फतवा है, फरमान नहीं

अकसर फतवे को संस्थागत करने की बात भी चलती है. लेकिन इसकी कोई जरूरत नहीं है. ऐसा करने से देश की न्यायपालिका के समक्ष एक समानांतर न्यायिक तंत्र खड़ा हो जाएगा. यह हमारे संविधान के मूल धर्म निरपेक्ष स्वरूप के खिलाफ है और साथ ही किस हद तक इसका दुरुपयोग हो सकता है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती. फतवे को किसी तरह की वैधता प्रदान करने की कोशिश से संविधान द्वारा स्थापित न्यायपालिका के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जिसकी इजाजत कभी नहीं दी जा सकती. 1864 में देश भर  से काजी दफ्तर की व्यवस्था खत्म करने के बाद से ही उलेमा और मौलाना देश के कानूनों से नाराजगी और विरोध जताते आ रहे हैं. लिहाजा इस तरह का कोई संस्थान खड़ा करना उन्हें दोबारा से न्यायिक ताकत देने जैसा होगा.

यह जरूरी है कि फतवे सभी पक्षों की बात सुनकर, परिस्थितियों और सबूतों का सम्यक मूल्यांकन करने के बाद ही दिए जाएं. पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा. फतवा एक पक्ष के सवालों के जवाब के रूप में होता है और इसे सुझाव की बजाय बाध्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है. अगर यह सिलसिला जारी रहा तो इसके नतीजे बेहद विनाशकारी होंगे. सीधे शब्दों में कहें तो मौजूदा दौर में फतवा व्यक्ति की आजादी और निजता में ही दखल नहीं है बल्कि नृशंस है और आम आदमी को इस नृशंसता से बचाना समय की जरूरत है.

(अतुल चौरसिया से बातचीत पर आधारित)

नजरिया
15 दिसंबर 2010

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