धान की ख़रीद में देरी से बढ़ी कालाबाज़ारी

हरियाणा में ही आढ़तियों के हाथ सस्ते में बेचने को मजबूर है। उन्होंने यह भी बताया कि हरियाणा में अलग-अलग मंडियों में धान का भाव भी अलग-अलग, कहीं 1,100 रुपये प्रति कुंतल, तो कहीं 1,300 रुपये प्रति कुंतल है।

देश के किसान इन दिनों तीन कृषि क़ानूनों के विरोध के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी के लिए आन्दोलन कर रहे हैं। वहीं सरकार मौखिक रूप से कई बार कह चुकी है कि एमएसपी है, एमएसपी रहेगी। लेकिन क्या यह सत्य है? शायद नहीं। क्योंकि हर छमाही रबी और ख़रीफ़ की फ़सल बेचने के लिए किसानों को जिस तरह की दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है, उनकी हक़ीक़त जानने के बाद यही कहा जाना उचित लगता है। 10-20 दिन पहले ही धान की फ़सल खेतों से उठा चुके किसानों के लिए सरकारी ख़रीद केंद्रों के खुलने में देरी होना इसका प्रमाण है। यह लेख लिखे जाने तक अनेक ख़रीद केंद्र खुले भी; लेकिन 100 फ़ीसदी नहीं खुले थे। काफ़ी दिनों तक धान की ख़रीद सरकारी ख़रीद केंद्रों पर न होने के चलते ज़रूरतमंद किसानों से आढ़तियों ने औने-पौने भाव में धान ख़रीद लिया। सवाल यह है कि किसान किससे शिकायत करें? सरकार एमएसपी पर गारंटी देना नहीं चाहती और ख़रीद केंद्रों को भी देरी से खोला जाता है। इसके बाद वहाँ भी किसानों के अनाज में अनेक कमियाँ निकालकर करदा काटकर अनाज को तौला जाता है। अगर किसान ख़रीद केंद्रों की शिकायत करें, तो उन पर ख़रीद करने वाले लोग अनाज को गीला और ख़राब बताकर ख़रीदने से मना कर देते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और बिहार के कई किसानों से तहलका संवाददाता ने ने बात की, तो उन्होंने बताया कि किसानों के साथ अन्याय ही अन्याय हो रहा है।

किसान नेता और वकील चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने बताया कि अब तक के इतिहास में किसानों के साथ बाज़ारों में इतना भेद-भाव नहीं हुआ है, जितना कि अब हो रहा है। उनका कहना है कि बाज़ारों और गेहूँ की बड़ी-बड़ी मंडियों में सत्ता से जुड़े पूँजीपतियों का कारोबार है। सरकार द्वारा निर्धारित भाव को वे मानते नहीं हैं। अपने-अपने हिसाब से ख़रीद-फ़रोख़्त करते हैं। ग़रीब किसान मजबूरी में औने-पौने दाम में उन्हें अनाज बेच देते हैं। सरकार ने जो ख़रीद केंद्र बनाये हैं, वहाँ पर प्रशासन भी मंडियों की भाषा बोलता है। ऐसे आख़िरक़ार न चाहते हुए भी किसान हर हालत लुटता जा रहा है। उन्होंने कहा कि देश में पहले जमाख़ोरी का कारोबार कम हुआ करता था। लेकिन अब सरकार में पूँजीपतियों की तूती बोल रही है और वे सारे क़ानून-क़ायदे ताक पर रखकर जमाख़ोरी करके खाद्यान की कालाबाज़ारी कर रहे हैं। यह एक सच्चाई है कि अब देश के पूँजीपतियों की नज़र कृषि उत्पादों पर टिकी है और वे इस पर अपना आधिपत्य चाहते हैं। किसानों का तो कहना है कि तीन कृषि क़ानून भी सरकार इसी सोच के चलते लायी है और यही वजह है कि उन्हें वापस करना नहीं चाहती।

हरियाणा के किसान राजू सिंह ने बताया कि हरियाणा का किसान अपनी धान की फ़सल को बेचने के लिए भटक रहा है। करनाल, सिरसा और पानीपत में किसानों के ट्रैक्टर के ट्रैक्टर भरे मंडियों में कई-कई दिनों से खड़े हैं। राजू सिंह का कहना है कि पंजाब सरकार धान की सही क़ीमत दे रही है। वहीं हरियाणा सरकार दावा तो कर रही है कि वह धान ख़रीद रही है। लेकिन सच यह है कि वह उन्हीं किसानों का धान ख़रीद रही है, जो सरकार से जुड़े हैं, जिनमें दलाल भी शामिल हैं। असल किसान तो भटक रहे हैं। हरियाणा के किसान पंजाब में जाकर अगर धान बेचें, तो मोटा भाड़ा लगेगा। इसलिए हरियाणा में ही आढ़तियों के हाथ सस्ते में बेचने को मजबूर है। उन्होंने यह भी बताया कि हरियाणा में अलग-अलग मंडियों में धान का भाव भी अलग-अलग, कहीं 1,100 रुपये प्रति कुंतल, तो कहीं 1,300 रुपये प्रति कुंतल है।

धान की खेती में अग्रणी उत्तर प्रदेश के ज़िला बांदा ज़िले की अर्तरा तहसील धान की उत्तर प्रदेश की प्रमुख मंडियों में से एक है। यहाँ पर धान की ख़रीददारी को लेकर किसानों के साथ अजीब से व्यवहार किया जा रहा है। अन्य ज़िलों से जो बिकने को आ रही है। उनके साथ बाज़ार और मंडियों के लोग अपनी मनमर्ज़ी के भाव में धान ख़रीद रहे हैं और जमकर घटतौली कर रहे हैं। हमीरपुर ज़िले के भरुआ सुमेरपुर के किसान दिलीप कुमार ने बताया कि आज देश के किसान मज़ाक़ बन गये हैं। सरकार तो वादे करती है कि यह होगा, वह होगा; लेकिन धरातल पर किसानों के हित में कुछ नहीं हो रहा है। शासन-प्रशासन के लोग और पूँजीपति मिलकर जो खेल किसानों के साथ कर रहे हैं, उस पर सरकार कुछ नहीं करती है। सत्ता से जुड़े लोग अपनी तानाशाही कर रहे हैं। किसानों को मंडियों में न केवल परेशान किया जा रहा है, बल्कि बेइज़्ज़त भी किया जा रहा है, जिससे वे खाद्यान बेचने के दौरान सहमे-सहमे से हैं कि किसी प्रकार उनकी फ़सल बिक जाए।

किसान नेता भूपेन्द्र सिंह का कहना है कि जब तक सरकार स्पष्ट तौर प्रशासन और बाज़ार के बीच ज़िम्मेदारीयाँ तय नहीं करती है, तब तक बाज़ारों में किसान लुटता रहेगा। रामपुर से लेकर हापुड़ तक किसानों ने कई बार उत्तर प्रदेश सरकार से लिखित में शिकायत की है कि किसानों के साथ अगर कोई अन्याय कर रहा है, तो वह सरकार का प्रशासन-तंत्र है। किसान जब अपना अनाज बेचने आता है, तो उसे कई-कई दिन लग जाते हैं। किसान केंद्रों में हर कर्मचारी किसानों से लेन-देन की बात करता है, तब जाकर उसका अनाज बिकता है। मध्य प्रदेश के किसान राजेश कुमार का कहना है कि मौज़ूदा समय किसानों को पैसा की सख़्त ज़रूरत है। वजह साफ़ है कि इस समय किसान रबी की बुवाई में व्यस्त हैं। धान की फ़सल बेचने में वे समय बर्बाद नहीं करना चाहते और उन्हें पैसे की भी ज़रूरत है। इसलिए वे मजबूरन आढ़तियों और सरकारी ख़रीद केंद्रों के कर्मचारियों के हाथों छले जा रहे हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार का यही रवैया रहा, तो आने वाले दिनों में किसान धान की फ़सल नहीं उगाएगा। राजेश का कहना है कि मध्य प्रदेश से सटा राज्य छत्तीसगढ़ है। छत्तीसगढ़ कभी धान का कटोरा कहा जाता था; लेकिन अब नहीं कहा जाता है। क्योंकि धान की ख़रीद में कमी और कम भाव की ख़रीद के चलते वहाँ के लोगों ने धान की फ़सल बोना बन्द कर दी है।

मध्य प्रदेश के किसान विनोद कुमार साहू का कहना है कि यह पूँजीपतियों की सोची-समझी चाल है, जिसके तहत धान ही नहीं, किसी भी फ़सल की ख़रीददारी समय पर नहीं की जाती है। पहले डीजल-पेट्रोल के दाम कम थे, तो किराया-भाड़ा भी कम लगता था; लेकिन अब तो वह भी बढ़ गया है। पहले किसान आसानी से दूसरे ज़िले या राज्य में फ़सल बेच देते थे; अब यह सम्भव नहीं है। कुल मिलाकर किसानों को परेशान किया जा रहा है। महँगाई के अलावा बीमारियों का दौर चल रहा है। ऐसे में हर किसान को पैसे की सख़्त ज़रूरत है और इसका फायदा आढ़तिये, पूँजीपति, ख़रीद केंद्रों के कर्मचारी, मंडियों में बैठे दलाल उठा हैं और सरकार एमएसपी का ढोल ऐसे पीटती है, जैसे हक़ीक़त में उसने किसानों पर कोई अहसान कर दिया हो। बड़ी बात तो यह है कि एमएसपी पर किसानों के खाद्यान शायद ही कहीं ख़रीदे जाते हों।

बताते चलें एक दौर में खाद्यान्न खेतों से सीधे ख़रीद केंद्रों पर तुलती थे, बाज़ार में भी उनके दाम ठीकठाक मिल जाते थे। तब किसानों को प्रशासन से मिन्नतें भी नहीं करनी पड़ती थीं और न ही समझौते का सहारा लेना पड़ता था। अब यह हालत है कि ख़रीद केंद्रों पर कर्मचारियों का दबदबा चलता है। वहाँ पुलिस मौज़ूद होती है। टोकन सिस्टम है। बारी आने पर अनाज लिया जाता है और बारी कई दिन तक नहीं आती। जब बारी आती है, तो कई कमियाँ। ऐसे में किसानों का हर तरह से नुक़सान-ही-नुक़सान होता है।

ग़ाज़ीपुर मंडी में व्यापारी महेन्द्र सिंह का कहना है कि किसान और आम जनमानस की समझ से बाहर है कि अलग-अलग राज्यों में धान का भाव अलग-अलग होने का मतलब क्या है? मतलब साफ है कि मंडियों से लेकर सरकारी ख़रीद केंद्रों पर दलालों का बोलबाला है, जो किसानों की मजबूरी का लाभ उठाकर मनमर्ज़ी के भाव तय करके अनाज ख़रीदते हैं। कई बार ख़रीद केंद्रों के कर्मचारी नकद पैसा देकर किसानों का माल ख़रीद रहे हैं और आढ़तियों की तरह जमाख़ोरी करने में लगे हैं। ऐसा नहीं है कि ये सब शासन-प्रशासन को पता नहीं है; सब कुछ पता है और उनकी ही देख-रेख में ही सब हो रहा है। जागरूक और पढ़े-लिखे किसान इसे लेकर उनसे बात भी करते हैं, सरकार से शिकायत की चेतावनी तक देते हैं; लेकिन इससे होता कुछ नहीं।

शुरू से ही किसान आन्दोलन से जुड़ीं किसान नेता सुनीता गौर ने कहा कि जब सरकारें व्यापारियों के हित में काम करती हैं, तो देश की जनता हो या किसान, सबको कुछ-न-कुछ परेशानी होती है। उनका कहना है कि देश में शासन से लेकर प्रशासन तक पूँजीपति व्यापारियों के हित में काम कर रहे हैं। ऐसे में फ़सल में ही क्या, छोटे-छोटे व्यापारों में सेंध लगायी जा रही है।

मौज़ूदा दौर में अगर सबसे ज़्यादा अगर धान की बिक्री को लेकर अगर किसान परेशान है, तो वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा के किसान हैं। यहाँ पर किसानों को अपनी धान को औने-पौने दामों में बेचने का मजबूर होना पड़ रहा है। किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने कहा कि आगामी 27 नवंबर को दिल्ली में देश के किसान धान की बिक्री में हो रही घपलेबाज़ी की शिकायत केंद्र सरकार के समक्ष रखेंगे।