शुक्ल-कृष्ण के बीच

विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ सीधा संपर्क रखने और सक्रियता से काम करने वाले शायद ऐसे इक्का-दुक्का कांग्रेसी नेताओं में रहे होंगे जिन्होंने उनके परनाना नेहरू के साथ भी इतनी ही सक्रियता से काम किया था. यह 1956 की बात है जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के निधन के बाद खुद नेहरू ने 27 साल के उनके बेटे विद्याचरण को लोकसभा चुनाव लड़ने की सलाह दी थी. 1957 में कांग्रेस ने उन्हें छत्तीसगढ़ की महासमंद सीट से टिकट दिया और वे 28 साल की उम्र में ही सांसद बन गए.

बीती 25 मई को नक्सली हमले में घायल होने के बाद गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में अपने जीवन की अंतिम सांस (11 जून को) लेने वाले शुक्ल ऐसे राजनेता रहे जिनके लिए राजनीति का संगीत राजनीतिक विचार मंथन से नहीं, बल्कि भारी राजनीतिक सक्रियता से निकलता था. उन्हें अपने जीवन में कभी इसका रियाज नहीं करना पड़ा. विद्याचरण शुक्ल को राजनीति अपने पिता से विरासत में मिली थी. यह भी खास बात है कि जमीनी राजनीति के सबक उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में सीखे थे. उस दौरान जब उनके पिता पंडित रविशंकर शुक्ल के साथ घर के अन्य पुरुष सदस्य जेल में बंद रहते तो वे अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ साइक्लोस्टाइल पैंफलेट तैयार करके उसे वितरित किया करते थे.

वैसे तो शुक्ल की पूरी जिंदगी कई बड़े राजनीतिक झंझावतों के दौर से गुजरी है, लेकिन उनके जीवन में पहला बड़ा राजनीतिक मोड़ तब आया था जब वे 1962 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक प्रभावशाली नेता खूबचंद बघेल को पराजित करके लोकसभा पहुंचे. तब विपक्ष ने उनके इस निर्वाचन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई और कोर्ट ने उनके निर्वाचन को अवैध मानते हुए उनके छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ जब शुक्ल ने चुनाव आयोग को एक आवेदन दिया तो आयोग ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति दे दी. राजनीति से जुड़े लेकिन उससे बाहर के दांव-पेंचों से शुक्ल का यह पहला वास्ता था और वे इसमें जीत चुके थे. इस जीत ने उनका आत्मविश्वास इतना बढ़ाया कि इस बूते वे नेहरू जी के बाद जल्द ही इंदिरा गांधी के करीबी हो गए.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here