पंजाब विधानसभा चुनाव 2022 चुनावी बिसात और मोहरे

पंजाब में क़रीब छ: माह होने वाले विधानसभा चुनाव में सम्भवत: मुफ़्त सबसे बड़ा मुद्दा हो सकता है। आम आदमी पार्टी (आप) ने शुरुआती 300 यूनिट बिजली और शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने 400 यूनिट बिजली मुफ़्त देने का शिगूफा छोड़ा है। कांग्रेस मुफ़्त तो नहीं, लेकिन बिजली की दरें तीन रुपये यूनिट तक करने का झाँसा दे रही है। बता दें कि पंजाब बिजली के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। उसे महँगी बिजली ख़रीदनी पड़ रही है। क्योंकि शिअद सरकार ने बिजली कम्पनियों से समझौते ही ऐसे किये थे। अब नतीजा लोग महँगी बिजली के तौर पर भुगत रहे हैं।

दिल्ली की तर्ज पर राज्य में चुनाव से पहले मुफ़्त के कई ऐलान होंगे और पार्टियाँ इसे घोषणा-पत्र में भी जोड़ेंगी। यह फार्मूला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में रास आया। वह वहाँ के 200 यूनिट मुफ़्त बिजली, 2000 लीटर मुफ़्त पानी, मुफ़्त वाई-फाई, डीटीसी की बसों में महिलाओं को मुफ़्त यात्रा सुविधा को यहाँ के चुनावी एजेंडे में रखकर चल रहे हैं। पंजाब में आकर केजरीवाल ने बिजली के संदर्भ में तो घोषणा कर की, तो बाज़ी हाथ से निकलने के डर से लगे हाथों शिअद ने इससे बढक़र घोषणा कर दी।

तीनों ही पार्टियाँ किसान आन्दोलन का समर्थन कर रही हैं। लेकिन चुनाव में आशीर्वाद किसे मिलेगा? या उनकी ही कोई पार्टी मैदान में आये? कहना मुश्किल है। पर इसकी सम्भावना से इन्कार नहीं कर सकते। हाल ही में लुधियाना के कारोबारी लोगों ने भारतीय आर्थिक पार्टी (बाप) का गठन किया है। पार्टी ने सभी 117 सीटों पर चुनाव लडऩे और मुख्यमंत्री के तौर पर भारतीय किसान यूनियन (हरियाणा) के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी का नाम घोषित किया है। यह नाम वैसे ही नहीं; क्योंकि चढ़ूनी गठन कार्यक्रम के दौरान मुख्य अतिथि के तौर पर मौज़ूद थे। ऐसे में चुनाव से पहले कोई किसान-मज़दूर पार्टी भी बन सकती है। क्योंकि संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े कई नेता राजनीति के मैदान में आने के इच्छुक हैं; पर अभी खुलकर सामने नहीं आना चाहते। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में 117 में 77 सीटें जीतने वाली कांग्रेस में कुछ भी ठीक नहीं है। केंद्रीय आलाकमान चुनाव से पहले सब कुछ ठीक होने की कल्पना कर रहा है; लेकिन स्थिति इसके विपरीत होने वाली है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू में अभी तलवारें खिंची हुई हैं। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद सिद्धू संगठन की मज़बूती में लगे हैं; लेकिन मौक़े-ब-मौक़े सरकार की खिंचाई भी कर देते हैं; जो कैप्टन को बिल्कुल गवारा नहीं। पर मजबूरी में सब देखने और सुनने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

सिद्धू के पहले कैप्टन की पसन्द का ही अध्यक्ष रहा है। जो उन्होंने चाहा किया। संगठन में बदलाव और टिकट वितरण में उनकी ही चली। क्योंकि पार्टी ने उन्हें प्रमुख चेहरे के तौर पर अधिकृत किया। पर इस बार अभी तक ऐसा नहीं। यह वह भी जानते हैं और पार्टी में उनके विरोधी भी। कांग्रेस में प्रदेशाध्यक्ष कमज़ोर और एक तरह से कहें तो मुख्यमंत्री की कठपुतली से ज़्यादा नहीं रहे हैं; लेकिन इस बार नवजोत सिद्धू हैं। लिहाजा स्थिति कुछ अलग है। प्रदेशाध्यक्ष सिद्धू मुख्यमंत्री से कहीं ज़्यादा प्रभावशाली दिख रहे हैं। राज्य में कांग्रेस का वोट बैंक दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग का है। दोनों की हिस्सेदारी क़रीब 67 फ़ीसदी है। पिछले विस चुनाव में पार्टी का वोट क़रीब 38.5 फ़ीसदी रहा, जिसे वह क़ायम रखना चाहती है। इसका एक बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों वर्गों से रहा।

घोषणा-पत्र में किये वादे पूरे न होने को लेकर दोनों वर्गों में सरकार के प्रति नाराज़गी है। सम्बद्ध मंत्रियों और विधायकों की नाराज़गी दूर करने का काम मुख्यमंत्री का है, जिसमें कैप्टन कुछ हद तक नाकाम रहे हैं। ऐसे में अब सिद्धू ने अपने तौर पर यह ज़िम्मेदारी सँभाल ली है। यह बड़ा काम है और पार्टी की जीत की सम्भावना इसी से निकल सकती है। कैप्टन और सिद्धू में अब भी 36 का आँकड़ा बना हुआ है। प्रदेशाध्यक्ष की ताजपोशी से पहले सिद्धू ने जिस तरह से पार्टी के ज़्यादातर विधायकों और कई मंत्रियों का समर्थन जुटाकर एक तरह से सीधे कैप्टन को चुनौती ही दी थी। वह कसक कैप्टन के मन में है पर पार्टी हित में वे चुप्पी साधे हुए हैं।

केंद्रीय आलाकमान ने कैप्टन को 18 सूत्री कार्यक्रम दिया है। उन्हें इस पर काम करने और चुनाव से पहले बराबर प्रतिपुष्टि (फीड बैक) देने की ताक़ीद की गयी है। इनमें राज्य में बिजली सस्ती करने, नशा कारोबार पर अंकुश, गुरु ग्रंथ साहिब बेअदबी मामले पर गम्भीर कार्रवाई के साथ राज्य में बिजली ख़रीद सौदों की समीक्षा कर ठोस नतीजे पर पहुँचना है। सिद्धू इन्हीं मुद्दों को उठा रहे हैं, जबकि कैप्टन ऐसा नहीं चाहते। सोनिया गाँधी का पूरा ज़ोर कैप्टन और सिद्धू में किसी तरह तालमेल बनाये रखने का है; लेकिन मौज़ूदा हालात ऐसे नहीं है। चुनाव से पहले क्या समीकरण बनते हैं? इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करेगा।

कांग्रेस की आंतरिक कलह का सबसे ज़्यादा लाभ आम आदमी पार्टी को मिल सकता है। सन् 2017 विस चुनाव में पार्टी ने लगभग 23 फ़ीसदी वोट हासिल किये और उनके 20 विधायक जीते। पार्टी का पूरा ज़ोर इसी मत-फ़ीसद को बढ़ाने का है इसके लिए मुफ़्त की घोषणाएँ उन्हें ज़्यादा कारगर लगी। फ़िलहाल संगरूर से पार्टी के सांसद भगवंत मान प्रमुख चेहरे के तौर पर हैं; लेकिन वे बहुत प्रभावशाली साबित नहीं हो पा रहे हैं। सांसद होने के नाते वह केंद्र की भाजपा सरकार और राज्य में कांग्रेस में सरकार की आलोचना में सबसे मुखर रहते हैं।

पार्टी शुरू से ही किसान आन्दोलन की समर्थक रही है, नेताओं को लगता है कि चुनाव से पहले अगर स्थिति ऐसी ही बनी रहती है, तो आप ग्रामीण क्षेत्रों में पहले से ज़्यादा बढ़त हासिल करेगी। शहरी क्षेत्रों में पार्टी पहले से ज़्यादा अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद पाले हुए है। राज्य में विपक्षी पार्टी के तौर पर आप की भूमिका ज़्यादा प्रभावशाली नहीं रही है। पार्टी का पूरा ज़ोर ग्रामीण स्तर पर संगठन को मज़बूत करने पर है। पार्टी नेताओं को लगता है कि चुनाव से पहले पार्टी का घोषणा-पत्र ही उनके लिए वरदान साबित होगा। जिस तरह से दिल्ली में मुफ़्त की घोषणाओं ने वहाँ सत्ता का दरवाज़ा खोल दिया था, पंजाब में भी ऐसा होना सम्भव है।

राज्य में आधे दर्ज़न से ज़्यादा अकाली दल हैं। चुनाव में इनका अलग से कोई वजूद नहीं होगा लिहाज़ा उन्हें किसी-न-किसी पार्टी से तालमेल करना पड़ेगा। शिरोमणि अकाली दल से टूटकर बने इन दलों की ज़्यादा हैसियत नहीं है; लेकिन सीधे मुक़ाबले में ये मुख्य दल शिअद को ही नुक़सान पहुँचाएँगे। पिछले चुनाव में शिअद और भाजपा का गठजोड़ था; लेकिन उसका हिस्सा क़रीब 9.4 फ़ीसदी रहा; जबकि भाजपा का वोट 1.8 फ़ीसदी ही था। तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में शिअद ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और भाजपा से रिश्ते तोड़ लिये। इस बार शिअद ने बहुजन समाज पार्टी से गठजोड़ किया है।

पिछले चुनाव में बसपा ने सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ा था; लेकिन एक भी सीट नहीं मिली, और 1.5 फ़ीसदी वोट मिले। बावजूद इसके शिअद ने गठजोड़ किया है। दलितों और अन्य पिछड़ा वर्ग में बसपा का आधार ठीक है। इसी का फ़यदा उठाने के लिए शिअद ने सबसे पहले गठजोड़ की शुरुआत कर दी है। हालाँकि सीटों को लेकर दोनों में कुछ तकरार है; लेकिन इसे दूर किया जा सकता है।

शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल ने पार्टी की सरकार बनने पर शुरुआती 400 यूनिट बिजली मुफ़्त देने की घोषणा की है। इसके अलावा सरकार बनने पर उप मुख्यमंत्री किसी हिन्दू या दलित को बनाने का ऐलान भी किया है। राज्य में सवर्ण वोट 33 फ़ीसदी के क़रीब हैं। सुखबीर की नज़र उप मुख्यमंत्री की बात कह हिन्दुओं के साथ दलित वोट बैंक पर भी है। आने वाले दिनों में आप और शिअद की होड़ ऐसी ही घोषणाओं से होने वाली है। किसान आन्दोलन की वजह से कभी सत्ता में भागीदार रही भाजपा बहुत मुश्किल में है। अकेले तौर पर पार्टी ऐसी स्थिति में नहीं कि ठीकठाक प्रदर्शन कर जाए। फ़िलहाल तो उनके नेताओं और पदाधिकारियों का बाहर निकलना तक मुश्किल हो रहा है। चुनाव से आन्दोलन की दिशा पर पार्टी  का भविष्य तय होगा। शिअद तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने के पक्ष में है। इसी मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री रही हरसिमरत कौर बादल ने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। कांग्रेस और आप शिअद पर आरोप लगाते हैं कि जिस पार्टी ने तीन कृषि क़ानूनों का पास होने के दौरान समर्थन किया वही अब विरोध कर रहे हैं। शिअद अगर तीन कृषि क़ानूनों का संसद में विरोध करती और पास होने से पहले सरकार से हट जाती, तो आज स्थिति कुछ और होती। कांग्रेस और आप नेता शिअद का तीन कृषि क़ानूनों पर किसानों का समर्थन घडिय़ाली आसू बता रहे हैं। इसमें काफ़ी हद तक सच्चाई भी है; क्योंकि समय रहते शिअद ने निर्णायक फ़ैसला नहीं लिया। ऐसे में आन्दोलन का फ़ायदा उसे कितना मिलेगा? यह तो इसकी दिशा तय होने पर ही पता चलेगा।