ग़ौरतलब है कि कोरोना महामारी के दौर में मानसिक रोग दुनिया के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरकर सामने आया है। मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ी है। वैज्ञानिक साक्ष्य भी इस ओर इशारा कर रहे हैं कि कोरोना महामारी का शिकार हुए कई लोगों में अवसाद, चिन्ता के लक्षण पाये जा रहे हैं। कई लोग कोरोना रिपोर्ट के नकारात्मक आने के बाद भी कोरोना महामारी का शिकार दिखे हैं और अनेक ऐसे भी लोग इस महामारी की चपेट में आये हैं, जिनको एक या दोनों कोरोना टीके लग चुके हैं। यही नहीं, जो लोग पूरी तरह स्वस्थ हैं, उनकी मानसिक सेहत को भी कोरोना महामारी प्रभावित कर रही है। तालाबंदी के कारण बच्चे, बुज़ुर्ग, युवा घरों में क़ैद होकर रह गये थे। घरेलू हिंसा की घटनाएँ भी बढ़ी हैं। यानी कोरोना महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर ही नहीं डाला, बल्कि इसे बढ़ाया भी।
हाल में जारी कुछ अध्ययन बताते हैं कि देश में 14 फ़ीसदी आबादी किसी-न-किसी मानसिक विकार से ग्रस्त हैं। पाँच फ़ीसदी आबादी सिर्फ़ मानसिक अवसाद की शिकार है। कोरोना महामारी से पहले ही देश के क़रीब पाँच करोड़ बच्चे मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धित समस्या से प्रभावित थे। अब तो कोरोना-काल में यह संख्या और भी बढ़ गयी होगी। राष्ट्रीय अपराध शाखा के सन् 2019 के आँकड़े बताते हैं कि देश में हर तीन में से एक आदमी ने अपनी ज़िन्दगी का अन्त ख़ुद किया; उसकी वजह पारिवारिक दिक़्क़तें थीं। जिन लोगों ने ख़ुदकुशी की, उनमें एक-चौथाई लोग दिहाड़ी मज़दूर थे। यूँ तो भारत सरकार ने देश में मानसिक स्वास्थ्य में सुधार करने की मंशा से 10 अक्टूबर, 2014 को राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति लागू की थी। इसका उद्देश्य भारत के लोगों की मानसिक सेहत को ठीक रखना और मानसिक रोगों से ग्रस्त लोगों तक मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धित इलाज की सेवाएँ उन तक सहजता से पहुँचाना है। यही नहीं, इसके प्रति जागरूकता का प्रचार-प्रसार भी करना है। लेकिन अभी तक सरकार अपने उद्देश्य को हासिल करने की दिशा में कुछ ख़ास हासिल नहीं कर सकी। हालात यह हैं कि 135 करोड़ की आबादी में मानसिक रोगों का इलाज करने वाले मानसिक रोग विषेशज्ञों की संख्या सिर्फ़ 8,000 है। उनमें से अधिकांश शहरी इलाक़ों में ही सेवाएँ देते हैं; जबकि देश की क़रीब 60 फ़ीसदी आबादी गाँवों में बसती है। दूर-दराज़ के इलाक़ों में मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाएँ पहुँचाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस ज़मीनी सच्चाई को भाँपते हुए सरकार ने इस बजट में राष्ट्रीय टेली मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू करने का ऐलान किया।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश करते हुए कहा कि राष्ट्रीय टेली मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत लोगों को गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य परामर्श और देखभाल की सुविधा मुहैया करायी जाएगी। इसके लिए देश भर में 23 उत्कृष्ट टेली-मेंटल स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना होगी। बेंगलूरु स्थित राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और स्नायु विज्ञान संस्थान (निम्हांस) इन सभी 23 केंद्रों का नोडल सेंटर होगा।
इस कार्यक्रम के ज़रिये दूरसंचार या आभासी बैठक (वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग) के ज़रिये इलाज किया जाएगा। देश को इसकी ज़रूरत है। लेकिन सवाल यह भी है कि सरकार ने वित्त वर्ष 2022-2023 के स्वास्थ्य बजट के तहत मानसिक स्वास्थ्य बजट में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं की है। चालू वित वर्ष 2021-22 में मानसिक स्वास्थ्य के लिए 597 करोड़ रुपये रखे गये, जबकि 2022-2023 के स्वास्थ्य बजट के लिए 610 करोड़ रुपये का प्रावधान है। मानसिक रोगियों के इलाज के लिए इस्तेमाल में आने वाली दवाइयाँ महँगी हैं। दवाओं की कमी भी है। एक लाख की आबादी पर मानसिक स्वास्थ्य नर्स की उपलब्धता महज़ 0.8 फ़ीसदी है। सामाजिक कार्यकर्ता की उपलब्धता महज़ 0.06 फ़ीसदी है। मनोचिकित्सक महज़ 0.29 फ़ीसदी और वाक् चिकित्सक (स्पीच थेरेपिस्ट) 0.17 फ़ीसदी हैं। मनोविज्ञानी महज़ 0.07 फ़ीसदी हैं। आँकड़े बोलते हैं कि देश को इस क्षेत्र में बड़ी रक़म ख़र्च करनी चाहिए, न कि सांकेतिक बढ़ोतरी वाली राह अपनानी चाहिए। इस बजट में नेशनल डिजिटल हेल्थ ईको सिस्टम भी शुरू करने का ऐलान किया है। इसमें व्यापक रूप से स्वास्थ्य प्रदाताओं और स्वास्थ्य सुविधाओं के डिजिटल पंजीयन, विशिष्ट स्वास्थ्य पहचान, संयुक्त ढाँचा शामिल होगा। यह स्वास्थ्य सुविधाओं तक सार्वभौमिक पहुँच प्रदान करेगा। स्वास्थ्य बजट में ऐलान तो बहुत किये गये हैं, मगर देश की आम जनता कितनी लाभान्वित होती है? यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।