समृद्ध खेती की आपराधिक खाद!

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर इलाकों की एक जमीनी तहकीकात के दौरान तहलका की टीम क्षेत्र के कुल सात गांवों में घूमी. इस दौरान हमने कई बच्चों को देखा जो खेतों या घरों में काम कर रहे थे, स्थानीय नहीं थे और जिनसे बात करना बेहद चुनौती भरा था. हम बागपत के इब्राहिमपुर माजरा गांव के प्रधान शाकिंदर सिंह के घर पर हैं. कोठीनुमा घर में दाखिल होते ही हमारी नजरें भैसों का चारा मशीन से काटते हुए एक 15-16 साल के बच्चे पर टिक जाती हैं. वह भी हमारी तरफ देखता है पर सहमकर नजरें झुका लेता है. इसी बीच एक 14-15 साल का बच्चा हमारे लिए पानी के ग्लास लेकर बरामदे में दाखिल होता है. हम एक लड़के से पूछते हैं कि वह कौन-सी क्लास में पढ़ता है. वह धीरे से जवाब देते हुए कहता है कि वह अब नहीं पढ़ता. बस इसके बाद उन्हें अंदर जाने का इशारा कर दिया जाता है. ग्राम प्रधान कहते हैं कि मजदूरों की इतनी कमी है कि बुआई-कटाई के वक्त ये लड़के भी खेत पर काम के लिए जाते हैं. इन दोनों लड़कों का शारीरिक ढांचा और चेहराढ-मोहरा स्थानीय लोगों के ठीक उलट दिखाई देता है.

गांव के अलग-अलग घरों में हमें काम करते, चारा काटते हुए 3-4 और बच्चे दिख जाते हैं. हालांकि इनसे हमारी तो बात नहीं होती, लेकिन उनके घरवालों से बात करने के तरीके से यह जरूर मालूम पड़ जाता है कि वे घर के सदस्य नहीं बल्कि नौकर हैं. यह भी कि वे स्थानीय नहीं हैं. इब्राहिमपुर माजरा के बाद फतेहपुर चक गांव के प्रधान मास्टर राजपाल सिंह हमें बताते हैं कि गांव में खेतिहर मजदूरों की भारी कमी है. मजदूरों की कमी को गन्ने की खेती के ठप होने की प्रमुख वजह बताते हुए वे कहते हैं, ‘पहले तो आस-पास से ही मजदूर मिल जाया करते थे पर अब कई लोग बिहार, बंगाल से काम करने आते हैं.’

आगे जोधी नाम के गांव से गुजरते हुए हम प्रधान इमामुद्दीन खान से मिलते हैं. बच्चों के मजदूरी करने की बात को वे कुछ इस तरह स्वीकारते हैं, ‘कुछ दिनों पहले तक किसान यहां बच्चों को रखा करते थे पर जब से कुछ बच्चे अपने मालिकों के यहां से चोरी करके भागे हैं तब से लोग बाहरी मजदूरों को रखने में हिचकिचाने लगे हैं.’

‘एक मजदूर को लाने का कमीशन 4,000 रुपये होता है और अगर वह बीच में भाग जाए तो इसकी जिम्मेदारी एजेंट की होती है’

गन्ना किसानी में आ रही समस्याएं पूछते-पूछते हम अब तक कई गांवों का माहौल टटोल चुके हैं. हर गांव में हो रही बातचीत महेंद्र, दीपक और पवन की कहानियों को पुष्ट कर रही है. अब हम मुजफ्फरनगर के सिमरती और खिंदड़िया गांव की तरफ बढ़ते हैं. रास्ते में पड़ने वाले छपार गांव में हमें कुछ बच्चे खेतों में काम करते नजर आते हैं. आगे बढ़ने पर सिमरती और खिंदड़िया के बीच के रास्ते में हमें कुल सात बच्चे मिलते हैं. लगभग 13 से 16 वर्ष की उम्र के ये बच्चे गांव के पास की अधपक्की सड़क के पास खड़े हैं. दुबली-पतली काया और मटमैले सांवले रंग वाले ये बच्चे दूर से ही अलग पहचाने जा सकते हैं. हम गाड़ी रोककर उनसे बात करना चाहते हैं मगर वे भाग जाते हैं. काफी कोशिशों के बाद उनमें से एक हमारे पास आता है. हम उससे देवबंद का रास्ता पूछते हैं तो जवाब आता है, ‘इहां से जाओ., ठेठ पुरबिया लहजे में बात करने वाले इन बच्चों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में काम करते देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है.

हमारा अगला पड़ाव सहारनपुर जिले के देवबंद क्षेत्र में आने वाला बंधेडा-खास गांव है. गांव में घूमते हुए कुछ किसान हमसे बात करने को तैयार होते हैं. राऊ शेखावत, राऊ रिजवान और राऊ नौशाद जैसे कई किसान तहलका से बातचीत के दौरान यह स्वीकार करके हैं कि इस क्षेत्र में मौजूद गन्ने के खेतों में कटाई-छिलाई के लिए बिचौलियों की मदद से बिहारी मजदूर मंगवाए जाते हैं. रिकॉर्ड की गई बातचीत के कुछ अंश:

तहलका : बड़े किसान तो रेगुलर मजदूर रखते हैं. पर छोटे किसान तो यह नहीं कर सकते न. 

किसान : नहीं, वो टाइमली ही रखते हैं. 

तहलका : इसका मतलब कि जो सेंटर बने हुए हैं बिहारियों के लिए, वहीं से लाते होंगे?

किसान : सुनिए, हमारा सहारनपुर इस मामले में सबसे पीछे है. इसकी वजह है. बागपत, मुजफ्फरनगर, मेरठ और गाजियाबाद की तरफ जो लोग हैं, वो इतने हार्ड होते हैं कि आदमी की जान लेने पर आमादा हो जाते हैं. हमारे यहां आदमी किसी के साथ जुल्म नहीं करता. अगर मजदूर कुछ नुकसान भी कर दे तो उसे भेज देते हैं कि जा यार, तू निकल जा बस. 

तहलका : आपके यहां जो सेंटर्स हैं, वो सीजनल होते हैं या रेगुलर? 

किसान : परमानेंट होते हैं. जिस हिसाब से जिसको जरूरत हो. एक मजदूर को लाने का कमीशन 4,000 रुपये होता है और अगर वह बीच में भाग जाए तो जिम्मेदारी एजेंट की.

वहां से हटने पर एक ग्रामीण किसी से कुछ न बताने की शर्त पर बताता है कि इन मजदूरों में कई बच्चे भी शामिल होते हैं और किसानों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि वे यहां लाए कैसे गए हैं. यहां से निकलते ही हम मुजफ्फरनगर के तेजलहेडा गांव की तरफ बढ़ते हैं. चंद किलोमीटर की दूरी तय करते ही हमारी नजर गन्ने के घने खेतों में काम करते छोटे-छोटे बच्चों पर पड़ जाती है. हम उन्हें बुलाकर बात करने की कोशिश करते हैं और जब कुछ तस्वीरें लेते हैं तो उनमें से एक कहता है, ‘हमार फोटू कहे ले तारा जी.’ अभी हम उससे कुछ बात और करना ही चाहते हैं कि एक स्थानीय व्यक्ति वहां आ जाता है और हमें लगभग धमकाते हुए कहता है कि हम बच्चों से क्यों बात कर रहे हैं. हमारे  ‘बस यूं ही’  कहते ही वह चिल्लाने लगता है. स्थिति बिगड़ती देख हम वहां से निकल जाते हैं और सीधा तेजलहेडा पहुंचते हैं.

गांव के प्रधान बालिन्दू चौधरी के घर ही हमें दो बाल मजदूर दिखाई देते हैं. अपने रंग-रूप और बोली में स्थानीय बच्चों से बिल्कुल अलग ये बच्चे हमें पानी पिलाते हैं और इस बीच धीरे से हम उनकी तस्वीर लेते हैं. गांव में घूमते हुए हमें कुछ और बच्चे काम करते या चारा काटते नजर आते हैं.

रास्ते में हम एक स्थानीय किसान से पूछते हैं कि यहां बच्चे बात-बात में डरकर क्यों भाग जाते हैं. वह कहता है कि जाटों, गुर्जरों और त्यागियों के बच्चे कभी किसी से नहीं डरते. पर जोर देकर दूसरी बार पूछने पर वह बताता है, ‘अरे आप बाहर से आए बिहारी बच्चों से मिले होंगे. वे तो हमेशा ही हर किसी से डर के भागते रहते हैं.’