालें तो 2008 के बाद उत्तर प्रदेश एटीएस ने सलमान, शहजाद, सरवर, हाकिम जैसे इनामी आईएम सदस्यों को पकड़ा है. लेकिन 2011 के मध्य से सितंबर, 2013 तक उत्तर प्रदेश एटीएस ने कोई भी आतंकी नहीं पकड़ा.
सूत्रों की मानें तो पिछले डेढ़ साल से एटीएस का पूरा ऑपरेशन ही ठप पड़ा है. इस समय एटीएस सिर्फ जाली नोटों व हथियारों की तस्करी करने वालों पर नजर रख रही है. आतंकवाद के खिलाफ एटीएस की ठप पड़ी रणनीति के पीछे अधिकारियों का तर्क है कि सरकार जब जेल में बंद कथित आतंकवादियों से मुकदमे वापस लेने की बात सोच रही है तो किसी नए ऑपरेशन में समय बर्बाद करने से क्या फायदा.