‘व्यापक समाज अब आदिवासियों के संघर्ष को महसूस कर रहा है’

पुरुलिया में लगभग एक दशक पूर्व पंचायती संस्थाओं के सर्वेक्षण के क्रम में पंचायतों के दलित जन-प्रतिनिधियों ने अपनी पीड़ा बताई कि उनके ही वामदल का पंचायत-जिला परिषद में वर्चस्व है. पर उन्हें और उनके समुदाय की समस्याओं की इसलिए अनदेखी की जाती है क्योंकि वे दलित हैं. सामाजिक-राजनैतिक तौर पर उनकी आवाज कमजोर है.

सामान्यतया पति कॉमरेड हो या न हो पत्नियों को कोई फर्क नहीं पड़ता. पितृसत्ता का वर्चस्व उन्हें एक ही तरह से प्रताड़ित करता रहता है. उसी तरह सामान्य तौर पर कॉमरेड नेतृत्व-कार्यकर्ता, रचनाकार-विचारक का वर्णवादी-जातिवादी अदृश्य ऐंटीना भी सक्रिय रहता है. उनकी भी बेटी और रोटी तो जाति में ही शोभती है, वह भी पूरे कर्मकांड-अनुष्ठान के साथ. वैचारिकता और व्यवहार के इस फांक ने अस्मितावादी आंदोलनों को हवा देने में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं.

9/11 के बाद बुश महोदय ने तो पूरी दुनिया को मुसलमान के रूप में एक स्थायी  ‘अंदर-अन्य’  दे दिया है. उन्होंने उसके माथे पर  ‘आतंकी’  होने का स्टिकर भी चिपका दिया है. 1925 से जो फासीवादी संगठन हमारे देश में इसी प्रयास में लगे थे उनके लिए तो बुश का यह घृणा अभियान ऐसा रहा मानो उनके भाग्य से छींका ही टूट गया हो.

केवल ये कटु सच्चाइयां ही नहीं बल्कि इसके साथ कई अन्य कारक भी हैं जिन्होंने अस्मितावादी आंदोलनों को खड़ा करने, प्रचारित-प्रसारित करने में भूमिका निभाई है. ‘पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी’ एक वैश्विक परिघटना है. इसे ‘सर्वहारा के महाआख्यान’ के खिलाफ खड़ा करने के लिए काफी समर्थ और प्रतिबद्ध विचारक-दार्शनिक मिले. पहले ‘अन्य’ या ‘अदर्स’ की पहचान की जाए, उसके खिलाफ सैद्धांतिक दर्शन गढ़ा जाए. फिर उसके खिलाफ पूरी ताकत और घृणा के साथ अभियान चलाया जाए. ‘घृणा’ की अपनी क्षमता है. किंतु ऐतिहासिक तथ्य है कि ‘घृणा’ अंततः होलोकॉस्ट की ओर ही ले जाती है. आज अस्मितावादी राजनीति का कटु यथार्थ उत्तर-पूर्व की मिलिशिया आधारित हिंसक राजनीति है या अफ्रीकी देशों को गृहयुद्ध की ओर ले जाती आत्मघाती राजनीति. ‘अस्मितावादी आंदोलन’ के मुखौटे के पीछे का चेहरा यह भी है. वंचित-शोषित-हाशियाकृत तबकों को अपनी विशिष्ट समस्याओं के रेखांकन के बाद संघर्ष के लिए इकट्ठा एक मंच पर न जुटने दिया जाए तो लाभ किसे है? अतः अस्मितावादी आंदोलन कोई निश्छल भाव से चलने वाला आंदोलन नहीं है. वैश्विक पूंजीवादी राजनीति उसके पीछे खड़ी है.

यह सही है कि हमारी अग्रज पीढ़ी और हमारी पीढ़ी के कई रचनाकार हाशियाकृत समुदायों की विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-मनोदैहिक समस्याओं को समझने, उनमें डूबने और क्षमतानुसार सृजित करने में अनवरत प्रयत्नशील हैं. लेकिन हमारी कामनाएं भी स्पष्ट हैं कि अगर वैश्विक पूंजीवाद ईश्वर की तरह सर्वव्यापी हो गया है तो उसके खिलाफ संघर्ष करने के लिए ज्यादा एकजुटता, ज्यादा मजबूती की जरूरत है. मानवता की मुक्ति के सपने के रंग को और भी गाढ़ा करना होगा. आज के दिन जो विशिष्टताओं के नाम पर अलग-अलग मोर्चे, अलग-अलग प्रतिष्ठान के संचालन को उतारू हैं, उनकी नीयत पर हमें शक है.

gayabआजकल नए लिखने वाले ज्यादातर कहानी और कविता लिखते हैं. उपन्यास की तरफ उनका रूझान कम ही दिखता है. लेकिन आप एक उपन्यासकार के रूप में अधिक सक्रिय दिखते है, ऐसा क्यों?
मेरी मजबूरी यह है कि मेरा जो अनुभव संसार है वह मुख्य रूप से आदिवासी समाज का ही है. यहां समस्याएं इतनी जटिल, जीवन इतना कठिन, दबाव इतना चौतरफा है कि इन्हें चाहकर भी किसी दूसरी विधा में नहीं अंटा सकते. इसीलिए ‘ग्लोबल गांव का देवता’ 2009 में प्रकाशित होता है तो ‘गायब होता देश’ 2014 में प्रकाशित हो रहा है.

‘ग्लोबल गांव के देवता’   ने आपको उपन्यासकार के रूप में बहुत ख्याति दिलाई. लेकिन आप कवि हैं और कहानीकार भी. क्या आपको कभी लगा कि  ‘ग्लोबल गांव के देवता’  ने उनके हिस्से की ख्याति भी अपने हिस्से में ले ली?
वैसे ‘ग्लोबल गांव के देवता’ के पहले ‘रात बाकी’ कहानी ने मुझे पहचान दिला दी थी, आत्मविश्वास दिया था. अब किताबें भी प्रोडक्ट हैं और बाजार भी यथार्थ है सो बाजार तो ब्रांडिंग करेगा ही. या यह भी हो सकता है मेरी कविताएं और कहानियां कमजोर हों. कविता में जिस सूक्ष्म भाव, भाव-लहर की प्रतिध्वनियों को पकड़ने और उकेरने की कोशिश की जाती है, मैं ही सूक्ष्मता से उस भाव को पकड़ने में असफल रहा हूं. अब सही बात क्या है ठीक-ठीक कह नहीं सकता.

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