सपनों की दौड़

मिल्खा सिंहगर्मी की यह एक आम सुबह है लेकिन हवाएं चलने से मौसम खुशनुमा बना हुआ है. इस बीच चंडीगढ़ का गोल्फ क्लब दर्शकों से भर चुका है. क्लब के इस वार्षिक आयोजन के शुरू होने के पहले इसके आयोजक दिगराज सिंह औपचारिक रूप से खेल के नियम बताते हैं. टूर्नामेंट में भाग लेने आए गोल्फरों के लिए ये हजारों बार सुनी गई बातें है, सो वे हर नियम पर चुहल करते दिख रहे हैं. इनके बीच में एक ऐसा व्यक्ति भी है जो इन बातों से बेपरवाह एक किनारे पर शांति से खड़ा है. उसकी नजरें टूर्नामेंट में विजेता को दिए जाने वाले कप पर टिकी हैं. कोई और होता तो शायद उसके लिए ज्यादा समय तक अपने एकांत का आनंद लेना आसान होता.

पर भारत के उड़न सिख मिल्खा सिंह के लिए यह मुमकिन नहीं है. स्थानीय रिपोर्टरों की नजरों से वे बच नहीं पाते. थोड़े देर में ही वे खुद को मीडियाकर्मियों से घिरा पाते हैं. पत्रकार चुनावों से लेकर पंजाब की युवा पीढ़ी में नशे की लत जैसे तमाम मुद्दों पर उनकी राय जानना चाहते हैं. मिल्खा इन पत्रकारों से अनुरोध करते हैं कि वे खेल के बाद सभी सवालों के जवाब देंगे. इस बीच फोटोग्राफर गोल्फरों को ट्रॉफी के आसपास खड़ा होने के लिए कहते हैं. इस मौके पर की गई एक टिप्पणी आपको इस इकहरे बदन वाले सिख के जादुई असर के बारे में और गहराई से बताती है. पंजाब क्रिकेट असोसिएशन के चीफ सेक्रेटरी आईएस बिंद्रा दोस्ताना लहजे में शिकायत करते हैं, ‘मुझे इस आदमी (मिल्खा सिंह) के साथ एक ही फ्रेम में खड़ा होना नापसंद है. उसके रहते हुए मुझ पर कोई ध्यान ही नहीं देता.’

बेशक मिल्खा सिंह के लिए चमक-दमक का दौर नया नहीं है लेकिन बिंद्रा की टिप्पणी आज से तकरीबन पांच दशक पहले के माहौल में ज्यादा सटीक बैठती है. आजादी के बाद हुए दंगों में पाकिस्तान से किसी तरह जान बचाकर भारत आने और 1960 के ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले इस सिख युवक की  कहानी में वे सारे तत्व हैं जो उसे नायक बनाते हैं. हालांकि बीते दशकों के दौरान चंडीगढ़ शहर अपने इस नायक की आभा का अभ्यस्त हो चुका है. वहीं दूसरी ओर पिछले कुछ सालों में ही सेक्टर आठ ने शहर को एक नया सेलेब्रिटी दिया है. ये हैं जीव मिल्खा सिंह. मिल्खा सिंह के बेटे जीव ने दुनिया में किसी भारतीय द्वारा अब तक की सबसे ऊंची रैंकिंग हासिल की है.

आज मिल्खा सिंह की उपलब्धियां समय के साथ कुछ धुंधली पड़ गई हैं. लेकिन हो सकता है राकेश ओम प्रकाश मेहरा द्वारा उनके जीवन पर बनाई जा रही फिल्म- भाग मिल्खा भाग से इस उड़न सिख का चमकदार अतीत एक बार फिर लोगों को आकर्षित करे. हालांकि ऐसी फिल्मों का जीवनकाल उस दौर के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता जिसमें से निकलकर ऐसे नायकों की कहानियां बनती हैं. इस फिल्म में 1946 से 1960 के बीच मिल्खा सिंह की जिंदगी दिखाई गई है. ओलंपिक से जुड़े भारतीय खेल इतिहास की शायद यह सबसे प्रेरणादायक कहानी होगी. आज की पीढ़ी के लिए इस कहानी की प्रेरणा धुंधली पड़ चुकी है, लेकिन खुद इसके सूत्रधार के लिए ऐसा नहीं है. चंडीगढ़ में गोल्फ टूर्नामेंट शुरू होने के चार घंटे बाद घोषणा होती है कि इसके विजेता मिल्खा सिंह हैं. इस समय तक वे गोल्फ क्लब से जा चुके हैं. शायद एक और कहानी रचने. उनके पारिवारिक दोस्त और पत्रकार डॉन बनर्जी हंसते हुए बताते हैं,  ‘उन्हें हमेशा नई चुनौती की तलाश रहती है. जब जीव ने पहली बार एशिया कप जीता था और हम सब इसका जश्न मना रहे थे, तब मिल्खा सिंह अपने बेटे से कह रहे थे- वैलडन, लेकिन अब तुम्हें समझ आ रहा होगा कि यूरोप टूर के लिए तुम्हें कितनी कड़ी मेहनत करनी होगी.

‘मिल्खा जब’ नई चुनौतियों’ की तलाश में नहीं होते तब वे अमूमन अपने दोस्तों के साथ होते हैं और यह उनके हंसी-मजाक का समय होता है. उनके साथी मिल्खा के बारे में कई चटपटी बातें करते हैं और इस उड़न सिख के पास इन किस्से-कहानियों में जोड़ने के लिए और नई बातें होती हैं. जब एक गोल्फर उन्हें चिढ़ाते हुए कहते हैं कि एक दूसरे एथलीट पान सिंह तोमर पर बनी फिल्म बहुत अच्छी थी तो मिल्खा गुस्सा दिखाते हुए जवाब देते हैं कि वे तोमर के कैप्टन रह चुके हैं और एक बार उन्होंने लंबी दूरी की दौड़ में उसे हराया भी था जबकि वे खुद स्प्रिंटर (100 मीटर की दौड़) के चैंपियन थे. इसके साथ ही सभी लोगों की हंसी छूट जाती है.

खेल का इतिहास बताता है कि मिल्खा भारत को एक ओलंपिक मेडल दिलाते-दिलाते चूक गए थे. उस ऐतिहासिक दौड़ के अंतिम क्षणों में उन्होंने अपनी दाईं ओर दौड़ रहे दक्षिण अफ्रीका के मैलकॉम स्पेंस को देखा और उन्हीं के साथ वे फिनिश लाइन पार कर गए. स्पेंस तीसरे स्थान पर रहे और मिल्खा ओलंपिक मेडल से चूक गए. वे बताते हैं, ‘1958 के राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के बाद सभी को लगने लगा था कि मैं ओलंपिक में मेडल जीतूंगा. लेकिन मेरे हाथ से मेडल फिसल गया.’

फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने के सिलसिले में प्रसून जोशी जब मिल्खा सिंह से मिले तो उन्होंने जोशी को एक पतली–सी किताब भेंट की. इसने उन्हें हैरान कर दिया. इस किताब में मिल्खा की जिंदगी से जुड़ी घटनाओं का समयवार ब्योरा है. उनके साथ तकरीबन सौ घंटे बिताने वाले जोशी याद करते हैं कि वे जो कहानी कहना चाहते थे उसके लिए यह किताब  मार्गदर्शक बन गई. वे कहते हैं, ‘यह कुछ ऐसा है जैसे एक ब्रांड और एक आदमी दोनों एक हो गए हैं.’

मिल्खा सिंह

गर्मी की इस दोपहर में मिल्खा सिंह अब अपनी आरामकुर्सी पर आ चुके हैं. उनके इस भव्य घर के अहाते में कई लोगों वाला उनका स्टाफ खाने-पीने की चीजें और कोल्ड ड्रिंक यहां-वहां ले जा रहा है. सिंह की कुर्सी के पास उनके दो लेब्राडोर कुत्ते भी हैं. शांत और खुश दिख रहे मिल्खा इस सबके बीच बताते हैं, ‘मैं गोल्फ क्लब के अवार्ड सेरेमनी में नहीं रुकता क्योंकि ट्रॉफियां बेमानी हैं. मैं अपने सभी मैडल खेल प्राधिकरण को दे चुका हूं क्योंकि मिल्खा सिंह को उनकी जरूरत नहीं है. ‘पीछे रखी ट्रॉफियों की तरफ इशारा करते हुए वे कहते हैं, ‘ये सब जीव की हैं.’ लेकिन ऐसा नहीं है कि उड़न सिख के लिए प्रतियोगिताएं जीतना बेमानी है. जीव बताते हैं कि अपने पिता के साथ गोल्फ में मुकाबला काफी मुश्किल होता है, ‘वे सिर्फ जीतने के लिए खेलते हैं.’ 20 साल से मिल्खा सिंह के दोस्त रहे बीडी गांधी कहते हैं कि ‘ नंबर वन ‘ रहना उनका जुनून है, चाहे यह गोल्फ हो, रमी हो या दोस्तों के साथ शराब पीना. आखिर ऐसा क्या है जिसने मिल्खा सिंह को इतना दृढ़ निश्चय और कामयाब होने की यह अदम्य इच्छा दी? यह समझने के लिए हमें उनके अतीत में जाना होगा. आजादी के समय जब लाशों से लदी ट्रेनें दोनों देशों में आ-जा रही थीं तब 17 साल के मिल्खा सिंह पाकिस्तान में फैसलाबाद स्थित अपने गांव की सुरक्षा के लिए बाहर तलवार लेकर खड़े थे. ‘मैं डरा हुआ था. मैं कोई हत्यारा तो था नहीं.’ वे कुछ देर के लिए चुप हो जाते हैं. दंगे और उसके बाद हुए भीषण हत्याकांड को याद करते हुए अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘ हजार से ज्यादा लोगों की लाशें जमीन पर पड़ी हुई थीं. लकड़बग्घे और कुत्ते मेरे पड़ोसियों और मां-बाप की लाशों के आस-पास घूम रहे थे. तीन मील तक के दायरे में लाशें बिखरी थीं.’

[box] ‘मैं अब भी ट्रैक का सपना देखता हूं जहां दर्शकों का शोर है और वे बेकाबू होकर तालियां बजा रहे हैं. वे क्षण मेरी रगों में समा गए हैं[/box]

इस मारकाट के बीच मिल्खा सिंह ट्रेन के महिला डिब्बे में सीट के नीचे छिपकर दिल्ली आ गए. वे बताते हैं कि उन्होंने स्टेशन पर कचरे से अपने लिए काम की चीजें निकालकर कई दिन बिताए. इस दौरान वे रोते और सोचते कि आखिर उन्होंने क्या किया था जो उन्हें ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं. आखिरकार उन्होंने शाहदरा ब्याही अपनी बहन का पता मिल गया. वे कुछ दिन यहां भी रहे लेकिन उस परिवार की माली हालत भी ऐसी नहीं थी कि वे मिल्खा को ज्यादा दिन अपने पास रख पाते. एक बार जब वेे ट्रेन से नई दिल्ली लौट रहे थे तो बिना टिकट यात्रा जुर्म में उन्हें पकड़ लिया गया. अब यह शरणार्थी तिहाड़ जेल पहुंच चुका था. ‘जेल में मैंने तय कर लिया कि बचने का इकलौता तरीका है डकैत बन जाना. भूख से मरने से तो यह बेहतर ही था और बहुत हद तक लोगों द्वारा फेंके गए टुकड़ों पर पलने से भी यह अच्छा होता.’ वह थोड़ा ठहरकर कहते हैं, ‘आपकी पीढ़ी कभी उन हालात को समझ नहीं पाएगी.’ किसी तरह जमानत के पैसे जुटाकर उनकी बहन ने मिल्खा को उनके बड़े भाई के पास भेज दिया जो ब्रिटिश सेना में नौकरी करते थे. भाई ने उनको सेना में शामिल होने के लिए तैयार कर लिया. तीन बार असफल होने पर आखिरकार भाई ने भारी-भरकम रिश्वत देकर मिल्खा को भर्ती करा ही दिया.

पहले ही दिन उन्हें साथी जवानों के साथ पांच मील लंबी रेस में भागना पड़ा. मिल्खा अपनी टोली में छठे स्थान पर रहे. पहली बार में ही इस प्रदर्शन से उन्हें यकीन हो गया कि अपने गांव में उन्होंने दौड़ने की एक अलहदा तकनीक विकसित कर ली थी. वहां उनका स्कूल घर से कई मील दूर था. वे रोज भागकर वहां जाते थे. मिल्खा कहते हैं, ‘रोज इतना भागने से मेरी क्षमता बढ़ गई थी. मेरी गति भी अच्छी-खासी हो गई थी.’ सेना को भविष्य का एक एथलीट मिल गया था तो मिल्खा को काम के साथ-साथ ठीक से खाने-पीने की सुविधा. अब उनके रोज के भोजन में एक गिलास भैंस का ताजा दूध और एक अंडा बढ़ गया था. यहीं एक बार राष्ट्रीय खेलों में चयन के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन होने वाला था. मिल्खा को प्रतियोगिता में भाग लेने से रोकने के लिए प्रतिस्पर्धियों ने उन पर सोते वक्त लाठियों से हमला कर दिया. उन्हें कई जगह चोटें आईं और बुखार आ गया. लेकिन इसके बाद भी वे दौड़े, न सिर्फ दौड़े बल्कि खेलों के लिए चुन भी लिए गए.

हर किस्से का अंत एक नैतिक कथन से करने वाले मिल्खा जब महिलाओं के  प्रति आकर्षण का जिक्र करते हैं तो उनकी बेतकल्लुफी इस नैतिकता पर हावी दिखती है. अपने करियर के दौरान महिलाओं के आकर्षण का केंद्र रहे मिल्खा उनसे अपनी बातचीत का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘मैं उनसे कहता मेरी गर्लफ्रैंड बन जाओ. साथ में वक्त बिताते हैं और फिर अपने-अपने रास्ते हो लेंगे.’

[box]मिल्खा सिंह के जीवन पर बनने वाली फिल्म भाग मिल्खा भाग में 1946 से लेकर 1960 के बीच उनके जीवन को दिखाया गया है[/box]

बहरहाल इस तेज भागती दुनिया से अपेक्षाकृत सुस्त सरकारी नौकरी यानी पंजाब में खेल महानिदेशक बनना एक कठिनाई भरा बदलाव था. काम के पहले दिन से मिल्खा के सहयोगी रहे बीडी गांधी हंसते हुए याद करते हैं कि कैसे मिल्खा कहते थे, ‘गांधी अगर तुम मेरा पूरा काम भी कर दोगे तो भी मुझे ऑफिस आना होगा, बैठकों का इंतजार करना होगा, और मैं वैसा करने की सोच भी नहीं सकता.’ गांधी, याद करते हैं कि कैसे मिल्खा उनसे किसी भी प्रदेश के मुख्यमंत्री को फोन करने को कहते ताकि उनके राज्य में खेल शिविर लगाया जा सके. उन्हें फोन पर केवल यही कहना होता था कि मिल्खा सिंह लाइन पर हैं. वे ढांचागत बदलाव लाने के इच्छुक थे. सेना से होने के कारण उनका खिलाड़ियों को बिना भटकाव एकांत प्रशिक्षण दिलाने पर जोर था. वे  श्रीनगर जैसे स्थानों पर शिविर लगवाते जहां खिलाड़ी युवाओं के साथ अभ्यास कर सकें. इसके अलावा वे बेहद प्रेरक भाषण भी दिया करते थे जो अब उनकी पहचान बन चुके हैं. उन्होंने जरूरतमंदों को पैसा और साइकिलें भी भेंट कीं.

इस बीच उन्होंने भारतीय महिला बॉलीवाल टीम की पूर्व कप्तान निर्मल कौर से शादी कर ली. इस वक्त तक उनके जीवन की धारा कुछ बदल गई थी. उनकी दिनचर्या में रमी और गोल्फ, सुखना झील के किनारे जॉगिंग, ऑफिस जाना और उसके बाद घर आकर बच्चों के साथ खेलना शामिल हो गया. युवावस्था में जब बेटे जीव ने गोल्फ की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू किया तो वह नजारा बार-बार मिल्खा सिंह की आंखों में तैरने लगा जब वे ओलंपिक पदक हासिल करने से चूक गए थे. जीव कहते हैं कि आज वह जैसे भी हैं उसमें उनके पिता का अविस्मरणीय योगदान है. गोल्फ में जीव की तमाम जीतों से सिंह यकीनन बहुत प्रसन्न होंगे लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वे खुद ऐसे शख्स हैं जिसने 80 रेसों में भाग लिया और उनमें से 77 जीतीं. वे जीव की तमाम ट्रॉफियां दिखाते हैं और कहते हैं, ‘आजकल ट्रॉफियों के साथ पैसा और विज्ञापन भी मिलते हैं. मेरे पास बहुत-सी ट्रॉफियां थीं लेकिन पैसा नहीं था.’

ओलंपिक खेलों में चौथा स्थान पाकर पदक से चूक जाने वाले मिल्खा इसकी सफाई देते वक्त गुस्से से भर जाते हैं. उनकी कही कई बातें सच भी हैं, मसलन पर्याप्त प्रशिक्षण न दिए जाने के कारण वह फिनिश लाइन पर अपने कंधे सही समय पर झुका नहीं पाए इसलिए बराबर समय निकालने के बावजूद उनको तीसरा नहीं चौथा स्थान मिला. इस तरह वे कांस्य पदक पाने से चूक गए. वे कहते हैं, ‘मैं अब भी ट्रैक का सपना देखता हूं जहां दर्शकों का शोर है और वे बेकाबू होकर तालियां बजा रहे हैं. वे क्षण मेरी रगों में समा गए हैं.’ यह पूछे जाने पर कि उन सपनों में फिनिश लाइन पर क्या होता है. मिल्खा मुस्कुरा कर कहते हैं, ‘मैं जीत जाता हूं.’