दिखने लगे सरदार सरोवर बांध के बुरे नतीजे

Sardar Sarovar Dam

अन्तत: अत्याचार का परिणाम और कुछ नहीं 
केवल अव्यवस्था ही होती है।-महात्मा गाँधी
नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध की वजह से आ रही डूब से प्रभावित मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के प्रभावितों की समस्या का निराकरण तो हो नहीं पा रहा पर इस बांध के दुष्प्रभाव गुजरात में भी साफ नज़र आने लगे हैं। इसका व्यापक विरोध भी वहां प्रारंभ हो चुका है। बांध स्थल के नजदीक केवडिय़ा से लेकर नर्मदा भड़ूच में जहां अरब सागर में मिलती ‘थीÓ (”थीÓÓ पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।) वहां तक पूरा गुजरात दिनों दिन संकटग्रस्त होता जा रहा है। गुजरात की राजनीति में नर्मदा नदी और सरदार सरोवर बांध दोनों ही हमेशा केंद्र में रहे हैं। परंतु तात्कालिक लाभ पाने के लिए भविष्य मेें होने वाली स्थायी हानि की लगातार जानबूझ कर अनदेखी की गई है। जो भी इस पर चर्चा करने का प्रयास करता है उसे पहले विकास विरोधी, फिर राष्ट्रविरोधी ठहराने का बीड़ा उठा लिया जाता है। सरदार सरोवर बांध से मिलने वाले लाभ असल में दवाई के रूप में प्रयोग में आगे वाले स्टेरॉयड जैसे हैं, जिनसे तत्कालीन लाभ होना तो दिखाई देता है, परन्तु आखिर में वह शरीर को खोखला कर देता है। सरदार सरोवर से भी यही हासिल होना है। इसके अलावा और कुछ मिल पाना शायद संभव नहीं है।
इस बीच गुजरात में नौ और 14 दिसंबर को विधानसभा चुनाव हैं। प्रधानमंत्री पिछले 30 दिनों यानी एक महीने में तीन बार और दो महीनों में पांच बार गुजरात का दौरा कर चुके हैं। तकरीबन सभी दौरे सरदार सरोवर बांध और नर्मदा के गुणगान से सराबोर रहे। वहीं दूसरी ओर भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार ज्योति ने गुजरात में विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा न करके भारतीय लोकतंत्र में एक ऐसा अध्याय जोड़ दिया है, जिसे शायद कोई पढऩा न चाहे। परन्तु हम अपने समय की वास्तविकता की अनदेखी भी नहीं कर सकते। विकास और विनाश का सम्मिलन शायद इतना स्पष्ट कहीं नहीं दिखा जितना इस बार गुजरात में दिखा। मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि सरदार सरोवर बांध की नर्मदा मुख्य नहर के टूटने से केवल मकान ही नहीं टूटे है बल्कि ग्राम पंचायत, तालुका पंचायत और जि़ला वर्ग की सड़कें भी नष्ट हुई हैं। उत्तरी गुजरात के सात जिले बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। यहां नहर पर 17 बड़े पुल भी हैं। इस नहर से सिर्फ सिंचाई का ही नहीं पीने का पानी भी जाता है। जुलाई-अगस्त में बाढ़ का प्रकोप रहा ऐसे में चुनाव तैयारी आदि जिसमें प्रशिक्षण भी शामिल है मेें कर्मचारियों की अनिवार्य उपस्थिति से राहत कार्यों निर्माण कार्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। यहां सवाल यही उठता है कि क्या राहत कार्यों को आदर्श आचार संहिता से छूट नहीं दी जा सकती? परन्तु तर्क अब भारतीय लोकतंत्र का आधार नहीं है, अब तो निर्णय आ जाता है, जो कि पूर्णतया बाध्यकारी होता है।
बहरहाल सरदार सरोवर बांध का विरोध अब धीरे-धीरे गुजरात की अनिवार्यता बनती जा रही है। गुजरात में 60 हज़ार करोड़ रुपए की लागत से बनने वाली कल्पसार योजना को ही लें इसके अंतर्गत खंभात की खाड़ी में 30 किलोमीटर का बांध बनाने के साथ ही साथ समुद्र में मीठे जल का सबसे बड़ा जलाशय बनाने का प्रावधान भी है। इसके फलस्वरूप 3000 करोड़ रुपए की लागत से भडूच जिले में नर्मदा किनारे स्थित भाड़भूत गांव के नजदीक एक बैराज का निर्माण प्रस्तावित है। आठ अक्टूबर को जब प्रधानमंत्री भड़ूच के गोल्डन ब्रिज पर कार्यक्रम में भाग ले रहे थे, तो करीब 250 मछुआरों ने 40 नौकाओं पर काले झंडे लगाकर उनका विरोध किया। उन्हें और अन्य कई प्रभावितों को गिरफ्तार भी किया गया। इस बैराज के कारण समुद्र का पानी आना बंद होने से बेशकीमती हिलसा मछली का उत्पादन कमोवेश बंद हो जाएगा। इसके अलावा मछलियों की करीब 80 अन्य प्रजातियों पर भी जबरदस्त विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इतना ही नहीं इसका विपरीत प्रभाव 100 किलोमीटर तक पड़ेगा और 15000 परिवार प्रभावित होंगे।
इस इलाके से सालाना करीब 500 करोड़
रु पए की मछली बाहर भेजी जाती है जो बैराज के बन जाने के बाद 25 प्रतिशत ही रह पाएगी। परन्तु न देश के प्रधानमंत्री और न गुजरात के मुख्यमंत्री इसे लेकर चिंतित हैं। इतना ही नहीं गुजरात सरकार ने दावा किया है कि उसे इस बैराज निर्माण के लिए जबरदस्त संरक्षण मिला है। 54 लिखित आवेदनों में से 32 इसके पक्ष में थे। इन 32 मेें अधिकांश या कमोवेश सभी उद्योगों के प्रतिनिधि ही थे। पर्यावरण प्रभाव आकलन को लेकर सक्रिय कार्यकर्ताओं की आपत्तियों की अनदेखी की गई। मछुआरों और किसानों की आजीविका को होने वाले प्रभावों की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया। वैसे मछुआरे 2016 में बैराज का काम रोकने की धमकी दे चुके हैं।
इस सारी प्रक्रिया में प्रभावितों के पुनर्वास का कोई ध्यान नहीं रखा गया। जबकि
परिस्थितियां तो सरदार सरोवर बांध के निर्माण के बाद से ही बदतर होने लगीं थीं। वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में कहा था कि भाड़भूत बैराज के बन जाने के बाद क्षारीयता का प्रभाव कम होगा और नर्मदा से स्थानीय लोगों और किसानों की पानी की आपूर्ति बेहतर होगी। परन्तु मुख्य प्रश्न यह है कि सरदार सरोवर बांध के बनने से पहले तो ऐसी (खारेपन की) कोई समस्या नहीं थी। तो फिर अब समुद्र अंदर क्यों घुस रहा है? पहले समस्या खड़ी कीजिए और फिर समस्या का समाधान कीजिए। दूसरे शब्दों में कहें तो पहले 90 हज़ार करोड़ रु पए की लागत से सरदार सरोवर बांध बनाइये और फिर इसके दुष्प्रभाव रोकने के लिए 60 हज़ार करोड़
रु पए की कल्पसार योजना बनाइए। आखिरकार दोनों ही अपने-अपने स्तर पर विनाशकारी ही सिद्ध होंगी, परन्तु विकास की इस अंधी दौड़ में सिर्फ तात्कालिक लाभ और धन निवेश को ध्यान में रखा जा रहा है। जबकि इसका सबसे आसान समाधान यह था कि सरदार सरोवर बांध से लगातार व ज्य़ादा मात्रा में पानी छोड़ दिया जाए इससे खारे पानी की समस्या ही नहीं होगी। हमारे योजनाकत्र्ताओं ने नर्मदा जैसी सदानीरा नदी को मौसमी नदी में बदल डाला और इस मानव निर्मित समस्या ने हज़ारों नागरिकों की जीविका के साथ ही साथ लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि को क्षरीय बनाना शुरू कर दिया है।
उधर दूसरी ओर एक आधुनिक धर्मगुरू जग्गी वासुदेव अपनी रैली ‘फार रीवरÓ को लेकर भारत को नाप डाल रहे हैं। उनके इस अनूठे प्रयास को देखकर एक बहुत पुरानी उक्ति याद आ रही है, जिसमें कहा गया था कि, ‘मेरा कार्य इतना गुप्त है कि मैं खुद नहीं जानता कि मैं क्या कर रहा हूँ।Ó वह जानते ही नहीं हंै कि नदी क्या होती है और वह कैसे प्रवाहित बनी रहे? बड़े-बड़े प्रायोजकों के सहारे हो रहा यह आयोजन अपने आयोजकों की गतिविधियों से ही चर्चा में है। इन पर पर्यावरण कानूनों की अनदेखी, अतिक्रमण के साथ ही साथ आपराधिक मामले दर्ज हैं। परन्तु आंख मंूदे बैठा समाज सिर्फ जयकारे लगाना जानता है और असलियत सामने आने पर गाली देना। वह चेतावनी को नकारता है और इसी का परिणाम भुगत भी रहा है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि आखिरकार नीयत ही हमारी नियति का निर्धारण करती है। इसीलिए साध्य के लिए गांधी साधन की पवित्रता पर सर्वाधिक ज़ोर देते थे।
मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा नदी पर बने इंदिरा सागर बांध के किनारे हनुवंतैया में 80 दिन का नदी महोत्सव मना रही है। इस बांध से विस्थापित समुदाय अभी भी भटक रहा है। सरदार सरोवर बांध प्रभावित अभी तक डटे हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन और उसकी नेता मेधापाटकर वहां संबल बनी हुई है। आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय समाज अपने भविष्य की आहट को समझे। स्टेरॉयड की बजाए थोड़े दिन कड़वी मगर असरदार दवाई का सेवन करे। इसी में सब का भला है।