राजधानी का राज़

बात करीब एक साल पुरानी है. गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने की घोषणा करके उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एकाएक सबको चौंका दिया था. इसकी वजह यह थी कि पहाड़ी राज्य की अवधारणा के प्रतीक इस कस्बे को लेकर इससे पहले किसी भी मुख्यमंत्री ने इस तरह की दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. इसके बाद जब जनवरी के महीने सचमुच में गैरसैंण में विधानसभा भवन का शिलान्यास हो गया तो राजधानी के विचार को लेकर हल्की सुगबुगाहट होने लगी. इस शिलान्यास कार्यक्रम के दौरान गैरसैंण में भारी-भरकम जलसा भी हुआ था. बहुगुणा समेत तमाम दूसरे कांग्रेसियों ने तब उस शिलान्यास कार्यक्रम को राजधानी के संदर्भ में एक बड़ा कदम बताया था. विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल के शब्दों में ‘यह गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाने की शुरुआत’ थी. नवंबर मंे सरकार उसी गैरसैंण में विधानसभा भवन के लिए चुनी गई जमीन का भूमि पूजन भी कर आई है.

यहां तक का घटनाक्रम देखा जाए तो सब कुछ गैरसैंण के पक्ष में होता दिखता है. लेकिन ठीक इसी तरह का और घटनाक्रम पिछले दिनों देहरादून में भी दोहराया गया. सरकार ने फैसला किया कि गैरसैंण की तर्ज पर देहरादून में भी एक और विधानसभा भवन बनाया जाएगा. इस भवन के शिलान्यास की भी बाकायदा तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, लेकिन ऐन मौके पर आंदोलनकारी संगठनों के कान खड़े हो गए और सरकार बैकफुट पर आ गई. इसके बाद उसने विधानसभा भवन बनाने के लिए चिह्नित की गई इस जमीन पर वन मंत्रालय की स्वीकृति के पेंच का बहाना बनाते हुए इस कार्यक्रम को फिलहाल अस्थायी विराम दे दिया है. लेकिन सूत्रों की मानें तो बहुत संभव है कि वन मंत्रालय से हरी झंडी मिलते ही यहां भी भूमि पूजन कर दिया जाए.

ऐसा होते ही उत्तराखंड देश का पहला राज्य होगा जिसके पास तीन-तीन विधानेसभा भवन होंगे, लेकिन स्थायी राजधानी कहां होगी इसको लेकर तब भी असमंजस बना रहेगा. गौरतलब है कि देहरादून में पहले से ही एक विधानसभा भवन मौजूद है. ऐसे में गैरसैंण को राजधानी बनाने को लेकर सरकार की मंशा तो संदेह के दायरे में आ ही गई है, साथ ही दो-दो जगहों पर तीन-तीन विधानसभा भवन बनाए जाने को लेकर भी बहस खड़ी होती दिख रही है.

इस बहस में बहुत सारे सवाल निकल रहे हैं जिनका लब्बोलुआब यह है कि क्या वजह है जो सरकार की प्राथमिकता स्थायी राजधानी तय करने के बजाय विधानसभा भवन बनाना रह गई है. सवाल यह भी है कि गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने के बाद सरकार ने राजधानी बनाने को लेकर जो संकेत दिए थे, क्या वे झूठे थे. और अगर सरकार गैरसैंण को लेकर वाकई गंभीर है तो फिर देहरादून में विधानसभा भवन बनाने की क्या जरूरत है, वह भी तब जब देहरादून में पहले से ही एक विधान भवन मौजूद है?

इस मुद्दे पर प्रदेश भर में अलग-अलग बातें हो रही हैं. कुछ लोग इसे स्थायी राजधानी के अहम सवाल से बचने का उपक्रम बता रहे हैं तो कुछ की नजर में यह आने वाले पंचायत चुनावों और फिर लोकसभा चुनाव को देखते हुए मैदानी वोटरों को साधने का पैंतरा है.

पहली वाली बात पर जाएं तो पता चलता है कि स्थायी राजधानी के सवाल को लेकर प्रदेश की अब तक की सभी सरकारों का रवैया टरकाऊ ही रहा है. सन 2000 में राज्य बनने के बाद केंद्र ने राज्य सरकार को स्थायी राजधानी तय करने के अधिकार के साथ ही विधानसभा भवन बनाने के लिए 88 करोड़ रुपये जारी किए थे. लेकिन तब से लेकर अब तक सरकार स्थायी राजधानी तय करने में नाकाम रही. इसकी एक बड़ी वजह स्थायी राजधानी के भावनात्मक मुद्दे का पहाड़ और मैदान की राजनीति की भेंट चढ़ जाना भी रही. कोई सरकार इस मुद्दे पर खुद फैसला नहीं लेना चाहती थी क्योंकि उसके मन में वोट बैंक खोने का डर पैदा हो चुका था. यही वजह है कि राजधानी का निर्धारण करने के लिए आयोग का सहारा लिया गया. लेकिन पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी द्वारा राजधानी का चयन करने के लिए बनाए गए दीक्षित आयोग की रिपोर्ट को पांचवें मुख्यमंत्री खंडूरी को सौंपे जाने के बाद भी इसकी अनुशंसाओं पर सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया. बीसी खंडूरी के बाद आए रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ और विजय बहुगुणा ने भी इस रिपोर्ट को लेकर कोई कदम उठाने का संकेत नहीं दिया. सूचना अधिकार अधिनियम के जरिए इस रिपोर्ट के सार्वजनिक हो जाने के बाद भी सरकार इसको लेकर कभी गंभीर नहीं दिखी.

इस बीच केंद्र द्वारा विधानसभा भवन बनाने के लिए दिए गए 88 करोड़ रुपये की घनराशि के खर्च किए जाने की समय सीमा पूरी होने लगी तो सरकार को अचानक से विधानसभा भवन बनाने का ध्यान आ गया और उसने इसका निर्धारण करने के लिए उसने चार विधायकों की एक समिति बना दी. यह बात खंडूरी के दूसरे कार्यकाल के दौरान की है. इस समिति ने देहरादून और उसके आस-पास चार जगहों के नाम सरकार को सुझाते हुए अपना काम पूरा कर दिया (सरकार द्वारा देहरादून में प्रस्तावित विधानसभा भवन वाली जगह इन्हीं चार जगहों में से एक है). इस बीच समिति के फैसले की जानकारी जब सार्वजनिक हुई तो प्रदेश के तमाम सामाजिक और आंदोलनकारी संगठन इसके विरोध में आ गए. दरअसल इस समिति ने प्रदेश के दूसरे किसी भी हिस्से को लेकर कोई चर्चा नहीं की थी और खुद को सिर्फ देहरादून तक सिमटाए रखा. समिति के अध्यक्ष रहे और अब उत्तराखंड सरकार में मंत्री दिनेश अग्रवाल ने तब खुद स्वीकार किया था कि समिति ने सिर्फ देहरादून को ध्यान में रखते हुए अपना काम किया. इसके बाद सरकार की मंशा पर सबसे बड़ा सवाल यही किया गया कि स्थायी राजधानी का निर्धारण किए बगैर सरकार किस आधार पर विधानसभा भवन के लिए जगह तय कर सकती है.

भाकपा माले के प्रदेश सचिव इंद्रेश मैखुरी इसे गैरसैंण को सीधे-सीधे राजधानी की दौड़ से बाहर कराने का षडयंत्र बताते हैं. वे कहते हैं, ‘राज्य आंदोलन के दौर से ही स्थायी राजधानी को लेकर लोगों की भावनाएं गैरसैंण के पक्ष में रही हैं जिसे खुद सरकार के दो-दो आयोगों ने भी माना है. बावजूद इसके गैरसैंण के नाम पर इस समिति ने विचार तक नहीं किया. इस बीच मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अचानक गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने की घोषणा कर दी. इसके बाद चार विधायकों वाली समिति की रिपोर्ट का कोई मतलब नहीं रह जाना चाहिए था. लेकिन अब सरकार ने फिर से देहरादून का राग छेड़ कर इतने गंभीर मामले को खिचड़ी कर दिया है.’

स्थायी राजधानी के सवाल को थोड़ी देर के लिए अलग रखते हुए अब उस दूसरी बात पर आते हैं जो देहरादून में विधानसभा भवन बनाने के पीछे के चुनावी गणित की ओर इशारा करती है. पिछले साल गैरसैंण में विधानसभा भवन का शिलान्यास करने के बाद पहले वहां का काम पूरा करने के बजाय सरकार के अचानक देहरादून का राग अलापने को सीधे-सीधे आगामी चुनावों से जोड़ कर देखा जा रहा है. जानकारों की नजर में देहरादून के पक्ष में हो रही इस ‘बेमौसम बरसात’ के बहुत बड़े मायने हैं. गैरसैंण में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार और आंदोलनकारी पुरुषोतम असनोड़ा कहते हैं कि पिछले लंबे वक्त से देश भर में कांग्रेस के खिलाफ लोगों का गुस्सा जिस तरह से सामने आ रहा है उसे देखते हुए कांग्रेस अपनी बची-खुची जमीन को किसी भी हाल में गंवाना नहीं चाहती. वे कहते हैं, ‘यही वजह है कि पहले गैरसैंण के बहाने पहाड़ी वोटरों को साध चुकी सरकार अब देहरादून में विधानसभा भवन के सहारे मैदानी वोटरों को साधना चाहती है.’ जनगणना के नए आंकड़ों के बाद प्रदेश के मैदानी वोटरों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है.

असनोड़ा का यह तर्क इसलिए भी सही मालूम पड़ता है कि प्रदेश में जल्द ही पंचायत चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव होने हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो ये दोनों ही चुनाव मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के राजनीतिक भविष्य के लिए जीवन-मरण का प्रश्न हैं. इससे पहले निकाय चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद से ही बहुगुणा विरोधी खेमा मुखर होकर उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. ऐसे में बहुगुणा नहीं चाहते कि उसके हाथ कोई और मौका लगे. एक और गौर करने वाली बात यह है कि देहरादून में जिस जगह पर विधानसभा भवन के लिए जमीन तय की गई है वह इलाका टिहरी संसदीय क्षेत्र के अधीन आता है. 2014 के आम चुनाव में इस सीट से कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार मुख्यमंत्री बहुगुणा के बेटे साकेत बहुगुणा हैं. ऐसे में माना यह भी जा रहा है कि साकेत की जीत पक्की करने के लिए भी बहुगुणा विधानसभा भवन को लेकर गंभीर हैं. लेकिन इस सबके बीच एक गंभीर सवाल यह भी है कि त्वरित लाभ को ध्यान में जखते हुए लिए लिए जाने वाले इन फैसलों के चलते इतने अहम मुद्दे को लगातार टालते रहने के दुष्परिणाम क्या होंगे. संसाधनों के लिहाज से भी देखा जाए तो उत्तराखंड जैसे छोटे प्रदेश में दो-दो जगहों पर विधानसभा भवन का औचित्य व्यावहारिकता से परे नजर आता है.

इस सबके बीच स्थायी राजधानी के सवाल पर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का हाल भी सरकार जैसा ही है. पिछले साल गैरसैंण में शिलान्यास कार्यक्रम में पहुंचे प्रतिपक्ष के नेता अजय भट्ट ने सरकार से मांग की थी कि वह पहले स्थायी राजधानी तय करे. एक साल के बाद अब जब सरकार देहरादून में भी विधानसभा भवन बनाने का फैसला ले चुकी है तब भी विपक्ष की यही मांग है. दो-दो विधानसभा भवनों को लेकर विरोध जताते हुए भट्ट कहते हैं, ‘सरकार को यह बताना चाहिए कि उसका स्थायी राजधानी को लेकर क्या स्टैंड है?’ लेकिन खुद उनकी पार्टी के रुख को लेकर सवाल पूछे जाने पर भट्ट गेंद सरकार के पाले में ही डाल देते हैं. वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन शाह इसे कांग्रेस भाजपा की जुगलबंदी का परांपरागत तरीका बताते हैं. वे कहते हैं, ‘भाजपा की सरकार के दौरान कांग्रेस भी यही सब करती थी जो भाजपा इस वक्त विपक्ष में रह कर कर रही है. स्थायी राजधानी को लेकर अगर भाजपा वाकई इतनी गंभीर है तो खुल कर क्यों सड़क पर नहीं आती?’

बहरहाल इतना साफ है कि पहले गैरसैंण और अब देहरादून में विधानसभा भवन बनाने का एलान कर चुकी सरकार वन मंत्रालय की मंजूरी मिलते ही इस प्रोजेक्ट को अमली जामा पहनाना शुरू कर देगी. पहाड़ और मैदान के संतुलन को साधने के चलते स्थायी राजधानी के मुद्दे पर दोनों ही प्रमुख दल अब तक पूरी तरह ‘साइलेंट मोड’ में हैं और जब तक संभव हो तक तब ऐसी ही स्थिति में बने रहना चाहते हैं. लेकिन जानकारों की मानें तो राज्य सरकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि आखिर एक दिन तो स्थायी राजधानी के सवाल पर उसे स्थायी जवाब देना ही होगा. तब कहीं ऐसा न हो कि क्षेत्रीय संतुलन के जिन पैंतरों पर वह आज अपने हित साध रही है वही आने वाले वक्त में उसके लिए मुश्किल न पैदा कर दे. क्योंकि तब क्षेत्रवाद की आंधी जिस भी दिशा से बहेगी उसमें सरकार का तख्त उड़ना तय हो जाएगा.