‘सत्यमं शिवं सुंदरम के बहाने झलकी भारतीयता

ब्रजनाथ श्रीवास्तव ने कहा कि जिन्दगी का यही यथार्थ है जो हमें एक डोर से खींचता है। यही भारतीय संवेदना है। हिंदी के महारथी कवि-आलोचक राम विलास शर्मा और आलोचक-कवि नामवर सिंह ने साहित्य में हावी हो रही अस्तित्ववादी चेतना के बरक्स कबीर के जरिए भारतीय परंपरा स्थापित की थी। जिसे काफी कुछ बदलते हुए आज संस्कृत के विद्वान और बरसों हाशिए पर बैठे रहे हिंदी के वरिष्ठ रचनाकार अब ऐतिहासिक साहित्य वारिधि बनाने में जुट गए हैं।

संस्कृत साहित्य के साहित्य मर्मज्ञों ने जहां उद्देश्य को कभी भावों की प्रस्तुति बताया तो कभी कला की अनिवार्यता। विश्वजीत सपन ने कहा, साहित्य का उद्देश्य कभी आदर्शों की स्थापना का रहा तो कभी यथार्थ का। विश्वजीत के इस बयान पर अच्छा-खासा विवाद भी छिड़ा। यह तक कहा गया कि ‘शापÓ शब्द का उदय संस्कृत साहित्य की ही देन है। छंद के बाहर की कविता यानी मुक्त छंद मुक्तिबोध की सौ साल पुरानी विशेषता है। आज के हालातों में बढ़ती कट्टरता तोड़ पाने में यही सक्षम भी है।

मंच पर जहां तेलुगु-हिंदी के रचनाकार, आन्ध्र और तेलंगाना में और देश के विभिन्न साहित्यकार पुस्तक के बहाने आपस में मिले तो उसे देख कर लगा ‘राजनीति जहां हमें तोड़ती है वहीं साहित्य जोड़ता है, बकौल विश्वजीत, इस परिदृश्य में मैं अकेला नहीं हूं, आप सब साथ हैं।