माफ़ी से कमाया मुनाफ़ा

अगर एक-दूसरे को काटने वाली दो अलहदा बातों पर भरोसा करना अक़्लमंदी की निशानी है, तो ज़ाहिर है कि अजय माकन ने बेहद अक़्लमंद रवायत पर निजी तौर पर ठप्पा लगा दिया। आख़िर क्यों कर एक के बाद एक विधायक माकन पर ग़ैर-भरोसेमंदी का इल्जाम लेकर संसदीय मंत्री शान्ति धारीवाल के पास पहुँचे? अचम्भे और शक-शुबह में मुब्तिला विधायकों की कहानियाँ अविश्वास के बियाबान से धू-धू करती नज़र आ रही थी। अगर ताज़िन्दगी मनमानी में मुब्तिला रहे माकन की जन्म कुंडली को बाँचा जाए, तो विश्वास की बर्फ़ पिघलती चली जाएगी।

सूत्र कैप्टन अमरिंदर सिंह के बयान का हवाला देते हैं कि माकन 1984 के सिख विरोधी दंगों के मुख्य आरोपी ललित माकन के भतीजे हैं, ऐसे में पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों को चुभने वाली स्क्रीनिंग कमेटी में अजय माकन को चेयरमैन बनाया गया। यह तो पंजाबियों के जख़्मों पर नमक छिडक़ने जैसा काम था। $गज़ब तो यह है कि अजय माकन ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में पार्टी की लगातार दो शिकस्तों में अहम भूमिका निभायी। जिस शख़्स ने दिल्ली में कांग्रेस का पूरी तरह सफ़ाया कर दिया, उसे क्यों पंजाब की ज़िम्मेदारी सौंपी? विशेषज्ञ कहते हैं कि कांग्रेस आलाकमान ने आगे चलकर आत्मघात का गड्ढा खोद लिया।

मुख्यमंत्री गहलोत ने 2020 के सियासी संकट का ज़िक्र करके सचिन पायलट गुट की भाजपा के साथ मिलीभगत की नयी थ्योरी भी सामने रखी। पायलट का नाम लिये बिना सन् 2020 के संकट का ज़िक्र किया और कहा कि उस वक़्त कुछ विधायक अमित शाह और धर्मेन्द्र प्रधान के साथ बैठे थे। इसे वीडियो में शाह हँस-हँसकर कह रहे हैं कि पास आओ। मिठाई खिला रहे हैं। बाद में राज्यपाल ने तिथि निश्चित की तो हार्स ट्रेडिंग का खेल शुरू हो गया और सत्ता के इन घोड़ों की क़ीमत 10 से शुरू होकर 50 करोड़ पहुँच गयी। लेकिन गहलोत की लगाम में विश्वास का बल था। नतीजतन भाजपा को मुँह की खानी पड़ी।

प्रश्न है कि जो नेता सन् 2014 से 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव हार गया; यहाँ तक कि अपनी जमानत तक नहीं बचा सका; उसे राजस्थान का विवाद सुलझाने का अहम दायित्व क्यों सौंप दिया गया? विश्लेषकों का कहना है कि माकन तो राजस्थान में गहलोत सरकार की बुलंद इमारत को गिराने आये थे। लेकिन आख़िर उन्हें बेदर्द रुख़सती ही मिली। गहलोत के माफ़ीनामे के मुद्दे को लेकर तर्क-वितर्क का लम्बा सिलसिला भी चला। लेकिन रिसते हुए बाँध को टूटना ही था कि जिन्होंने मेरी सरकार बचायी, उनको मैं कैसे धोखा दे सकता था? इसलिए मैंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से माफ़ी माँगना ही बेहतर समझा। गहलोत ने विधायक दल की बैठक में शिरकत करने आये राजनीतिक समीक्षक मल्लिकार्जुन तक का नसीहत दे दी कि आपको पार्टी अध्यक्ष के सोच और आभामंडल को ध्यान में रखते हुए इस काम को करना था; लेकिन कहाँ कर पाए? उन्होंने वही बेबाक़ी से कहा कि नये मुख्यमंत्री का नाम आने से विधायक भडक़ गये थे।

एक राजनीतिक सूत्र के शब्दों में क़िस्सा-कुर्सी के मुद्दे पर बड़े दावों वाला कहीं बड़ा खेल खेला जा रहा था, जिसमें गहलोत को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाना था और सत्ता के नये नियम तय होने थे। इसकी भीतरी खोह में छिपी यूज एंड थ्रो की दराती छिपी हुई थी। लेकिन करामती रणकौशल में माहिर गहलोत सत्ता हथियाकर उन्हें दरकिनार करने की साज़िश को भाँप गये और बचाव कर लिया। नतीजतन पर्यवेक्षकों की जमकर फ़ज़ीहत हुई पर्यवेक्षकों के लिए अपना दामन बचाना मुश्किल हो गया, उन्हें रिपोर्ट में गहलोत के पक्ष में बाज़ी पलटनी पड़ी। रिपोर्ट में कहा गया कि जो बग़ावत हुई उसके लिए तकनीकी तौर पर गहलोत ज़िम्मेदारी नहीं थे। पूरे घटनाक्रम में गहलोत न तो खुलकर सामने आये और न ही कोई बयान दिया। पूरे घटनाक्रम में माकन की भूमिका सवालों में रही।

मल्लिकार्जुन को भी सोनिया गाँधी को फोन पर बताना पड़ा कि ‘सब कुछ माकन के मिस मैनेजमेंट की वजह से हुआ। आलाकमान को भी विवाद को बढऩे से रोकना पड़ा। आख़िर गहलोत के हक़ में दो बड़े मुद्दे थे। पहला-कांग्रेस के पास अब दो ही राज्य बचे हैं। पहला राजस्थान और दूसरा-छत्तीसगढ़। आलाकमान को पार्टी चलाने और चुनावों क प्रबंधन सँभालने के लिए गहलोत की ज़रूरत थी। गुजरात विधानसभा चुनावों का दारोमदार भी गहलोत पर ही था। अलबत्ता गहलोत के नज़दीकी राजनेताओं को नोटिस भेजना सांकेतिक कार्यवाही थी, ताकि आलाकमान का रुतबा बना रहे। पायलट न घर के रहे, न घाट के। भाजपा के निमंत्रण से उन पर सन्देह के बादल घने हो गये हैं। हालाँकि पायलट भाजपा के महासागर में बूँद बनने नहीं जा सकते; लेकिन आइंदा के लिए ताजपोशी की उम्मीदें भी तो तबाह हो गयीं।

धारीवाल का रणकौशल

गहलोत ख़ेमे के मुख्य रणनीतिकार नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल ने दिल्ली का सियासी मौसम बदलकर गहलोत के ताज को सुरक्षित कर लिया। सूत्र कहते हैं कि पर्यवेक्षकों के दुश्चक्र ने सरकार पलटने की ऐसी कौडिय़ाँ खेलने की तैयारी कर ली थी कि लोहा दाँत के नीचे आ गया था। नतीजतन धारीवाल ने आलाकमान द्वारा भेजे गये प्रभारी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने में एक पल की भी देर नहीं लगायी। उन्होंने जिस तरह पिरामिड पर बैठे गहलोत को सुरक्षित किया, प्रदेश के राजनीतिक हलक़ों में चर्चाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। अटकलों की इस हवाबाज़ी में धारीवाल जिस तरह माकन पर हमलावर रहे। विश्लेषक इसका निहितार्थ तलाशने की माथापच्ची कर रहे हैं। उनका सवाल है कि आख़िर धारीवाल ने कौन-से जुनून की सवारी की और दुश्चक्र को पैरों तले रौंद दिया। उन्होंने अपनी साख को दाँव पर लगाकर भितरघात की बखिया उघेडक़र गहलोत सरकार को सुरक्षित कर दिया। विश्लेषकों कहते हैं कि अगर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और गहलोत सरकार के बीच खाई बढ़ती है, तो गहलोत ख़ेमा फिर आगे आ सकता है। ऐसे में धारीवाल फिर मोर्चाबंदी कर सकते हैं। गहलोत के प्रति भरोसे का एक ख़ामोश अहसास धारीवाल के चेहरे पर हर किसी को दिखायी देता है। इसलिए विधायक और मंत्री उनकी बातों को पूरी निष्ठा से तवज्जो देते हैं। अब उनका सियासी क़द कितना ऊँचा हो गया है, कहने की ज़रूरत नहीं। धारीवाल सरकार के छोटे-मोटे पहलुओं को ही नहीं, कई बार पूरे प्रतिमान को दुरुस्त कराने का काम करते हैं। कई मौक़ों पर धारीवाल ने सरकार का वित्तीय अंकगणित सुलझाने का काम भी किया है, तो लोगों के अहम् पर भी ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों में बतर्ज छींटाकशी के छींटे भी मारे हैं।