इन विद्वानों का यह भी कहना है कि आज की विभिन्न रोमा उपजातियों के बीच हालांकि कई प्रकार की बोलियां और भाषाएं मिलती हैं पर उनके मूल शब्द, बहुत-से संख्यावाचक और पारिवारिक संबंधसूचक शब्दों, शारीरिक अंगों और कार्यकलापों के नाम भारतीय उदगम के ही हैं. उनकी बोलियों-भाषाओं पर संस्कृत, हिंदी और पश्चिमोत्तर भारत की बोलियों की अमिट छाप है. भारत से वे कब और क्यों चले, इस बारे में नवीनतम आनुवंशिक अध्ययनों के आधार पर कहा जा रहा है कि उनके सबसे आरंभिक पूर्वज डोम जाति के थे. वे कोई डेढ़ हजार वर्ष पूर्व पांचवीं सदी में भारत से निकलना शुरू हुए. कई अलग-अलग रास्तों से और कई अलग-अलग झोंकों में वे पहले पश्चिम एशिया की तरफ बढ़े. कुछ तो पश्चिम एशिया या मध्य पूर्व में ही रह गए और कुछ दक्षिणी भूमध्यसागर के तटवर्ती देशों में भी पहुंच गए. कहते हैं कि 11वीं सदी में इन भारतीयों का एक हिस्सा आज के रोमानिया, बुल्गारिया और भूतपूर्व यूगोस्लाविया वाले बाल्कन प्रायद्वीप पर पहुंच कर दो भागों में बंट गया. एक भाग दक्षिण-पूर्वी यूरोप की तरफ और दूसरा भाग मध्य यूरोप की तरफ बढ़ने लगा.
यह बात पश्चिमी इतिहासकारों के एक वर्ग के इस कथन का किसी हद तक समर्थन करती लगती है कि रोमा जनजातियों के पूर्वज अधिकतर ऐसे अनार्य (दलित) सैनिक भी रहे हो सकते हैं जिन्हें शायद महमूद गजनी से पहले के इस्लामी आक्रमणकारियों से तंग आ गए उस समय के भारतीय राजाओं को अपनी सेनाओं में भर्ती करना पड़ा था. इन इतिहासकारों के अनुसार, वे मूल रूप से डोम, लोहार, गुज्जर और टांडा जाति के थे; राजस्थान, पंजाब और सिंध जैसे भारत के पश्चिमी अंचलों में रहा करते थे और मुस्लिम आक्रमणकारियों का पीछा करते-करते ईरान के रास्ते से पश्चिम एशिया तक पहुंच गए. भारत से कट जाने और पश्चिम एशिया में पैर जमाए इस्लाम से लोहा लेने में असमर्थ होने के कारण हो सकता है कि वे उत्तर की ओर मुड़ कर रोमानिया जैसे पूर्वी यूरोपीय देशों में पहुंचे हों. रोमानिया में आज भी 24 लाख, यानी पूरे यूरोप में सबसे अधिक रोमा रहते हैं.
इससे कुछ हट कर पश्चिमी इतिहासकारों के एक दूसरे वर्ग का मानना है कि रोमा लोगों के पूर्वज भारतीय राजाओं के सैनिक नहीं थे, बल्कि पश्चिमोत्तर भारत के सामान्य निवासी थे. नवीं-दसवीं सदी में भारत पर जब मुस्लिम अरबों का आक्रमण बढ़ने लगा, तब वे इन निवासियों से गुलामी करवाने या उस समय के रोमन साम्राज्य के सैनिकों से लड़ने-भिड़ने के लिए उन्हें बंदी बना कर अपने साथ ले जाने लगे. उनका यह भी कहना है कि महमूद गजनी के 997 से 1030 के बीच भारत पर किए गए 17 आक्रमणों के दौरान तत्कालीन पश्चिमी भारत के लगभग पांच लाख निवासियों और बंजारों को बंदी बना कर भारत से दूर ले जाया गया और बाद में उन्हें गुलामों के तौर पर यूनान, रोमानिया, सर्बिया आदि बाल्कन देशों में बेच दिया गया. वहीं से कुछ तो गुलामों के तौर पर बिकते हुए और कुछ अपने बलबूते पर नए ठौर-ठिकानों की तलाश करते हुए यूरोप के दूसरे देशों में पहुंचे.
रोमा बिरादरी की सिंती जाति के बारे में कहा जाता है कि ‘सिंती’ नाम सिंधी से ही बना होना चाहिए, यानी उनके पूर्वज सिंध के रहे होंगे. वे स्वयं भी यही मानते हैं. पश्चिमी यूरोप के रोमा खुद को सिंती कहना ही पसंद करते हैं. रोमानी भाषा में ‘रोमा’ का अर्थ मनुष्य है. फ्रांस में उन्हें ‘मौनूष’ और स्पेन तथा पुर्तगाल में ‘काले’ भी कहा जाता है.
भारतवंशी होने की वैज्ञानिक पुष्टि
इसकी वैज्ञानिक पुष्टि भी हो चुकी है कि रोमा और सिंती के पूर्वज पश्चिमोत्तर भारत के रहने वाले भारतीय ही थे. 2012 में विज्ञान पत्रिका ‘करंट बायोलॉजी’ में प्रकाशित अपने एक शोधपत्र में नीदरलैंड में रोटरडाम के एरास्मस विश्वविद्यालय के मान्फ्रेड काइजर ने लिखा कि रोमा और सिंती बिरादरी के पू्र्वज करीब 1,500 साल पहले भारत में रहा करते थे. करीब 900 साल पूर्व, यानी 11वीं-12वीं सदी में, वे बाल्कन प्रायद्वीप (यूनान, रोमानिया, बुल्गारिया, भूतपूर्व यूगोस्लाविया) के रास्ते से यूरोप में फैलने लगे थे.
काइजर की टीम ने उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी यूरोप में रहने वाली रोमा बिरादरी की 13 उपजातियों से जुड़े 152 लोगों के जीनों का तुलनात्मक अध्ययन किया है. उनका कहना है कि भारत से चलने के बाद वाले आरंभिक चरण के उनके जीनोम (समग्र जोन) में पश्चिम एशिया, मध्य एशिया या कॉकेशिया के निवासियों के जीनों की मिलावट नहीं मिलती. यानी, शुरू-शुरू में वे एक ही समुदाय रहे और आपस में ही शादी-विवाह करते रहे. लेकिन, बाद में वे कई हिस्सों में बंट गए और अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े. काइजर लिखते हैं, ‘रोमा लोग हालांकि आज भी बहुत कम ही स्थानीय लोगों से शादी-विवाह करते हैं, तब भी उनके जीनों में स्थानीय वैवाहिक संबंधों के आनुवंशिक निशान भी मिलते हैं.’ नए जीन अधिकतर हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, क्रोएशिया या स्लोवाकिया के मूल निवासियों से संबंध रखते हैं, जहां वे सबसे लंबे समय से और कहीं अधिक संख्या में बसे हुए हैं. पश्चिमी यूरोप के स्पेन, पुर्तगाल या जर्मनी जैसे देशों मंे रहने वाले रोमा लोगों के जीनोम में स्थानीय मूल निवासियों के जीनों की संख्या बहुत कम ही मिलती है. शायद इसलिए कि पश्चिमी यूरोप के निवासी रोमा जनों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं, इसलिए उनसे दूर ही रहते हैं.
बराबरी की लंबी लड़ाई
यूरोपीय देशों की सरकारों ही नहीं, अदालतों को भी रोमा लोगों को बराबरी का नागरिक मानने में काफी समय लगा है. स्वयं जर्मनी के सर्वोच्च न्यायालय ने 1956 में अपने एक फैसले में लिखा, ‘बंजारे अपराधवृत्ति वाले लोग हैं, विशेषकर चोरी और धोखाधड़ी करते हैं. दूसरों की वस्तुओं के प्रति आदारभाव का उनमें नैतिक अभाव है, क्योंकि वे आदिकालीन घटिया मनुष्यों की तरह सब कुछ बेझिझक हथियाने की फिराक में रहते हैं.’ यह फैसला 1963 तक वैध था. इसी कारण आज के लोकतांत्रिक जर्मनी को भी हिटलर के समय के सिंती-रोमा जातिसंहार को यहूदियों जैसा ही जातिसंहार मानने में काफी समय लगा.
अपने लिए मान्यता और नागरिक समानता पाने के उद्देश्य से ही 1970 में लंदन में रोमा बिरादरी का पहला विश्व सम्मेलन हुआ था. इसमें आए 25 देशों के रोमा प्रतिनिधियों ने अपनी बिरादरी का एक अलग झंडा और राष्ट्रगीत भी तय किया, हालांकि वे जिस किसी भी देश में रहते हैं, अपने आप को उसी देश का पुराना नागरिक मानते हैं. ऊपर नीले और नीचे हरे रंग की पट्टी के बीच में लाल रंग के अशोक-चक्र वाला रोमा झंडा भारत के प्रति उनके जीवंत लगाव के बारे में कोई संदेह नहीं रहने देता. इसी सम्मेलन में आठ अप्रैल, 1970 को यह भी तय हुआ कि दूसरे लोग उन्हें चाहे जिस हेय-सूचक नाम से पुकारें, वे खुद को हमेशा ‘रोमा’ ही कहेंगे और इसी नाम की मान्यता व अपने लिए समानता की मांग करेंगे. तब से आठ अप्रैल हर साल अंतरराष्ट्रीय रोमा दिवस के तौर पर मनाया जाता है. यूरोपीय संघ ने भी अब इस प्रथा को अपना लिया है.
यूरोप में रहने वाले रोमा लोगों की सही संख्या कोई नहीं जानता. अपने अपमान और तिरस्कार से बचने के लिए बहुत-से रोमा अब भी अपनी सही पहचान छिपाने की कोशिश करते हैं. तब भी, यूरोपीय संघ ने भी औपचारिक तौर पर मान लिया है कि वे ही यूरोप का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक जातीय समुदाय हैं. संघ के सभी 28 देशों को मिला कर उनकी संख्या एक से सवा करोड़ तक हो सकती है. संघ ने 2005 से 2015 तक के समय को ‘रोमा दशक’ घोषित किया है और दो वर्ष पूर्व उनके शैक्षिक और सामाजिक उत्थान की एक रणनीति भी तैयार की है.
रोमानी भाषा में संस्कृत-हिंदी
रोमा खुद को भले ही एक ही बिरादरी मानते हों, उनके धर्म अनेक हैं. वे जहां भी हैं, वहीं के धर्म में रंग गए हैं. हिंदू तो शायद ही कोई खुद को मानता होगा. लेकिन, वे यूरोप की अपनी स्थानीय भाषाओं के शब्दों को लेते हुए ‘रोमानी’ या ‘रोमानेस’ नाम की जो साझी भाषा विकसित कर रहे हैं, उसके लगभग 800 सबसे आम शब्द संस्कृत और हिंदी के ही शुद्ध या अपभ्रंश रूप बताए जाते हैं. ‘रोमानी’ के बोलने वालों की संख्या 35 लाख से अधिक आंकी जाती है.
भाषा और भारत के नाम पर जर्मनी की केंद्रीय सिंती और रोमा परिषद के अध्यक्ष रोमानी रोजे बहुत भावुक हो जाते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं 1984 में भारत गया था. वह मेरे लिए बहुत ही भावप्रवण यात्रा थी. अपनी जड़ों को जानने की यात्रा थी…मैं दिल्ली गया था, चंडीगढ़ गया था. वहां दुनिया भर के रोमा कलाकारों की मंडलियां आई थीं. रोमा भारत से जो कुछ कभी यूरोप ले गए थे, उसे एक बार फिर भारत लाए थे. वहां एक बड़े महोत्सव में उन्होंने अपनी रोमा संस्कृति को याद किया और प्रदर्शित भी किया.’ रोमानी भाषा का प्रसंग छिड़ने पर रोमानी रोजे ने बड़े गर्व से बताते हैं कि हजार साल बाद और हजारों किलोमीटर की दूरी के बावजूद उनकी भाषा संस्कृत और हिंदी से अब भी कितनी जुड़ी हुई है. उदाहरण के लिए, नाक को वे भी ‘नाक’, कान को ‘कान्त’, पिता या दादा के लिए ‘पापू’, दादी के लिए ‘मामी’, पानी के लिए ‘पानी’, बड़े लोगों के लिए ‘राई’ (राय साहब), मुंह के लिए ‘मुई’, दांत के लिए ‘दान्त’, जीभ के लिए ‘चीब’ या दिल के लिए ‘जी’ (जैसे, ‘जी करता है’ में ‘जी’ का अर्थ दिल है) कहते हैं. गिनती भी हिंदी से मिलती-जुलती है– एक, दुइ, द्रीन, स्तार, पांज, शोब, एस्ता, ओर्ता, एन्या, देस.
कत्थक बना फ्लामेंको
रोमानी रोजे के अनुसार, रोमा लोगों के नाच-गानों और संगीत में, उनकी गाथाओं और कलाओं में भारत अब भी बसा हुआ है. भारत का कत्थक नृत्य उन्हीं के माध्यम से स्पेन पहुंचा और अब वहां ‘फ्लामेंको’ के नाम से स्पेनी पहचान का प्रतीक बन गया है. लेकिन, उन्हें भारत की सरकार और जनता से यह शिकायत भी है कि मॉरीशस, फिजी या दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतवंशियों को तो बहुत सराहा-दुलारा जाता है, जबकि उनसे भी कहीं पहले यूरोप गए रोमा लोगों को भूल कर भी याद नहीं किया जाता. हिटलर के शासनकाल में हुए रोमा-जातिसंहार की याद में लंबे संघर्ष के बाद बर्लिन में बने स्मारक का 24 अक्टूबर, 2012 को लोकार्पण था. रोजे का कहना है कि इस समारोह में जर्मनी की चांसलर, जर्मन राष्ट्रपति तथा अमेरिका और फ्रांस सहित सभी प्रमुख देशों के राजदूत भी आए थे. उन्होंने भारतीय राजदूत (सुजाता सिंह, जो अब विदेश सचिव हैं) को भी अलग से आमंत्रित किया था. लेकिन वे नहीं आए. रोजे कहते हैं, ‘भारत और भारतीयों ने दक्षिण अफ्रीका को नस्लवाद से आजादी दिलाने में मदद दी, पर नस्लवाद के विरुद्ध हम रोमा लोगों की लड़ाई में कभी कोई मदद नहीं की.’
जर्मन रोमा बिरादरी के अध्यक्ष ने बताया कि भारत तो रोमा लोगों की उपेक्षा कर रहा है जबकि चीन उनमें दिलचस्पी ले रहा है. चीन ने उन्हें वहां के जातीय अल्पसंख्यकों की स्थिति दिखाने के लिए आमंत्रित किया. वे कहते हैं, ‘हम अल्पसंख्यक मामलों के चीनी मंत्री से भी मिले. बाद में चीनी मंत्री जब जर्मनी आए, तो हाइडेलबर्ग में हमारी केंद्रीय परिषद में भी आए.’ चीन की यह चाल भारत के लिए अलार्म जैसी होनी चाहिए. उसे सोचना चाहिए कि वह यूरोप के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की– जो कि सौभाग्य से भारतवंशी भी है– क्या इसी तरह उपेक्षा करता और चीन को उस पर डोरे डालते देखता रहेगा.
जर्मन केंद्रीय रोमा परिषद के पास 700 वर्गमीटर जगह के बराबर एक बड़ी प्रदर्शनी है. वह पूरे यूरोप सहित कई दूसरे देशों में भी दिखाई जा चुकी है. जहां भी गई, वहां के प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री ने उसका उद्घाटन किया. परिषद के अध्यक्ष रोमानी रोजे की हार्दिक इच्छा है कि रोमा बिरादरी के जातिसंहार की कहानी कहती यह प्रदर्शनी एक बार उस देश में भी दिखाई जाए जहां से उनके पूर्वज आए थे. वे सवाल करते हैं, ‘यह प्रदर्शनी क्यों नहीं एक बार नई दिल्ली में भी दिखाई जा सकती? ‘रोमा बिरादरी का एक बड़ा ऑर्केस्ट्रा भी है. रोजे कहते हैं, ‘ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि भारत सरकार यह प्रदर्शनी लगाती और ऑर्केस्ट्रा को भी निमंत्रित करती? किसी विश्वविद्यालय में रोमा-जातिसंहार पर एक व्याख्यान होता?’
सरकार ही नहीं, भारत की गैरसरकारी संस्थाएं, सामाजिक संगठन या शिक्षा संस्थान भी उन्हें उनकी पुरानी जड़ों से जोड़ने के लिए आगे आ सकते हैं. प्रवासी भारतीयों की तरह रोमा भी भारत के अनौपचारिक दूत बन सकते हैं. उनकी बिरादरी संसार का एकमात्र ऐसा शांतिप्रिय समुदाय है जो यहूदियों, कुर्दों या (अरबी राष्ट्रवाद का हिस्सा होते हुए भी) फिलिस्तिनियों की तरह कोई अलग जनता या अलग राष्ट्र होने का दावा अथवा नया देश देने की मांग नहीं करता. जिसका न कोई नेता है और न कोई आंदोलन है. जो न पृथकतावादी है और न आतंकवादी. वह तो एक बहुत ही दलित और व्यथित बिरादरी है. शायद यही वजह है कि उसकी इस प्रार्थना को भी कोई नहीं सुनता कि वह जहां भी है, उसे वहीं का बन कर रहने दिया जाए. हां, जिप्सी या बंजारा नहीं, बस ‘रोमा’ (मनुष्य) कहा और यही समझा जाए.
अपने पूर्वजों के देश भारत की याद शायद हर रोमा के रोम-रोम में बसी हुई है. पर क्या भारत को भी कभी इन बिछड़े हुए भारतवंशियों की याद आएगी?
Great article.