साख का सवाल

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छत्तीसगढ़ की फिजा में इस वक्त केवल राजनीति की खुमारी चढ़ी हुई है. राज्य के बाशिंदे उम्मीदवारों को अपनी कसौटी पर कस कर देख-परख रहे हैं. वहीं राजनीतिक दल हार-जीत के गुणाभाग में व्यस्त हैं. 90 विधानसभा सीटों वाले छत्तीसगढ़ में कुछ सीटें ऐसी हैं जो पूरे प्रदेश की दिशा निर्धारित करेंगी. इन बहुचर्चित और महत्वूपर्ण सीटों पर न केवल भाजपा और कांग्रेस का बल्कि कई राजनेताओं का भविष्य भी तय होगा. माओवाद प्रभावित 18 सीटों पर मतदान संपन्न होने के बाद अब दूसरे चरण की 72 सीटों पर 19 नवंबर को मतदान होना है. लेकिन इनमें से छह सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों की साख दांव पर लगी है या यूं कहें कि ये सीटें दोनों ही दलों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गई हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. यहां हम इन्हीं छह विधानसभा सीटों पर प्रत्याशियों और उनकी राजनीतिक संभावनाओं का एक आकलन दे रहे हैं.

रायपुर दक्षिणः  दूसरे चरण के चुनाव की यह सबसे प्रतिष्ठापूर्ण सीट है. यहां से भाजपा ने पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को फिर से टिकट दिया है. पांच बार लगातार विधानसभा चुनाव जीत चुके अग्रवाल चुनावी रणनीति बनाने में माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं. बृजमोहन के मुकाबले कांग्रेस ने रायपुर की महापौर किरणमयी नायक को उतारा है. इस सीट से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि यहां सबसे ज्यादा 38 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं. लेकिन मुख्य मुकाबला इन दो उम्मीदवारों के बीच ही है. चालीस हजार मुस्लिम मतदाता वाली इस सीट पर जातिगत समीकरणों ने भी चुनाव को रोचक बना दिया है. आम तौर पर मुस्लिमों को कांग्रेस का परंपरागत मतदाता माना जाता है. लेकिन रायपुर दक्षिण में रहने वाले मुस्लिम भाजपा के प्रत्याशी बृजमोहन अग्रवाल को वोट देते आए हैं. इस सीट से मैदान में उतरे 38 उम्मीदवारों में से 24 प्रत्याशी मुस्लिम समुदाय से हैं. इनमें 23 प्रत्याशी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं. थोक में इतने मुस्लिम प्रत्याशियों के मैदान होने को लेकर कई तरह की चर्चाएं भी हो रही हैं. राजनीतिक विश्लेषक इसे भाजपा की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा मान रहे हैं.  इस सीट पर रहने वाले पिछड़े वर्गों में साहू मतदाता ज्यादा संख्या में हैं. लेकिन महज चालीस हजार की आबादी वाले वैश्य मतदाता शत-प्रतिशत मतदान करके अपने अस्तित्व को सब पर भारी किए हुए हैं. जहां तक कांग्रेस की उम्मीदवार किरणमयी नायक की बात है तो वे पिछड़े वर्ग से हैं. लेकिन जिस कुर्मी वर्ग का वे प्रतिनिधित्व कर रही हैं उनकी संख्या रायपुर दक्षिण में बहुत ज्यादा नहीं है. पेशे से वकील नायक वर्ष 2009 में छत्तीसगढ़ के नगर निकाय चुनावों में राजधानी रायपुर जैसी अहम सीट को जीतकर धूमकेतु की तरह चमकी थीं. कांग्रेस के उच्चपदस्थ नेताओं की मानें तो किरणमयी नायक अगर इस सीट पर हार भी जाती हैं तब भी वे रायपुर लोकसभा सीट पर कांग्रेस की प्रबल दावेदार होंगी.

अंबिकापुरः  इस सीट पर दो अलग-अलग राजपरिवारों के उम्मीदवार टक्कर देने के लिए मैदान में हैं. कांग्रेस ने वर्तमान विधायक और सरगुजा राजपरिवार के सदस्य टीएस सिंहदेव को यहां से उम्मीदवार बनाया है. वे पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष भी हैं. वहीं भाजपा ने शंकरगढ़ राजघराने के सदस्य और भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष अनुराग सिंहदेव को मैदान में उतारा है. कांग्रेस ने समय रहते टीएस सिंहदेव को चुनाव की तैयारी में जुटने का संकेत दे दिया था. यही कारण था कि टीएस दूसरे कांग्रेस उम्मीदवारों के मुकाबले कुछ समय पहले से ही सक्रिय नजर आ रहे थे. अंबिकापुर एक ऐसी सीट है जहां कांग्रेस को भितरघात जैसी कोई परेशानी नहीं है. दूसरी ओर भाजपा के उम्मीदवार अनुराग सिंह देव तीन दावेदारों को किनारे करके  भाजपा का टिकट लाए हैं. इसलिए अनुराग सिंह देव के लिए भितरघात की आशंका भी जताई जा रही है. बुजुर्ग टीएस सिंहदेव और युवा अनुराग सिंहदेव की उम्र में फासला भी एक मुद्दे की तरह भुनाया जा रहा है. जहां युवाओं की बीच अनुराग सिंह काफी लोकप्रिय हैं  वहीं शहरी मतदाता टीएस सिंहदेव की तरफ रुझान लिए दिखाई दे रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के यही चेहरे आमने-सामने थे. लेकिन जीत कांग्रेस को मिली थी. इस क्षेत्र में रहने वाली कंवर, गौंड और उरांव जनजातियां भी चुनाव के नतीजों में खासा प्रभाव डालती हैं. अंबिकापुर में जीत के अंतर को बढ़ाने में इलाके में रहने वाले ईसाई मतदाता भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. 2 लाख 3 हजार 256 मतदाता वाली इस सीट पर नगर निगम क्षेत्र में रहने वाले 90 हजार मतदाता प्रत्याशी की जीत-हार की दिशा तय करते हैं.

रायपुर पश्चिमः  दोनों ही दलों के लिए नाक का सवाल बनी इस सीट पर भाजपा की तरफ से उद्योग मंत्री राजेश मूणत मैदान में है. जबकि कांग्रेस ने रायपुर शहर कांग्रेस के अध्यक्ष विकास उपाध्याय को मौका दिया है. विकास एनएसयूआई के छत्तीसगढ़ अध्यक्ष और युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव भी रह चुके हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले इस युवा नेता ने 22  दावेदारों को पछाड़ कर कांग्रेस का टिकट हासिल किया है. ऐसे में उनके साथ भितरघात होने की आशंका ज्यादा बनी हुई है. जबकि भाजपा प्रत्याशी राजेश मूणत अपनी पार्टी से इस सीट पर एकमात्र दावेदार के रूप में सामने आए थे. हालांकि रायपुर पश्चिम सीट पर कांग्रेसी पार्षदों की ज्यादा संख्या और युवाओं के बीच लोकप्रियता को देखकर उपाध्याय आश्वस्त नजर आ रहे हैं. वहीं मूणत के पास कार्यकर्ताओं की लंबी-चौड़ी फौज है और उसे ही वे अपनी जीत का आधार मान रहे हैं. इस सीट के जातिगत समीकरण काफी विषम हैं. परिसीमन के पहले यह सीट रायपुर ग्रामीण के नाम से जानी जाती थी, लेकिन 2008 में हुए परिसीमन में इसमें कुछ शहरी बस्तियों को मिलाकर रायुपर पश्चिम बना दिया गया. इसलिए इस सीट पर साहू और अनुसूचित जाति जैसे सतनामी और बौद्ध पंथ का अनुसरण करने वाले मतदाता ज्यादा हैं. लेकिन भाजपा यह मानकर चल रही है कि मूणत यहां जीत-हार की नहीं बल्कि ‘लीड’ की लड़ाई लड़ रहे हैं.

मरवाहीः  आदिवासियों के लिए आरक्षित इस सीट पर कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित जोगी को लॉन्च किया है. मरवाही अजीत जोगी की पारंपरिक सीट रही है. अमित से मुकाबला करने के लिए भाजपा ने लगातार दो बार से जिला पंचायत सदस्य समीरा पैकरा को उम्मीदवार बनाया है. नर्मदा के उद्गम अमरकंटक के रास्ते पर स्थित कोटा (अमित की मां रेणु जोगी का विधानसभा क्षेत्र) और उससे सटा आदिवासियों के लिए सुरक्षित मरवाही विधानसभा क्षेत्र पिछले दस वर्षों से अजीत जोगी के अभेद किले की तरह है. सेंट स्टीफंस कॉलेज, दिल्ली से पढ़ाई करने वाले अमित की छवि कई बार आरोपों के चलते धूमिल होती रही है. उन पर एनसीपी नेता रामावतार जग्गी की हत्या का आरोप भी लग चुका है. हालांकि इस मामले में स्थानीय अदालत ने उन्हें बरी कर दिया है, लेकिन अभी उनके खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील लंबित है. इसके अलावा पिता अजीत जोगी की तरह उनके भी आदिवासी होने पर सवाल उठाए जाते रहे हैं.

मरवाही में अमित जोगी के पक्ष में उनकी पत्नी ऋचा जोगी गांव-गांव में जनसंपर्क कर रही हैं. मरवाही क्षेत्र में जोगी का पुश्तैनी गांव जोगीसार है. यहां अधिकांश गांवों में भाजपा समेत किसी भी दूसरी पार्टी का झंडा और बैनर-पोस्टर तक नजर नहीं आ रहा है. मरवाही के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1952 से हुए विधानसभा चुनावों में यहां से दस बार कांग्रेस और दो बार भाजपा विजयी हुई है. ऐसे में भाजपा यहां किसी चमत्कार की आशा कर रही है. लेकिन टीम जोगी अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नजर आ रही है.

amit-jogi-congressबिलासपुरः  दूसरे नंबर पर सबसे अहम सीट बिलासपुर में भाजपा की तरफ से तीन बार जीत चुके स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल चुनाव मैदान में है. उन्हें टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने बिलासपुर महापौर वाणी राव को मौका दिया है. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि अमर अग्रवाल के पास नगरीय प्रशासन विभाग का भी प्रभार है. ऐसे में वाणी राव के महापौर बनने के बाद से लगातार दोनों के बीच बिलासपुर की शहरी विकास योजनाओं को लेकर कई बार तू-तू मैं-मैं की नौबत भी बनती रही है. पिछले आठ विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नजर डालें तो लगता है कि बिलासपुर विधानसभा के मतदाताओं के मूड का अंदाजा लगाना मुश्किल  है. वर्ष 1977  से 1985 तक कांग्रेस से बीआर यादव ने यहां से जीत की हैट्रिक बनाई थी. 1990 में भाजपा के मूलचंद खंडेलवाल ने यहां से जीत हासिल की. वर्ष 1993 में फिर बीआर यादव यहां से विधायक बने. लेकिन उसके बाद लगातार 1998, 2003 और 2008 में भाजपा के अमर अग्रवाल यहां से जीत हासिल करते रहे हैं. बिलासपुर में सतनामी, सिंधी और दक्षिण भारतीय मतदाता बड़ी भूमिका निभाते हैं. कांग्रेस मानकर चल रही है कि उनकी दक्षिण भारतीय मूल की उम्मीदवार को दक्षिण भारतीय मत जरूर मिलेंगे. लेकिन भाजपा ने इन्हें रिझाने के लिए पार्टी के पूर्व अध्यक्ष वैंकेया नायडू की सभा आयोजित कराई है. सिंधी मतदाताओं के लिए जहां बिलासपुर सीट पर पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की सभाएं हुईं. वहीं सरकार से नाराज सतनामियों को मनाने के लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं की फौज पूरे क्षेत्र में जनसंपर्क कर रही है.

दुर्गः  इस हाईप्रोफाइल सीट पर भाजपा ने पंचायत मंत्री हेमचंद यादव को मैदान में उतारा है. वहीं कांग्रेस ने पुराने चेहरे अरुण वोरा को एक मौका और दिया है. अरुण वोरा कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा के सुपुत्र हैं. यही कारण है कि बार-बार हारने के बाद भी कांग्रेस दुर्ग से उम्मीदवार नहीं बदल रही है. कहा तो यह भी जा रहा है कि उन्हें टिकट मिल सके इसलिए राहुल फॉर्मूले को किनारे लगाया गया है.

दुर्ग शहर विधानसभा क्षेत्र में 1993 से लेकर 2013 तक पांचवीं बार कांग्रेस के अरुण वोरा और भाजपा के हेमचंद यादव आमने-सामने हैं. लेकिन इस बार स्वाभिमान मंच के प्रत्याशी राजेंद्र साहू की उपस्थिति ने मुकाबला और भी रोचक बना दिया है. 2008 के चुनाव में भाजपा के हेमचंद यादव को 0.61 प्रतिशत वोट ज्यादा मिले थे और वे 702 मतों से चुनाव जीत गए थे. हालांकि दुर्ग विधानसभा शुरू से कांग्रेस का गढ़ रहा है. 1972 में कांग्रेस के  मोतीलाल वोरा यहां विधायक बने थे. उसके बाद एक उपचुनाव को मिलाकर पांच चुनाव लगातार जीतने का रिकॉर्ड उनके नाम है. 1993 में कांग्रेस का टिकट उनके बेटे अरुण वोरा को मिला और वे विधायक निर्वाचित हुए. लेकिन 1998 में कांग्रेस के इस गढ़ पर भाजपा ने सेंध लगा दी और उसके बाद हेमचंद यादव जीत की हैट्रिक लगा चुके हैं. हालांकि इस बार स्वाभिमान मंच के राजेंद्र साहू कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही गणित को बिगाड़ते नजर आ रहे हैं चूंकि इस चुनाव में त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बन रही है, इसलिए भाजपा और कांग्रेस को मिलने वाले मतों में अंतर जरूर पड़ेगा.