समस्या धर्म नहीं, घृणा है

लोग तो इतने मूर्ख हैं कि जब सन्त कबीरदास उन्हें समझाते थे, तो वे उन पर ही हमलावर हो जाते थे। कई बार लोगों ने सन्त कबीरदास पर हमले किये, उनका सिर फोड़ा। धीरे-धीरे लाखों लोग उनके अनुयायी बने और उनकी बातें मानने लगे। लेकिन हैरानी की बात देखिए कि जब सन्त कबीरदास अपनी अन्तिम साँसे ले रहे थे, तब उन्हीं के अनुयायी इस बात पर झगड़ रहे थे कि कबीर का धर्म क्या है? सनातनी कह रहे थे कि कबीर सानतनधर्मी हैं और मुस्लिम कह रहे थे कि कबीर मुसलमान हैं। जिन लोगों को उम्र भर एक महान् सन्त सीधे रास्ते पर लाने का प्रयास करते रहे, वही लोग उनके शरीर के अन्तिम संस्कार को लेकर झगड़ रहे थे। जब उनके बेटे कमाल ने उन लोगों को समझाने के लिए पिता के पास से उठना चाहा, तो सन्त कबीरदास ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोले- ‘रहने दो, मत समझाओ! ये नहीं समझेंगे। इन्हें मैं जीवन भर यही समझाता रहा कि सब एक ही ईश्वर की सन्तानें हैं। बाहरी धर्म आडम्बर और मिथ्या हैं। अगर ये इस छोटी-सी बात को समझ गये होते, तो आज झगड़ा क्यों कर रहे होते? इस बारे में मेरा एक शेर है-

कबीरा ज़ात से क्या था, बहस इस बात की थी।

सगे दो भाइयों ने ख़ून आपस में बहाया।।“