भारतीय कारीगरों के हाथों से छिन रहा हस्तशिल्प का काम

प्रधानमंत्री मोदी के हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के बावजूद इस क्षेत्र छायी मंदी, बेरोज़गारी की मार झेल रहे हज़ारों लोग

इन दिनों पूरी दुनिया कोरोना महामारी की तीसरी लहर के ख़ौफ़ में आगे बढऩे की कोशिश में है। भारत में कोरोना महामारी की दो लहरों से मची त्रासदी और तालाबन्दी के बुरे दौर के बाद लोगों ने एक नयी हिम्मत और ऊर्जा के साथ दोबारा काम शुरू कर दिया है।

इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारें हर तरह से कोशिश में हैं कि सभी छोटे-बड़े उद्योग-धन्धे दोबारा से सुचारू रूप से चल सकें। इसी के चलते प्रधानमंत्री मोदी ने हस्तशिल्प कारीगरों को कई बार प्रोत्साहित किया है और इन दिनों भी उनका एक पोस्टर व्यापार मेले में हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के लिए जगह-जगह देखने को मिल रहा है। पिछले दो साल में इस बार दिल्ली में ठीक से विश्व व्यापार मेला भी लगा है। लेकिन इस मेले में भी न तो विदेशी लोग पहले की तरह आये हैं और न ही मेले में पहले जैसी रौनक़ ही है। इसकी वजह यह भी है कि क़रीब दो साल में देश के अधिकतर छोटे-बड़े उद्योगों को ख़ासा नुक़सान पहुँचा है, जिसमें सबसे ज़्यादा प्रभावित लघु उद्योग हुए हैं। ऐसे में इनमें काम करने वाले कामगारों, कारीगरों और दिहाड़ी मज़दूरों की स्थिति काफ़ी दयनीय बनी हुई है। पिछले डेढ़-दो साल में हस्तशिल्प के कारीगरों पर जिस तरह से मार पड़ी है, उससे देश भर के हस्तशिल्प के लाखों कारीगर अभी भी बेरोज़गारी की दशा में हैं। अगर कुछ हद तक हस्त शिल्प का काम शुरू भी हो गया है, तो उसने उतनी गति नहीं पकड़ी है, जितनी कि पहले थी। चाहे वह लखनऊ, बरेली की विश्व विख्यात चिकनकारी और ज़री-ज़रदोज़ी का काम हो या फिर चाहे बनारस की बनारसी साड़ी और खिलौनों का धन्धा हो।

सन् 2018 से ही बनारस के साड़ी कारीगर प्रदेश में महँगी बिजली, कच्चे माल पर बढ़ी महँगाई और प्रदेश सरकार के तरह-तरह की कर व्यवस्था से परेशान आज भी परेशान हैं और सरकार से राहत देने की कई बार माँग कर चुके हैं। कई बार काम बन्द कर चुके हैं और कई बार आन्दोलन भी कर चुके हैं। प्रदेश सरकार उन्हें हर बार आश्वासन देकर किनारा कर लेती है। इसी तरह लखनऊ में ज़री-ज़रदोज़ी और चिकनकारी का काम कराने वाले संगठनों ने सरकार से कोरोना-काल में लगे दूसरे लॉकडाउन के समय ही राहत पैकेज की माँग की थी, जिस पर कोई सुनवाई नहीं हुई। हाल यह है कि पूरे प्रदेश में हर बनारस, लखनऊ और बरेली जैसे बड़े शहरों से लाखों कारीगरों, कामगारों के हाथ आज भी ख़ाली हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, बनारस में केवल बनारसी साडिय़ों का सालाना कारोबार तकरीबन 15,000 करोड़ रुपये का, जबकि लकड़ी के खिलौनों का सालाना कारोबार 15 से 20 करोड़ रुपये का था, जो कि घटकर बहुत कम रह गया है। अकेले बनारस में साड़ी के कारोबार के लिए 2014-15 में क़रीब 30,000 हथकरघा और क़रीब 90,000 पॉवरलूम चलते थे, जो अब तक़रीबन 70 फ़ीसदी रह गये हैं। इस कारोबार से लाखों लोग जुड़े थे, जबकि इसके क़रीब एक-चौथाई लोग लकड़ी के खिलौने से जुड़े थे। इन दोनों ही प्रकार के हस्तशिल्प से अब बहुत-से लोग दूर हो चुके हैं।

मोदी सुनें जन के मन की बात

पिछले साल 30 अगस्त 2020 को ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कार्यक्रम मन की बात में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में देशी खिलौने बनाने को बढ़ावा देने और लोगों को लकड़ी के खिलौनों के धन्धे से जुडऩे की सलाह दी थी। भारतीय खिलौना मेला-2021 के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी ने लकड़ी के खिलौने बनाने की अपील भारतीय कारीगरों से की थी और कहा था कि लकड़ी के खिलौने पर्यावरण के अनुकूल होते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने कभी अपने ही लोकसभा क्षेत्र बनारस के लकड़ी के खिलौने और साड़ी बनाने वाले कारीगरों और इन उद्योगों से जुड़े लोगों के दर्द को नहीं समझा। उन्हें जनता के मन की बात सुननी भी चाहिए और समझनी भी चाहिए। उन्हें समझना होगा कि कोरोना महामारी और चीन के कपड़े, खिलौनों और अन्य सामान की भरमार से भारतीय कारीगरों, कामगारों पर क्या बीत रही है?

सीधी सी बात है कि इस उद्योग को अगर वास्तव में वह बढ़ाना चाहते हैं, तो केंद्र सरकार इसके लिए एक राहत पैकेज और इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए इस हस्तशिल्प के उद्योग से जुड़े लोगों को सुविधाएँ मुहैया कराये, ताकि भारत के इस परम्परागत कुटीर उद्योग की कमर टूटने से बचायी जा सके। इसके लिए चीन के हानिकारक खिलौनों पर भी रोक लगानी होगी। सन् 2019 में भारतीय गुणवत्ता परिषद् (क्यूसीआई) ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि रसायन (केमिकल) युक्त क़रीब 67 फ़ीसदी विदेशी खिलौने भारत के बच्चों के लिए घातक साबित हो रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक, चीन हर साल भारत को क़रीब 1500 अरब के खिलौने निर्यात करता है, जबकि भारत पूरे विश्व को 20 अरब से कम के खिलौने ही निर्यात कर पाता है, जो कि पूरे विश्व में खिलौने के निर्यात की केवल पाँच फ़ीसदी हिस्सेदारी है। यह तब है, जब पूरी दुनिया में भारत के खिलौनों की माँग बहुत ज़्यादा है। यानी अगर केंद्र सरकार देश के खिलौना उद्योग को बढ़ावा दे, तो न केवल लाखों लोगों को इस उद्योग से काम मिलेगा, बल्कि केवल इसी उद्योग से भारत को एक बड़ी विदेशी रक़म प्राप्त होगी, जिससे देश मज़बूत होगा।

क्या कहते हैं लोग?

बनारसी साड़ी बनाने वाले कारीगर शफी अहमद अंसारी कहते हैं कि कोरोना के आने के बाद काम तो बन्द हो गया था। अभी चार-पाँच महीने से काम शुरू हुआ है। कोरोना-काल में हमे साड़ी की बुनाई भी कम मिलने लगी है। काम भी बहुत कम है। हमें एक साड़ी बुनने के 200 रुपये ही मिलते हैं। दिन भर में अगर काम ठीक हो, तो दो साडिय़ाँ हम बुन पाते हैं। इसी में परिवार चलाना है। बनारस में 90 फ़ीसदी कारीगर हैं और 10 फ़ीसदी मालिक हैं। कोरोना की मार मालिकों पर भी पड़ी है, मगर मज़दूरों पर इसकी मार ज़्यादा पड़ी है। पहले हमें काम भी भरपूर मिलता था और पाँच साल पहले एक साड़ी की बुनाई की मज़दूरी 225 से 230 रुपये मिलते थे। कोरोना आने के बाद मज़दूरी कम हो गयी; चाहे साड़ी 1,000 रुपये की बुनें या 10,000 की। गैस से लेकर तेल, सब्ज़ी सब कुछ महँगा हुआ है; लेकिन हमारी आमदनी भी कम हुई है। हमारे साथ ज़्यादती बीच के लोग करते हैं। उनकी समस्या है कि बिजली महँगी हुई है, हाउस टैक्स बढ़ा है। रेशम के भाव भी बढ़े हैं। जो रेशम आज से सात-आठ साल पहले 2,000 रुपये किलो मिलती थी, वही रेशम आज 7,000 रुपये किलो मिलती है। साडिय़ों के दाम भी बढ़े हैं। मगर हमारी मज़दूरी घटी है। कभी हम लोग परम्परागत और हुनर का काम होने की वजह से इस काम को सीखकर इसी से जीवन का गुज़ारा करने की सोच से इस काम में आये थे, मगर आज बहुत परेशानी में हैं और हम कारीगरों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है।

बनारस में ही साडिय़ों के काम से जुड़े संगठन बुनकर साझा मंच एवं कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक मनीष शर्मा ने बताया कि पिछले कई सरकारों ने बुनकरी को लेकर कोशिश की है कि कैसे इस कारोबार में बड़ी पूँजी आये यानी इस धन्धे को कॉर्पोरेट घराने चलाएँ और इस काम में जो अभी तक काम कर रहे हैं, वो मज़दूर बनकर रह जाएँ। मोदी सरकार जबसे आयी और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद इस काम को कॉर्पोरेट हाथों में सौंपने की कोशिशें तेज़ हुई हैं। बिजली बिल पहले मशीनों के हिसाब से था, जिसे फ्लैट रेट यानी फिक्स रेट कहते हैं। यह बिजली बिल ज़्यादा से ज़्यादा 75 रुपये से लेकर 150 रुपये महीने का आता था। उसमें कितनी बिजली इस्तेमाल होगी, इसे नहीं देखा जाता था। क्योंकि यह लघु उद्योग है और इनकी स्थापना छोटी पूँजी वाले लोगों को बढ़ावा देने के लिए की गयी थी। इसीलिए इसमें बहुत पूँजी वाले लोग इसमें नहीं हैं। अब बिजली बिल प्रति यूनिट के हिसाब से  2,500 से 3,500 रुपये तक बिजली बिल आ जाता है। इसे लेकर एक साल से ज़्यादा समय से हम लोग आन्दोलन कर रहे हैं। इससे सरकार पर दबाव बना और वापस फ्लैट रेट पर सरकार मान गयी, और यह तय हुआ कि जब तक नया सर्कुलर जारी नहीं होता, तब तक पुराने पुराने तरीक़े से ही फ्लैट रेट पर ही बिजली बिल लिया जाए। लेकिन सरकार ने लिखित में यह आदेश नहीं दिया है। इसके चलते बिजली विभाग किताब पर जमा बिल नहीं चढ़ा रही है। मतलब बिल काटकर नहीं दे रहा है। इससे यह होगा कि अगर सरकार अपनी बात से मुकरती है, तो बुनकर लाखों के बिजली बिल क़र्ज़ में आ जाएँगे। पहले बुनकरों के लिए अलग से मंत्रालय था, जो कि सब्सिडी के रूप में बिजली विभाग को पैसा देता था, जिससे बुनकरों पर कम भार पड़ता था। लेकिन 2015 में केंद्र सरकार ने बिजली की सब्सिडी देने का ज़िम्मा केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय को दे दिया, तब से बुनकरों को परेशानी हो रही है। मुझे लगता है कि अब इस सरकार के इस कार्यकाल में बुनकरों की इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। यह सरकार आगामी सरकार पर यह सब डालना चाहती है। अब जो भी नयी सरकार बनेगी, देखते हैं कि वह बुनकरों के लिए क्या करती है। लेकिन हम लोग विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा उठाएँगे और सरकार की बुनकर विरोधी नीतियों का विरोध करेंगे। योगी सरकार पर बुनकर किसानों की तरह ही भरोसा नहीं कर सकते। जैसे किसान कृषि क़ानूनों को लेकर विरोध कर रहे हैं, वैसे ही बुनकर भी अपने काम में आ रही परेशानियों और सरकार की नीतियों को लेकर विरोध करेंगे। दूसरा कच्चे माल की सही दाम पर उपलब्धता और तैयार माल को सही भाव मिलने को लेकर भी आवाज़ उठायी जाएगी। इसी तरह कई और भी बड़े सवाल हैं, जिनका जवाब सरकार से माँगा जाएगा।

खिलौना उद्योग की दशा के बारे में मनीष शर्मा कहते हैं कि बनारस का लकड़ी खिलौना उद्योग भी बिल्कुल चौपट पड़ा है। लोग डरकर चाहे जो कहें; लेकिन सच्चाई यह है कि तालाबन्दी के समय से धन्धा बिल्कुल चौपट हुआ है। बुनकरों और खिलौना कारीगरों का पलायन बहुत तेज़ी से हुआ है। खिलौना उद्योग बर्बाद हो गया है। खिलौना उद्योग तो ख़त्म होने के कगार पर है, कारीगरों की बुरी दशा है।

वहीं बनारस में ही लकड़ी के खिलौने बनाकर उनका व्यापार करने वाली कम्पनी अग्रवाल टॉय इम्पोरियम के मालिक बिहारी लाल अग्रवाल ने बताया कि बनारस में लकड़ी के काम की शुरुआत हमारे ही परिवार से हुई थी। इस काम की शुरुआत मेरे दादा नरसिंह दास अग्रवाल ने की थी और मैंने इस काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने का काम किया है। आज हमारे खिलौनों का इंटरनेशनल स्तर पर भी निर्यात होता है। अभी हमारी कम्पनी में 110 कारीगर लोगों का परिवार है, जिनके साथ हम अपना काम करते हैं। इसके अलावा हमारी फैक्ट्री भी है, जहाँ हम लोग प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाते हैं।

अग्रवाल कहते हैं कि हमारे काम पर न तो भाजपा के आने से कोई प्रभाव पड़ है और न ही कोरोना से कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ा है। बल्कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के आने से हमारे लकड़ी के इस काम को बढ़ावा मिला है, क्योंकि योगी सरकार ने लकड़ी के इस काम को जीआई का टैग मिल गया। जो लोग आश्वस्त नहीं थे कि लकड़ी के काम को भी इस तरह वरीयता मिल सकती है, वो जीआई का टैग मिलने से आश्वस्त हो गये। फिर कोरोना-काल में भी हमारा काम उतना प्रभावित नहीं हुआ, जितना दूसरे काम प्रभावित हुआ, सिर्फ़ शुरू के 20-25 दिन तो परेशानी हुई; लेकिन बाद में सब ठीक हो गया। न हमारे काम पर चाइनीज खिलौनों के आने से बहुत फ़र्क़ पड़ा है। हमारे खिलौनों का निर्यात बड़े स्तर पर विदेशों में होता है। इस समय 150 से 200 करोड़ का सालाना टर्नओवर लकड़ी के खिलौनों का है। हमने इको फ्रेंडली और बेहतर खिलौने बनाने शुरू कर दिये, जिनकी माँग विदेशों में बहुत है। इस समय हमारी चौथी पीढ़ी इस काम को सँभाल रही है, जिसमें मेरी बेटी आती है।

कुल मिलाकर बनारस बनारसी साड़ी और लकड़ी के खिलौनों में दुनिया भर में जाना जाता है; लेकिन आज दोनों ही उद्योग चौपट होते जा रहे हैं, जिससे लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी पर संकट के बादल छाये हुए हैं। इन दोनों उद्योगों से जुड़े अनेक लोगों से बात करने पर यही परिणाम निकलकर सामने आया कि अगर केंद्र और राज्य सरकार चाहें, तो बनारस के सदियों पुराने इन दोनों उद्योगों को बचाया जा सकता है, अन्यथा इन उद्योगों पर भी उद्योगपतियों की गिद्ध दृष्टि टिक चुकी है और वे मोटी कमायी वाले इन दोनों उद्योंगों को कृषि क्षेत्र की तरह ही अपने अधीन करके मोटी कमायी करना चाहते हैं।

बनारस के रहने वाले अवधेश सिंह कहते हैं कि अगर बनारस की पहचान वाले इन दोनों उद्योगों को बचाना है, तो इन उद्योगों से जुड़े सभी लोगों को एक साथ आना होगा। इस समय समस्या यह है कि इन दोनों उद्योगों से जुड़े लोगों की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं और दोनों ही उद्योगों के लोग अपनी-अपनी लड़ाई अलग-अलग होकर लड़ रहे हैं। इसमें भी एक समस्या यह है कि बुनकर उद्योग से जुड़े लोगों में भी अलग-अलग लड़ाइयाँ हैं। इस उद्योग के कारीगरों की लड़ाई अलग है। कामगारों की लड़ाई अलग है; तो पॉवरलूम और हथकरघा मालिकों की लड़ाई अलग है। इसी तरह खिलौना उद्योग में भी मालिकों की लड़ाई अलग तरह की है और कारीगरों की लड़ाई अलग तरह की है। जबकि सबकी समस्या एक जैसी ही है। पहली इन उद्योगों के अस्तित्व को बचाना और दूसरी सरकार की उद्योग विरोधी नीतियों को ख़त्म कराना। तो पहले इस सबको मिलकर इन दोनों मुद्दों पर एकजुट होकर सरकार से लडऩा चाहिए। अगर सरकार से वे लड़ाई जीत जाते हैं, तो मालिक-नौकर की लड़ाई का निपटारा भी आसानी से हो जाएगा। मालिक और नौकरों की लड़ाई तो वैसे भी मुद्दतों पुरानी है और दोनों ही में वेतन और काम को लेकर लड़ाई चलती रहती है। लेकिन इस काम में सरकार कोई मदद नहीं करती, अन्यथा यह समस्या भी कब की ख़त्म हो गयी होती। लेकिन ज़रूरी यह है कि पहले देश के उद्योग बचे। उद्योग बचेंगे, तो लोगों को काम भी भरपूर रहेगा और कामगारों को मज़दूरी भी उचित मिलेगी।