धतकर्मों का परदा

ईश्वर पर दुनिया के अधिकतर लोगों की आस्था है। इसी आस्था के सहारे चालाक लोग धार्मिक चोला ओढ़कर सामान्य समझ वालों को बड़े आराम से अपनी उँगलियों पर नचाते हैं। फिर भी अगर कोई इक्का-दुक्का जागरूक व्यक्ति या समूह इन धर्म के ठेकेदारों का विरोध करता भी है, तो उन्हें उस व्यक्ति या समूह से लडऩे की ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि उनको और उनकी बातों को मानने वाले लोग ही धर्म (मज़हब) और ईश्वर पर हमले के नाम पर विरोधी व्यक्ति या समूह से निपट लेते हैं।

ऐसे नासमझ लोग ऐसे सत्य को भी बर्दाश्त नहीं करते, जो धर्म में किसी कमी को उजागर करता है। ये वही लोग होते हैं, जो दूसरे धर्म के अनुयायियों को ही नहीं, बल्कि उनकी भाषा में पुकारे जाने वाले उसी ईश्वर को गालियाँ देते हैं, जो उनका भी ईश्वर है। ऐसे अज्ञानी और धर्मांध लोग ही धर्म के नाम पर लड़ाने वालों की बातों को आँख बन्द करके ईश्वर के आदेश की तरह मानते हैं। अफ़सोस यह है कि दुनिया के अधिकतर लोग इसी पागलपन में डूबे हुए हैं। यही वजह है कि जीवन भर लोग एक-दूसरे का सिर फोड़ते रहते हैं, जिसके चलते चालाक लोग अपनी रोटियाँ सेंकते रहते हैं और मज़े करते हैं। दुनिया के लगभग सभी धर्मों में यही सब हो रहा है? अफ़सोस की बात यह है कि अब अपने फ़ायदे के लिए धर्मों में मोटी फंडिंग राजनीतिक दल और कुछ ताक़तवर लोग कर रहे हैं। यह फंडिंग न सिर्फ़ धर्म के नाम पर मोटी कमायी करने के लिए की जाती है, बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए भी की जाती है। यही वजह है कि धर्मों की ठेकेदारी से जुड़े लोग ईश्वर और धर्म का डर दिखाकर आम लोगों को धर्म की अफ़ीम खिलाये रखना चाहते हैं, ताकि उनकी दूकान चलती रहे। इस खेल में रोचक बात यह है कि जो लोग धर्म पर चलने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं, सच्चाई से कहें तो जो लोग धर्म की दूकान चलाते दिखते हैं, वास्तव में वो धर्म के असली खिलाड़ी नहीं होते; वे केवल पादरी, पुजारी, मौलवी जैसी पदवियों तक ही सीमित होते हैं और उनका काम लोगों को अपने-अपने धर्म से जोड़कर रखना ही होता है। असल में सत्ता सुख जिन्हें मिलता है, वे परदे के पीछे सुरक्षित खेल खेलते हैं और साज़िशों के जाल बुनते हैं। यह खेल उन धर्म स्थलों के ज़रिये अधिक चलता है, जिनकी मान्यता ज़्यादा होती है। कितनी ही बार ऐसे लोगों की पोल हमारे सामने खुल चुकी है। लेकिन इसके बावजूद लोगों की आँखें नहीं खुलतीं।

इसे नादानी ही कहा जाएगा कि लोग उस धर्म के नाम पर लड़कर मर तक जाते हैं, जो धर्म इतनी आस्था के बावजूद उनकी रक्षा नहीं करता। अब तक दुनिया में धर्म के नाम पर जितने भी दंगे या युद्ध हुए हैं, उनमें मरने वालों में वही लोग अधिक रहे हैं, जिनका धर्म से सीधा कोई स्वार्थ नहीं रहा है। दरअसल धर्म के ठेकेदार धर्म की अफीम भी ऐसे ही लोगों को आसानी से खिला पाते हैं। इससे उन लोगों के कई स्वार्थ एक साथ बड़ी आसानी से सध जाते हैं। पहला स्वार्थ तो यह कि धर्म के सम्मान में आस्था से सिर झुकाये दण्डवत् पड़े लोगों, जो कि ग़ुलामी की हद तक यह सब करते हैं; को धर्म के इन ठेकेदारों की अय्याशियाँ और ख़ामियाँ नज़र नहीं आतीं। दूसरा इनके नीचे दबी बेकाम की सम्पत्ति किसी को नज़र नहीं आती।

बेकाम की सम्पत्ति इसलिए, क्योंकि यह सम्पत्ति अरबों-ख़बरों में होने के बावजूद समाज, देश और आम लोगों के कल्याण अथवा हित में किसी भी रूप में काम नहीं आती; जबकि यह सम्पत्ति आम लोगों के द्वारा ही दान में मिली होती है। इस सम्पत्ति का उपयोग धर्म के ठेकेदार अपनी अय्याशियों, ऐश-ओ-आराम के लिए करते हैं। या फिर इसे दंगे भड़काने, अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच झगड़ा कराने वालों को पालने और अपने द्वारा बनाये गये संगठनों को मज़बूत करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। या अगर किसी धर्म की साँठ-गाँठ किसी नेता अथवा राजनीतिक दल से है, तो चुनावों में जीत के लिए इस धन का इस्तेमाल किया जाता है। हैरत की बात यह है कि धार्मिक स्थलों अर्थात् धर्मों के इन अड्डों के निर्माण के लिए अब कुछ लोग पैसा भी लगाते हैं, ताकि इन स्थलों से उनकी कमायी हो सके। इस्कॉन मन्दिर इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। इस्कॉन मन्दिरों के ज़रिये विदेशी संगठन मोटी कमायी करते हैं। इसी तरह भारत के अन्दर देश के ही कई मज़बूत संगठन हर धर्म में हैं, जो कि धन-संग्रह के इसी खेल में लगे हैं। लेकिन किसी भी देश में धर्म को ईश्वर में आस्था का बड़ा रास्ता माना जाता है, जिसके चलते अगर कोई गड़बड़ी किसी धर्म के ठोकेदारों द्वारा की भी जाती है अथवा वे पकड़े भी जाता हैं, तो भी उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं होती। धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों द्वारा किये गये इस धन संग्रह की न कोई गिनती ही सार्वजनिक की जाती है और न ही इस धन पर कोई कर लगता है। यही वजह है कि इस धन्धे में आने वाले अपने आप को सबसे सुरक्षित महसूस करते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि एक यही ऐसा धन्धा है, जो उनके धतकर्मों को छिपाने का परदा है। इस परदे की बिना पर उनके बड़े-से-बड़े पाप बड़ी आसानी से छिप जाते हैं और लोगों में वे ज़रूरत से ज़्यादा सम्मान पाते हैं। यह तो धर्म की अफीम खाने वाले लोगों को सोचना होगा कि क्या धर्म के ठोकेदार इस सम्मान के लायक होते हैं? क्या लोग धर्म की आस्था के नाम पर जिस धारा में बह रहे हैं, ईश्वर तक पहुँचने के लिए उसकी ज़रूरत है? क्या वे धर्म के नाम पर जो दान दे रहे हैं, वास्तव में उसका सदुपयोग हो रहा है?