बस्तर: मुश्किल चुनावी डगर

बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए चुनावकर्मियों को दो से तीन दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. फोटो-ईशान तन्खा
बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए चुनावकर्मियों को दो से तीन दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. फोटो-ईशान तन्खा
बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए चुनावकर्मियों को दो से तीन दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. फोटो-ईशान तन्खा
बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए चुनावकर्मियों को दो से तीन दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. फोटो-ईशान तन्खा

दक्षिण छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल अंदरूनी क्षेत्रों में चुनाव करवाना सुरक्षा और यहां तक कि चुनाव सामग्री पहुंचाने के लिहाज से हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है. हर बार माओवादियों का चुनाव विरोधी आक्रामक प्रचार मतदाताओं व चुनाव अधिकारियों के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उपस्थित होता है. बीते सालों में यहां हजारों मतदान केंद्र पुलिस स्टेशनों के नजदीक तथाकथित सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित किए गए हैं. 2008 के विधानसभा चुनाव में राज्य के ऐसे कई केंद्रों पर 90 फीसदी मतदान की खबरें आई थीं और इस आंकड़े की वजह से बड़े पैमाने पर फर्जी मतदान की आशंका जताई गई. हाल ही में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष चरणदास महंत ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर मांग की है कि आगामी नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान सभी मतदान केंद्रों पर छिपे हुए कैमरे से वीडियो रिकॉर्डिंग की जाए. कांग्रेस की मांग यह भी है कि चुनावकर्मियों को जीपीएस डिवाइसें दी जाएं जिससे उनकी लोकेशन का पता चलता रहे.

यहां जंगल के बीच ऐसे सुदूर क्षेत्रों में आबादी बसी हैं जहां पहुंचने के लिए लिए चुनावकर्मियों को चुनाव के कई दिन पहले निकलना पड़ता है. उनकी जिम्मेदारी सिर्फ वहां पहुंचने की नहीं होती बल्कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) और अन्य सामग्री को सुरक्षित उस जगह ले जाने की भी होती है. कई बार ऐसा हुआ है कि माओवादियों के कैडर ने इनसे ईवीएम और चुनाव सामग्री छीन ली और धमकी देकर उन्हें वापस लौटा दिया. कुछ क्षेत्रों में तो माओवादियों का प्रभाव इतना ज्यादा है कि उनसे होकर मतदान केंद्रों पर पहुंचना लगभग नामुमकिन होता है. ऐसे में हेलिकॉप्टर के जरिए चुनावकर्मियों को वहां पहुंचाया जाता है. खतरा यहां भी कम नहीं होता. नवंबर, 2008 में जब बीजापुर जिले के पेडिया गांव से चुनावकर्मियों को लेकर एक हेलिकॉप्टर वापस लौट रहा था तब माओवादियों ने उस पर फायरिंग की थी. इसमें एक फ्लाइट इंजीनियर की मौत हो गई थी.

इसी चुनाव की एक और घटना है. माओवादियों ने दंतेवाड़ा विधानसभा सीट के हांदावाड़ा मतदान केंद्र से ईवीएम मशीनें लूट ली थीं. इस केंद्र पर दोबारा मतदान की तारीख तय हुई. चुनावकर्मी 25 किमी का सफर तय करके यहां तक पहुंच गए. रातभर इन लोगों काे आसपास से माओवादियों की आवाजें और चुनाव बहिष्कार के गीत सुनने को मिले और वे डरते रहे. अगले दिन यहां बमुश्किल 19 फीसदी मतदान हो पाया. हालांकि कोंटा विधानसभा क्षेत्र के गौगुंडा बूथ पर पुनर्मतदान की कहानी बहुत अलग है. माओवादियों से डरे हुए चुनावकर्मी यहां पहुंचे ही नहीं और खुद ही तमाम पार्टियों की तरफ से एक निश्चित अनुपात में ईवीएम मशीनों में मत डालकर बीच रास्ते से वापस आ गए. बाद में यह बात उजागर हो गई और इन चुनावकर्मियों को जेल जाना पड़ा. एक राजनीतिक पार्टी का एजेंट जो इस टीम के साथ था, हमें बताता है, ‘माओवादी हमारे रास्ते के आस-पास ही थे. हम आगे बढ़ते तो हमारी हत्या कर दी जाती. हमारे साथ जो पुलिसवाला था वो खुद डरा हुआ था.

आखिर में हमने तय किया कि सभी पार्टियों के लिए हम खुद ही वोट डालेंगे. ‘बाद में यहां चुनाव के लिए एक और टीम भेजी गई और मतदान केंद्र एक गांव के नजदीक अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित कर दिया गया. इसके बावजूद यहां सिर्फ 10 लोगों ने मत डाले जबकि 700 मतदाता यहां पंजीकृत हैं. बस्तर में अपेक्षाकृत सुरक्षित समझे जाने वाले ऐसे कई मतदान केंद्र बनाए जाते हैं लेकिन इसके बाद भी यहां पर्याप्त मतदान सुनिश्चित नहीं हो पाता. इसी चुनाव में राष्ट्रीय राजमार्ग (क्रमांक 30) के नजदीक बनाए गए गोरखा मतदान केंद्र से माओवादियों ने ईवीएम मशीनें लूट ली थीं, जबकि इससे 10 किमी दूर ही इंजारम में सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं का शिविर था. इस मतदान केंद्र पर जब पुनर्मतदान हुआ तो कहा जाता है कि चुनावकर्मी मतदान करवाने के लिए अपने साथ सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं को ले गए. इनमें से सिर्फ एक व्यक्ति का नाम उनकी मतदाता सूची में था. नतीजतन 938 मतदाता वाले केंद्र पर सिर्फ एक मत डाला गया.

माओवाद प्रभावित सुकमा जिले के एक पत्रकार लीलाधर राठी कहते हैं, ‘बस्तर में ठीक-ठाक चुनाव करवाना युद्ध लड़ने से कम नहीं है. इन इलाकों में आए चुनावकर्मियों के परिवारों के लिए ये दिन सबसे भारी चिंता वाले होते हैं.’ बीजापुर शहर के एक शिक्षक मोहम्मद जाकिर खान इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘ जंगल जाने वाले चुनावकर्मियों का जाना ऐसा होता है जैसे वे परिवार से अंतिम विदा ले रहे हों और उन्होंने अपनी वसीयत तैयार कर दी हो. ‘ दंतेवाड़ा में तो यह परंपरा ही बन गई है कि कई चुनावकर्मी जंगल में जाने से पहले दंतेश्वरी मंदिर में जाकर पूजा करते हैं.

[box]‘चुनावकर्मियों की जो टोलियां जंगल में रास्ता भटक जाती हैं वे अक्सर खुद ही ईवीएम में फर्जी मत डालकर लौट आती हैं’[/box]

बस्तर में सैकड़ों ऐसे मतदान केंद्र हैं जहां पहुंचने के लिए कई स्तर पर समन्वय की जरूरत पड़ती है. चुनाव के सिलसिले में माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में तीन बार जा चुके एक चुनावकर्मी हमें बताते हैं, ‘ कहीं-कहीं पहुंचने के लिए तो आपको दो दिन तक लगातार चलना पड़ता है. बहुत बार ऐसा होता है कि चुनावकर्मियों के दल जंगल में खो जाते हैं. ऐसे में अक्सर यह होता है कि वे सुरक्षित जगह की तलाश करते हैं और नजदीकी गांव के लोगों को बुलाकर मतदान करवा लेते हैं या फिर खुद ही मतदान करके औपचारिकता पूरी कर देते हैं. ये वोट किसी एक पार्टी को नहीं जाते फिर भी कुछ हद तक सत्ताधारी पार्टी को इसका फायदा मिलता है.’

2009 के लोकसभा चुनावों में माओवाद प्रभावित इलाके के तकरीबन 50 मतदान केंद्र तथाकथित ‘सुरक्षित’ जगहों पर स्थानांतरित किए गए थे. दिलचस्प बात है कि इन चुनावों के ठीक छह महीने पहले विधानसभा चुनावों में इन्हीं केंद्रों पर मतदान हुआ था. उन केंद्रों पर भी मतदान दर्ज किया गया था जहां पहुंचना एक चुनाव अधिकारी के मुताबिक लगभग नामुमकिन है. आंकडों के मुताबिक इनमें से ज्यादातर मत भाजपा के पक्ष में पड़े थे. 2008 के चुनावों में भाजपा ने बस्तर क्षेत्र की 12 में से 11 सीटों पर जीत हासिल की थी. कांग्रेस को यहां महज एक सीट मिल पाई थी. जबकि 2003 के चुनावों में कांग्रेस के पास यहां की तीन सीटें थीं.

माओवाद प्रभावित इलाकों में चुनाव कराने की मुश्किल और खतरों की वजह से फर्जी मतदान के आरोपों को बल मिलता है. पिछले विधानसभा चुनाव में कुछ मतदान केंद्रों पर जहां शून्य मतदान हुआ था वहीं उसके नजदीकी केंद्रों पर भारी मतदान हुआ. भाजपा का दावा है कि कांग्रेस के फर्जी मतदान के आरोप झूठे हैं. नारायणपुर से विधायक और अनुसूचित जाति-जनजाति विकास मंत्री केदार कश्यप कहते हैं, ‘हमारी पार्टी ने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए बहुत काम किया है. ऐसे में हम वहां क्यों नहीं जीतेंगे? ‘ हालांकि सीपीआई के नेता मनीष कुंजाम बस्तर में फर्जी मतदान के आरोपों को सही मानते हैं. उनके मुताबिक, ‘ कांग्रेस के पास जब मौका था तब उसने भी यही किया. ‘

दरअसल 90 सीटों वाली छत्तीसगढ़ विधानसभा में इस समय भाजपा के पास 49 सीटें हैं और 37 सीटें कांग्रेस के पास हैं. दो विधायक बसपा के हैं. इस लिहाज से बस्तर क्षेत्र की 12 सीटें राज्य में सरकार बनाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. इस समय इनमें से 11 सीटों पर भाजपा के विधायक काबिज हैं. कांग्रेस के पास सिर्फ एक सीट है. ऐसे में यदि चुनाव आयोग कांग्रेस की मांग मानते हुए मतदान की निगरानी के लिए छिपे हुए कैमरे और जीपीएस डिवाइसों की मांग मान लेता है तो अगले विधानसभा चुनाव में यह क्षेत्र ऐसे नतीजे दे सकता है जिनमें आदिवासियों की पसंदगी ईमानदारी से जाहिर हो.