‘मेरा सरोकार स्त्री को लेकर मौज-मस्ती वाला नहीं है’

फोटोः पूजा सिंह
फोटोः पूजा सिंह
फोटोः पूजा सिंह

आपका नया उपन्यास  ‘फरिश्ते निकले’  एक तरह से यौन हिंसा की शिकार ग्रामीण स्त्रियों की कहानियों का कोलाज है. इन कहानियों के माध्यम से आप क्या बताना चाहती हैं?
उपन्यास में दो मुख्य पात्र हैं- बेला बहू और उजाला. इनकी ही कहानी मुख्य हैं. बाकी स्त्रियों की कहानियां पूरक हैं. ये दोनों स्त्रियां चाहती तो प्रेम हैं पर उन्हें प्रेम नहीं मिलता, यौन प्रताड़ना मिलती है. यह कितनी दुखदायी बात है कि प्रेम चाहने वाली स्त्री को समाज यौन हिंसा का पुरस्कार देता है. मेरा प्रश्न इस समाज से है कि आज भी स्त्रियों को यही सजा क्यों मिलती है? प्रेम का हक स्त्री को क्यों नहीं है? उपन्यास में लिली, बसंती आदि और भी लड़कियां हैं. इनके घर से भागने के पीछे कोई न कोई कारण जरूर रहा है. उदाहरण के लिए बसंती डाकुओं को खाना पहुंचाती है जिसके बदले में उसे पैसा मिलता है और घर का खर्च चलता है. यानी वह जरिया बन जाती है घर में पैसा लाने का. अब यह क्या है? वेश्यावृत्ति तो दिखाई देती है पर इस विनिमय को हम क्या कहेंगे? समाज को भी इससे समस्या नहीं है. स्त्री का सबकुछ करना स्वीकार है पर प्रेम करना स्वीकार नहीं है. इस उपन्यास में एक और बात ध्यान देने लायक है जब उजाला का बलात्कार हुआ तो उसे सीने से लगाने वाली बेला बहू ही है कोई पुरुष नहीं. मैं यह कहना चाहती हूं कि स्त्री-स्त्री की दुश्मन नहीं बल्कि उसका विस्तार है.

बेला बहू विवाह संस्था के भीतर भी उत्पीड़ित है और प्रेम में भी. प्रेम उन्हें विवाह से भी बदतर स्थिति में पहुंचा देता है. ऐसे में स्त्री के पास विकल्प क्या है?
मेरे हर उपन्यास में एक विकल्प है. स्त्री के सच्चे साथी के रूप में एक पुरुष पात्र मेरे उपन्यासों में जरूर मौजूद होता है. इस उपन्यास में ऐसा साथी बलवीर है. दरअसल बेला बहू ने विवाह की अमानवीयता से किसी तरह छुटकारा पाने के लिए प्रेम का सहारा लिया पर उन्हें प्रेम की आड़ में एक शिकारी ही मिला जैसे जीवन के तमाम फैसले हमेशा सही नहीं होते वैसे ही प्रेम में चयन का फैसला भी गलत हो सकता है, किंतु इसमें बेला बहू का कोई कसूर नहीं है. उन्होंने तो पूरी ईमानदारी से प्रेम किया. प्रेम में धोखा नहीं मिलता तो उनकी मुक्ति संभव थी. मेरा मानना है कि सच्चा प्रेम ही विकल्प है.

आपकी स्त्री पात्र इतनी सशक्त और चेतना संपन्न होते हुए भी प्रेम के मामले में एकदम बेबस और लाचार क्यों नजर आती हैं? उनकी सोचने-समझने की शक्ति कहां चली जाती है?
प्रेम में हर स्त्री का बुद्धि विवेक एक सा नहीं होता. वैसे भी प्रेम का बुद्धि और तर्क से विरोध का ही रिश्ता है. मेरी स्त्रियां निश्छल और ईमानदार हैं. इसी कारण प्रेम में धोखा खाने के बाद उनका प्रतिरोध अपने तीव्रतम रूप में दिखाई देता है. मेरी स्त्रियां अगर निश्छल प्रेम नहीं करती तो क्रांति भी नहीं कर सकती थी. जब कोमल भावनाओं की हत्या होती है तभी वह अपने प्रचंडतम रूप में अभिव्यक्त होती है. मेरा मानना है कि प्रेम स्त्री की ताकत का बीज है.

आपके रचना संसार में ऐसी विवाहित या अविवाहित स्त्रियों की भरमार है जो अपने रोजमर्रा के जीवन में पुरुषों की यौन हिंसा झेलने को अभिशप्त है तो दूसरी तरफ नई पीढ़ी की कुछ बहुप्रचारित लेखिकाओं की रचनाओं में स्त्रियां पुरुषों के साथ बराबरी पर सौदेबाजी कर रही हैं. आपमें और इनमें इतना अंतर कैसे है?
मेरे लेखन का क्षेत्र इनके लेखन के क्षेत्र से भिन्न है. गांव की स्त्री का दुख उसकी आवाज और उसकी मुक्ति के रास्ते इनके लेखन से नदारद हैं. जब हम खाप पंचायतों की कहानियां लिखेंगे तो वहां समानता कैसे दिखेगी. हम खाप पंचायतों के फरमानों का क्या करें? गांव की तो छोड़ दीजिए ये लोग अपनी कहानियों में जो स्थितियां दिखा रही हैं क्या वह शहरों की भी वास्तविकता है? क्या शहरों में यौन हिंसा और बलात्कार की घटनाएं नहीं हो रही हैं. आज दिल्ली जो ‘रेप कैपिटल’ बन गई है, वह क्या है? वह जो दिखा रही हैं वह बड़े शहरों के एक छोटे से तबके की सच्चाई हो सकती है जो अपवाद है. शहरों में भी स्त्रियां कम उत्पीड़ित नहीं हैं. यह अपने-अपने सरोकार का सवाल है. मेरा सरोकार स्त्री को लेकर मौज-मस्ती वाला नहीं है.

आपकी रचनाओं में आई ग्रामीण स्त्रियां शहरों की पढ़ी-लिखी स्त्रियों की तुलना में अधिक संघर्षशील और चेतना संपन्न हैं. क्या आप मानती हैं कि आधुनिक शिक्षा और आधुनिकता ने स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में कुछ खास नहीं किया है?
चेतना सिर्फ किताबों से नहीं अनुभव और संघर्ष से पैदा होती है. मैंने शहरों में अनेकों डिग्रीधारी स्त्रियों को देखा है जो स्त्री चेतना से पूरी तरह रहित हैं. दरअसल, शहरी समाज ने इस ‘मिथ’ को गढ़ा कि ग्रामीण स्त्रियां मूर्ख और जाहिल होती हंै. मैंने अपनी रचनाओं के द्वारा इसी मिथ को तोड़ा है. मैं खुद ग्रामीण स्त्री हूं. मेरी चेतना को शहर ने पैदा नहीं किया है. शहरों की पढ़ी-लिखी लेखिकाओं की तुलना में मेरी रचनाएं क्या स्त्री चेतना से कम संपन्न हंै? ग्रामीण स्त्रियां शहरी स्त्रियों की तुलना में अधिक कर्मठ, साहसी और ईमानदार होती हैं.

अापने पितृसत्ता पर निर्मम प्रहार किए हैं. बावजूद इसके हिंदी साहित्य में आपका मुखर विरोध पुरुष रचनाकारों ने नहीं बल्कि स्त्री रचनाकारों ने किया है. यह विरोध आज भी उसी तरह जारी है. लेखिकाओं द्वारा अपने विरोध को कैसे देखती हैं?
स्त्री रचनाकारों का यह विरोध मेरे द्वारा पितृसत्ता को निशाने पर लेने के कारण नहीं है. यह आपसी ईर्ष्या-द्वेष के कारण हो सकता है. इन लेखिकाओं को लगा कि हम लोगों के बीच यह गांव की स्त्री कहां से आ गई. ठीक उसी तरह जैसे आज राजनीतिक दलों को लग रहा है कि यह केजरीवाल कहां से आ गया? मुझे लगता है कि उनका विरोध स्वाभाविक ही था क्योंकि वे बीस-तीस वर्षों से लिख रही थी और साहित्य में बिल्कुल नई होने के बावजूद मेरा ‘इदन्नमम’ उपन्यास आया और तहलका मच गया. यहीं से मैं सबको खटकने लगी. इसके बाद मेरे उपन्यास एक-एक करके जबरदस्त चर्चित होते गए और उसके साथ मेरा विरोध भी बढ़ता गया.

इस विरोध का बड़ा कारण राजेंद्र यादव के साथ आपका घनिष्ठ जुड़ाव तो नहीं था क्योंकि राजेंद्र यादव ने हिंदी में स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श को आगे बढ़ाया और आप उसकी प्रतीक बना दी गईं. उनके साथ जुडऩे से आपको साहित्यिक लाभ हुआ या हानि?
मैं बताना चाहती हूं कि जब ‘इदन्नमम’ आया तो उसमें स्त्री विमर्श जैसा कुछ भी नहीं था, फिर भी उसका विरोध हुआ. राजेंद्र यादव ने जिस तरह से उस पर पांच समीक्षाएं हंस में छापीं, मुझे लगता है इस कारण इस उपन्यास का विरोध शुरू हो गया. वैसे अन्य जगहों पर भी उसकी अच्छी समीक्षाएं आई थीं जहां राजेंद्र यादव का कोई दखल नहीं था. मैं आज तक तय नहीं कर पायी हूं कि राजेंद्र यादव से साहित्यिक संबंध के कारण मुझे लाभ हुआ या हानि. कुछ लोगों का मानना है कि इससे मेरा नुकसान हुआ है. जो पुरस्कार वगैरह मुझे मिल सकते थे, नहीं मिले. उनके सारे विरोधी उनसे कहीं अधिक मेरा विरोध करने लगे. लेकिन मैं इस साहित्यिक संबंध को अपने लिए अच्छा ही मानती हूं.

bookविभूति नारायण राय प्रकरण को लेकर राजेंद्र यादव से आपकी जबरदस्त लड़ाई हुई. लोगों का कहना है कि राजेंद्र यादव से जितने फायदे लेने थे आपने ले लिया. अब आप उनसे अलग दिखना चाहती थीं इसलिए इसे बहाना बनाया.
पता नहीं यह क्यों कहा गया? यह बहाना नहीं था विरोध का कारण था. अगर फायदे की ही बात है तो मुझे तो बहुत पहले अलग हो जाना चाहिए था. मैंने तो यह तथाकथित फायदा तो बहुत पहले ही उठा लिया था. इस बात में कहीं से कोई तथ्य नहीं है. उन्होंने विभूति नारायण राय के पक्ष में तीन-तीन संपादकीय लिखे. जब मैं स्त्रियों के पक्ष में वी एन राय के खिलाफ लड़ रही थी तो राजेंद्र यादव को कैसे माफ कर देती जो वी एन राय के पक्ष में खड़े हो गए थे.

फिर उन्हीं वी एन राय से संवाद के लिए आप कैसे तैयार हो गईं?
तब दो-तीन साल हो चुके थे. पाखी के संपादक ने कहा कि हम उसी विषय पर आप दोनों के बीच संवाद करना चाहते हैं. मैंने कहा कि अगर आप समझते हैं कि मैं डर रही हूं तो ऐसी बात नहीं है, मैं आऊंगी. बल्कि सच तो यह है कि जब वी एन राय ने सुना कि मैं आ रही हूं तो वे कतराने लगे. मैं यह भी देखना चाहती थी कि जिस व्यक्ति ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए माफी मांगी है वह वास्तव में भी कुछ बदला है या सिर्फ पद बचाने के लिए माफी मांगी है. मैंने देखा उनकी सोच में कोई बदलाव नहीं आया है.

आप विवाह संस्था की तमाम सुविधाओं का लाभ उठा रही हैं. सफल वैवाहिक जीवन भी जी रही हैं. ऐसे में आपको विवाह संस्था की मुखालफत करने का नैतिक आधिकार कैसे है? आप खुद उदाहरण प्रस्तुत करतीं.
विवाह संस्था को मैं त्याग भी सकती थी, किंतु दूसरे पक्ष की भी तो भूमिका होती है जो जाने नहीं देती. मैं विरोध के लिए विरोध नहीं करती. विवाह संस्था में अगर पति साथी की तरह चले तो मैं उसके कतई विरोध में नहीं हूं. मेरा विरोध उन जकड़बंदियों से है जो स्त्री का जीवन दूभर कर देते हैं. सबसे कठिन होता है पुरुष को बदलना. छोड़ना तो आसान है. अगर स्त्री एक पुरुष को छोड़कर दूसरे के पास जाती है तो वह भी वैसा ही मिलता है. इसलिए मेरा कहना है कि स्त्रियां पुरुषों को छोड़ें नहीं, उन्हें बदलें. अगर बदलाव की कोई गुंजाइश ही न हो तो बात अलग है. मैंने भी अपने पति को बदला है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here