केंद्र की सियासत, राज्य के समीकरण
फिलहाल कई तरह के प्रयोग करके नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव में अपनी 20 सीटें बचाए रखने की जुगत में लगे हुए हैं. समानांतर रूप से वे केंद्रीय स्तर पर भी अपनी महत्ता बनाए रखने की कोशिश में लगे हुए हैं. लेकिन सवाल उठता है कि केंद्र में महत्ता बनाए रखने की बात तो बाद में, फिलहाल बिहार में ही जो सियासी समीकरण बने हैं, वे क्या इसकी इजाजत दे रहे लगते हैं. हालिया दिनों में आए चुनावी सर्वेक्षण बता रहे हैं कि नीतीश कुमार की साख तेजी से घटी है और जदयू की सीटों में भारी कमी होने वाली है. लेकिन सर्वेक्षणों को छोड़ भी दें, जिन्हें नीतीश कुमार बुलबुला कहते हैं, तो भी जमीनी हकीकत उनके पक्ष में जाती हुई नहीं दिखती. भाजपा से अलगाव के बाद अपनी ही पार्टी में नीतीश या तो बिल्कुल अकेले पड़ गए नेता के तौर पर दिखे हैं या फिर अकेले ही सारे निर्णय करते हुए नेता के तौर पर. कहने को तो उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं लेकिन जदयू में हर कोई जानता है कि पार्टी ‘न खाता- न बही, जो नीतीश कहें, वही सही’ की तर्ज पर चलती है.
अपने इस अकेलेपन की बुनियाद भी नीतीश कुमार ने खुद ही तैयार की है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पिछले आठ सालों की सत्ता के दौरान उन्होंने बिहार में पार्टी को खड़ा होने का मौका ही नहीं दिया. संगठन के स्तर पर भी दूसरी कतार का कोई ऐसा नेता नहीं पनप सका जो पार्टी की बातों को बिना नीतीश की इजाजत के रख सके. जानकार मानते हैं कि पार्टी का कोई ढांचा नहीं होने की वजह से चुनाव में नीतीश को कई मुश्किलें होंगी. राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं, लेकिन उनके बारे में सब जानते हैं कि या तो वे नीतीश की जुबान बोलने तक का अपना फर्ज निभाते हैं या फिर मौका पाकर नीतीश की हवा निकालने के लिए जुबान खोलते हैं. ऐसा एक बार नहीं, कई बार देखा भी जा चुका है. नीतीश कुमार जब भाजपा से अलगाव के पहले एनडीए पर पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए दबाव की राजनीति कर रहे थे, तब भी शरद यादव ने उनसे अलग जाते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की इतनी हड़बड़ी क्या है. ऐसा कहकर शरद ने नीतीश के मंसूबों पर पानी फेरने वाली राजनीति करने की कोशिश की थी, लेकिन बाद में शरद यादव को अपने ही कहे से पलटना पड़ा था. भाजपा से अलगाव के अगले ही दिन शरद यादव ने एक और बयान देकर नीतीश की हवा निकालने की कोशिश की थी. नीतीश जहां चहुंओर भाजपा से अलगाव को एक मजबूत सियासी कदम बताने के अभियान में लगे हुए थे, वहीं शरद ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि अगर आडवाणी के नाम पर भाजपा अब भी विचार करे तो जदयू को फिर से साथ आने में कोई परेशानी नहीं. शरद यादव ही नहीं, जदयू के और कई नेता भी जब तब नीतीश की हवा निकालने की कोशिश में लगे रहे हैं. और नीतीश पार्टी के उन नेताओं का हिसाब-किताब बराबर करने वाले नेता भी माने जाते रहे हैं. अभी हाल ही में जदयू ने पांच सांसदों शिवानंद तिवारी, गोपालगंज के सांसद पूर्णमासी राम, औरंगाबाद के सांसद सुशील कुमार सिंह, झंझारपुर के सांसद मंगनी लाल मंडल और मुजफ्फरपुर के सांसद जयनारायण निषाद को निष्कासित किया. हालांकि इनका निष्कासन तय था, लेकिन ये पांचों ऐसे नेता होने की वजह से जदयू से निष्कासित हुए क्योंकि एक समय में इन्होंने नीतीश का विरोध करने का साहस जुटाया था.
ये तो वे नेता हैं जिन्हें हालिया दिनों में नीतीश ने निष्कासित किया. लेकिन इस कड़ी में कई नेता ऐसे भी हैं जो तेजी से नीतीश कुमार का साथ छोड़कर जा भी रहे हैं. कुछ दिनों पहले उनके मंत्रिमंडल की सदस्य परवीर अमानुल्लाह उनका साथ छोड़कर चली गईं. उन्होंने आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया. परवीन अमानुल्लाह सैयद शहाबुद्दीन की बिटिया हैं. मुसलमानों में उनकी विशेष अपील तो है ही, वे उदार छवि वाली नेता भी मानी जाती हैं. अब वे रोजाना बिहार के मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रही हैं. कल तक नीतीश कुमार के खासमखास माने जाने वाले देवेश चंद्र ठाकुर भी जदयू को बाय-बाय बोल चुके हैं. लालू के खास रहे रामकृपाल यादव ने बीते दिनों जब राजद छोड़ने के संकेत दिए तो बताया जाता है कि नीतीश ने व्यक्तिगत तौर पर उन्हें अपने पाले में लाने की खूब कोशिश की. लेकिन रामकृपाल ने भाजपा का हाथ थाम लिया.
शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार किसकी राजनीति साधना चाहते हैं? मुसलमानों की क्या? तो उन्हें याद रखना होगा कि हालिया दिनों में उन्होंने खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारी है. भले ही राजद के दो मुसलमान विधायकों को और लोजपा के इकलौते मुसलमान विधायक को अपने पाले में कर वे दूसरे किस्म का संकेत देना चाह रहे हों, लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी तो है.’ लोजपा से जदयू में साबिर अली इसी उम्मीद में आए थे कि उन्हें राज्यसभा का सीट दे दी जाएगी लेकिन उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा गया. आज साबिर अली भले नीतीश के पक्ष में बोल रहे हैं लेकिन उनका स्वर कभी भी बदल सकता है. तिवारी कहते हैं, ‘जदयू से इकलौते अल्पसंख्यक सांसद मोनाजिर हसन हैं जो बेगुसराय के सांसद हैं. लेकिन इन दिनों नीतीश कुमार को कामरेड बनना है तो सिटिंग सीट बेगुसराय को भाकपा को देकर वे इकलौते मुसलमान सांसद मोनाजिर को रुखसत करने में लगे हुए हंै.’
तिवारी ऐसे कई सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘इस बार नीतीश कुमार को कई सवालों का जवाब देना होगा, उनका भ्रम दूर होगा. मुसलमानों की राजनीति, जिनकी आबादी बिहार में करीब 16 प्रतिशत है, उस पर नीतीश कुमार को जवाब तो देना ही होगा.’
ऐसे कई सियासी समीकरण भी नीतीश के लिए चुनौती की तरह सामने आते जा रहे हैं. लड़ाई सीधे-सीधे भाजपा और जदयू के बीच होने के आसार हैं. दोनों दल 17 साल बाद एक-दूसरे को आजमाएंगे, सो कौन किस पर भारी पड़ेगा, इसका अनुमान लगाने की स्थिति में अभी कोई नहीं है.
भाजपा से टकराने की राह
भाजपा-जदयू ने साथ मिलकर आखिरी चुनाव 2010 में लड़ा था. वह बिहार विधानसभा का चुनाव था. जनता दल यूनाइटेड को कुल 22.61 प्रतिशत वोट मिले थे जो पिछली बार उसे मिले वोट की तुलना में 2.15 प्रतिशत ज्यादा थे. भाजपा को 16.48 प्रतिशत मत मिले थे, जो पिछली बार की तुलना में 0.81 प्रतिशत ज्यादा थे और लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को 18.84 प्रतिशत मत मिले थे जो पिछली बार की तुलना में 4.61 प्रतिशत कम थे. कुछ विश्लेषक बार-बार यह हवाला देते हैं कि जदयू 141 सीटों पर चुनाव लड़कर 115 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी, लेकिन भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीटों को अपने खाते में किया था. यानी ज्यादा लंबी छलांग भाजपा की रही थी. इसका संदर्भ इतिहास के पन्ने पलटकर समझने की कोशिश करते हैं. 1995 में समता पार्टी का भाकपा माले के साथ गठजोड़ हुआ था. विधानसभा में समता पार्टी की सीटों की संख्या दो अंकों तक भी नहीं पहुंच सकी थी. लेकिन 1996 में केंद्रीय स्तर पर भाजपा से गठजोड़ होने के बाद समता की सीटों में उछाल और उभार का दौर शुरू हुआ. बाद में दो बार विधानसभा चुनाव में खिचखिच होने की वजह से राज्य स्तर पर दोनों दलों में गठजोड़ नहीं हो सका. दोनों को आशानुरूप सफलता भी नहीं मिली. लेकिन जब 2005 में दो बार फरवरी और नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में दोनों ने एक साथ मिलकर लालू का मुकाबला किया तो अभेद्य माने जाने वाले लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का किला ही ढह गया.
इस पूरी प्रकि्रया में भाजपा की बढ़त गौर करने लायक है. 1990 में भाजपा ने 237 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे. 11.61 प्रतिशत वोट के साथ उसे 39 सीटों पर कामयाबी मिली थी. 1995 में उसे 12.96 प्रतिशत वोट मिले और 41 सीटें उसके खाते में आईं. 2000 में 167 सीटों पर उसके प्रत्याशी उतरे. पार्टी को 14.64 प्रतिशत वोट मिले और 67 सीटों पर सफलता मिली. गौर करें कि यह सब तब हो रहा था जब बिहार-झारखंड एक था और सीटों की संख्या 324 थी. तब यह कहा जाता था कि भाजपा की पकड़ दक्षिण बिहार यानी वर्तमान झारखंड इलाके में ज्यादा है. लेकिन राज्य के बंटवारे के बाद 2005 के अक्टूबर में हुए चुनाव में भी भाजपा ने बिहार में 15.65 प्रतिशत वोट हासिल किए और 55 सीटें जीतीं. 2010 में तो भाजपा ने रिकॉर्ड ही बनाया.
लोकसभा की बात करें तो राज्य की 40 लोकसभा सीटों में आधे यानी 20 पर जदयू का कब्जा है तो 12 सीटों के साथ भाजपा भी मजबूत स्थिति में है. अब दोनों एक-दूसरे से निपटने की तैयारी में हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि दोनों दलों में से किसी को भी अभी तक ठीक से नहीं पता कि असल में उनका अपना अलग-अलग कौन सा आधार है, जिसके बारे में वे दावा ठोक सकें कि चाहे कुछ हो जाए, वह हमारा है और रहेगा भी! पिछले 17 साल में यह होता रहा है कि जहां से जदयू चुनाव लड़ती रही है, वहां भाजपा का वोट सीधे जदयू के खाते में आसानी से जाता रहा है और जहां भाजपा लड़ती रही है, वहां जदयू का वोट भाजपा के खाते में. इसीलिए अब भी बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह सवाल रहस्य की तरह है कि भाजपा और जदयू में कौन किसकी वजह से मजबूत हुआ है. नीतीश के सामने दूसरी मुश्किलें भी हैं. जैसे चुनौती यह है कि वे एक हद के बाद भाजपा को निशाने पर नहीं ले सकेंगे. अगर सांप्रदायिक पार्टी कहेंगे तो खुद हंसी का पात्र बनेंगे, क्योंकि तब सवाल होगा कि यह दाग तो पुराना है, इतने दिनों तक फिर क्यों साथ रहे. बताते हैं कि भाजपा ने अलग से वीडियो तैयार करवा रखे हैं, जिनमें नीतीश कुमार नरेंद मोदी की तारीफ करते और उन्हें विकास पुरुष कहने के साथ ही यह कहते हुए दिखाई पड़ते हैं कि नरेंद्र भाई मोदी की जरूरत देश को है. नीतीश कुमार या उनकी पार्टी भाजपा को विकास विरोधी पार्टी भी कह सकने की स्थिति में नहीं होगी, क्योंकि कम से कम बिहार में अच्छाइयों या बुराइयों के लिए दोनों की भूमिका समान रूप से रही है. भाजपा में सवर्ण नेताओं की बहुतायत है तो क्या नीतीश कुमार भाजपा को सवर्णों की पार्टी कहने का जोखिम ले सकेंगे? शायद नहीं, क्योंकि उनके खुद के दल में न सिर्फ सवर्ण नेताओं की भरमार है बल्कि वे प्रभावी स्थिति में भी हैं. नीतीश खुद सवर्ण राजनीति साधने में लगातार ऊर्जा लगाए हुए दिखते हैं.
तो क्या अलगाव की स्थिति में सिर्फ नरेंद्र मोदी के विरोध का हथियार ही जदयू के पास बचेगा? सवाल यह भी कि वह हथियार मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में एकजुट करने के लिए कुछ हद तक कारगर तो हो भी सकता है, लेकिन दूसरी ओर क्या उससे उनके अपने वोट बैंक के बिखर जाने का डर नहीं है. जानकारों के मुताबिक मोदी के नाम पर भाजपा की कोशिश हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की तो होगी ही, नरेंद्र मोदी को अतिपिछड़ा समूह का नेता बताकर भी भाजपाइयों ने बिहार के सुदूरवर्ती इलाके में मोदी को स्थापित करने की कोशिश परवान चढ़ा दी है. नरेंद्र मोदी ने मुजफ्फरपुर की अपनी रैली में कहा भी कि भाजपा अब बनियों और ब्राह्मणों की पार्टी नहीं रह गई है बल्कि वह पिछड़ों की पार्टी हो गई है. दरअसल भाजपा हर हथकंडा अपनाकर नीतीश के अतिपिछड़े समूह को और पिछड़ों में गैरयादव समूह को तोड़ने की कोशिश में है.
अतिपिछड़ा समूह बिहार की राजनीति में सबसे प्रभावी भूमिका में है. इसके अलावा बिहार की राजनीति आखिर में घूम-फिरकर जाति के खोल में समा जाने के लिए भी ख्यात रही है, सो नरेंद्र मोदी को अतिपिछड़ा जाति का बताकर राजनीतिक फसल काटने की कोशिश भाजपा पुरजोर तरीके से कर रही है. इस समूह को लुभाने के लिए एक ओर तो शीर्ष पर नरेंद्र मोदी तो हैं ही, निचले स्तर पर भाजपा ने बूथ मैनेजमेंट में अतिपिछड़ों को तरजीह देने की योजना बनाई है.
बिहार में जातीय राजनीति का ककहरा बहुत साफ है. सवर्ण कुल मिलाकर 12 प्रतिशत के करीब हैं. नीतीश कुमार जिस कुरमी समुदाय से हैं उसकी राज्य में करीब 2.4 प्रतिशत आबादी है. पिछड़ी जाति में ही महत्वपूर्ण कोईरी जाति की आबादी करीब चार प्रतिशत मानी जाती है. यादव 11 प्रतिशत के करीब हैं. दलितों की आबादी करीब 15 प्रतिशत है और मुस्लिम समुदाय की लगभग 16.5 प्रतिशत. आदिवासी लगभग एक प्रतिशत हैं और शेष बची आबादी अतिपिछड़े समूह की है. इस समूह मेंं 119 जातियां आती हैं. यादव, कोईरी, कुरमी और बनिया को छोड़ अमूमन सभी पिछड़ी जातियां इसी समूह मेें शामिल हंै. पिछले चुनाव में इस समूह का सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को मिला था. इनकी आबादी करीब 42 प्रतिशत के करीब है, इसलिए इस दृष्टि से बिहार की राजनीति में फिलहाल यह सबसे मजबूत समूह है. नीतीश ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों का बंटवारा किया था, सो स्वाभाविक तौर पर वे इस समूह के उम्मीदों और आकांक्षाओं के सबसे बड़े नेता बने थे. लेकिन अब इसी अतिपिछड़े समूह में नीतीश के प्रति नाराजगी का भाव भी उभरा है. प्रशासन और सत्ता पर सवर्णों का दबदबा और ठेके-पट्टे आदि में पिछड़ों का ही दबदबा कायम रहना अतिपिछड़ा समूह को नाराज किए हुए है.
साफ है कि मात्र 2.4 प्रतिशत आबादी वाले कुरमी समुदाय से आने वाले नीतीश कुमार के लिए भाजपा से अलग होने के बाद अपने बूते आगे का सफर तय करना इतना आसान भी नहीं दिख रहा. नीतीश की नजर अतिपिछड़ा, महादलित और मुसिलम वोटों पर है. अगर सिर्फ अपनी जाति की बात होगी तो लालू प्रसाद सदैव बड़े नेता बने रहेंगे, क्योंकि यादव आबादी करीब 11 प्रतिशत है. भाजपा ने भी पिछले कुछ सालों में कांग्रेस के सवर्ण खेमे में अपनी पकड़ बनायी है और अलगाव की सिथति में 12 प्रतिशत आबादी वाले सवर्णों का भाजपा की ओर तेजी से ध्रुवीकरण हुआ भी है. भाजपा रामविलास पासवान को साथ करके दलितों के वोट में सेंधमारी की कोशिश में है. उपेंद्र कुशवाहा को साथ करके बिहार में फेविकोल टाइप जातीय समीकरण कोईरी-कुरमी को तोड़ने की जुगत में वह लगी हुई है. उधर, नीतीश किसी तरह कोईरी-कुरमी समीकरण बचाने में लगे हैं.
साख का सवाल
संभव है, नीतीश कुमार जातीय समीकरण साधकर बिहार में सियासी गणित फिट भी बैठा लंे. फेडरल फ्रंट या कांग्रेस के सहारे चुनावी नैया को अपने अनुकूल कर भी लंे. नीतीश जानते हैं कि विशेष राज्य दर्जे को चुनावी मसला बनाकर वे इस बार आसानी से बाजी नहीं जीत सकते. इस मुद्दे पर उन्होंने दो मार्च को बिहार बंद भी करवा दिया, सत्याग्रह भी किया, लेकिन उनके लोग इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहे कि नीतीश विशेष राज्य दर्जे के बजाय आठ साल के सुशासन को क्यों नहीं आधार बना रहे. नीतीश कुमार आठ साल में किए काम को मसला बनाने का साहस क्यों नहीं जुटा पा रहे? जदयू के दूसरे नेता ही नहीं, खुद नीतीश कुमार भी इन सवालों का जवाब देने की स्थिति में नहीं हंै. जानकार मानते हैं कि बावजूद इसकेे वे विशेष राज्य दर्जा, धर्मनिरपेक्षता आदि का कॉकटेल बनाकर एक नई किस्म का समीकरण बनाने की कोशिश करेंगे.
नीतीश कुमार यह भी जानते हैं कि अगर वे अपने ही राज्य में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए तो केंद्र की राजनीति में उन्हें कोई नहीं पूछेगा. वे एक माहौल बनाना चाहते हैं, लेकिन मुश्किल यही है कि अब तक उसकी दिशा तय नहीं. उनके सामने लालू प्रसाद, भाजपा, उपेंद्र कुशवाहा, रामविलास पासवान आदि चुनौती के तौर पर हैं. इन सबके खिलाफ नीतीश को अकेले लड़ना है. नीतीश जानते हैं, जो उनके साथ हैं, वे रातों-रात पलटी मार सकते हैं. नीतीश की अपनी तमाम खासियतंे हैं. वे अपने व्यक्तित्व के बल पर सबसे लड़ेंगे. लेकिन कुछ कमियां उन्हें परेशान करेंगी. वे हालिया वर्षोें में जिस स्वभाव के नेता हो गए हैं, क्या वह स्वभाव उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने देगा? वे अपनी जरूरत के अनुसार साथी चुनते रहते हैं और मतलब निकल जाने के बाद उसे किनारे भी करते रहते हैं. जार्ज फर्नांडिस, दिग्विजय सिंह से लेकर अब तक कई नेता ऐसे रहे हैं, जो कभी नीतीश कुमार की राजनीतिक पारी को आगे बढ़ाने में मददगार रहे, लेकिन नीतीश सबको दरकिनार करके आगे बढ़ते रहे हैं. समय-समय पर वे अपनी मंडली के साथी भी बदलते रहे हैं और संगी-साथी के तौर पर राजनीतिक पार्टियों का समूह भी. भाकपा माले, भाकपा, माकपा से लेकर भाजपा तक को वे आजमाते रहे हैं. अब कांग्रेस पर उम्मीद टिकाने के साथ ही वे मुलायम, नवीन पटनायक, देवगौड़ा आदि पर नजर जमाए हुए हैं. ये नेता नीतीश का साथ दे भी दें तो क्या जब आखिरी बारी आएगी तो वे नीतीश के साथ खड़े हो सकेंगे? क्योंकि नीतीश कुमार के बारे में यह धारणा अब मजबूत हो चुकी है कि नीतीश के साथ जाने का मतलब है- यूज ऐंड थ्रो की तरह इस्तेमाल होना और इस धारणा की वजह से नीतीश अब जिसको साधने की कोशिश करते हैं, वह भी उनको उतनी ही चतुराई से साधने की कोशिश करता है. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘राजनीति संभावनाओं का खेल है. नीतीश कुमार का राष्ट्रीय राजनीति में क्या होगा, इस पर अभी बात करना उचित नहीं. क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप किंगमेकर की भूमिका में आते रहते हैं. संभव है नीतीश किंगमेकर की भूमिका में रहंे और यह भी होता रहा है कि कई बार किंगमेकर लक-बाय-चांस किंग भी बन जाते हैं. अभी से क्या कहा जाए! पहले यह तो तय हो कि नीतीश किसके साथ लड़ेंगे. अकेले, कांग्रेस के साथ या फिर किसी और रास्ते! यह भी तो तय हो कि लालू प्रसाद की क्या रणनीति होगी. इन सब बातों पर नीतीश का भविष्य निर्भर करेगा.’