तांडव गायों का, रक्षकों का उन्माद!

सघन हो रहे हैं अंधेरे

गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा और उत्पात को लेकर वरिष्ठ पत्रकार वेदव्यास का सुलगता सवाल चौंकाता है कि, ‘आखिर हम 1947 की आजादी को 2022 में 75 साल पूरे होने पर कहां, किस ओर ले जाना चाहते हैं? एक देश और एक कर से बाजार तो एक हो सकता है लेकिन जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय विविधताओं को केवल गाय, गंगा और गीता के नाम पर हिंसा फैलाकर लोकतंत्र नहीं बचाया जा सकता। वरिष्ठ पत्रकार मनोज मोहन एक अलग विषय पर सामयिक संदर्भ पर सटीक टिप्पणी करते नजर आते हैं,’कई बार लगता है कि सारी चकाचौंध के बावजूद हमारे समय और समाज में दरअसल अंधेरा, एक नहीं बल्कि कई तरह के अंधेरे बढ़ रहे हैं। वे इतने और इस कदर सघन और एक-दूसरे से इतने अटूट हैं कि इन्हें अलग कर देना मुश्किल है। वरिष्ठ पत्रकार दीनबंधु चौधरी कहते हैं,’सवाल उठता है कि क्या ये नृशंस उत्पात चुनाव की सन्निकटता के मद्देनजर एक खास समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने और किसी अन्य समुदाय में ध्रुवीकरण करने की कोशिश का हिस्सा है? इस साल कर्नाटक में चुनाव है तो संयोगवश राजस्थान में भी इस साल चुनाव है। यह एक संयोग है कि ऐसी घटनाएं चुनावों के आस-पास ही घटित होती हैं। दादरी में अखलाक अहमद की हत्या बिहार चुनाव के पूर्व ही हुई थी। हकीकत का तो पता नहीं लेकिन उत्पात मचाने वाले तत्वों को राजनीतिक संरक्षण मिलने वाले बयानों से संदेह को मजबूती मिलती है।

कुटिल होती संवेदना

नगरीय सरकारों के मुखिया को ‘क्रिएटिवÓ ओर ‘फोकस्डÓ होना चाहिए। लेकिन उनके पास तो वह ‘आंखÓ ही नहीं है जो सियासत के पार जाकर यथार्थ देख सके? अन्यथा उनकी सूखी हुई संवेदना इतनी कुटिल नहीं हेती कि, ‘हमारे पास समय ही नहीं है कि आवारा पशुओं को पकडऩे के लिए अभियान चला सकें।ÓÓ गायों की हिंसक घटनाओं को लेकर जो आवेग और बेचैनी आम होनी चाहिए थी, वो अंश मात्र भी उनमें नहीं है। शहरों में गुर्राती गायों और बर्बर सांडों की चहलकदमी, उन आदेशों की संकर पैदाइश है, जिनके मुताबिक ‘नाकामÓ होते इन पशुओं को ‘खरीद बिक्रीÓ से दरकिनार कर ‘छुट्टाÓ छोड़ देने को कहा गया है। नतीजतन छुटटा छूटा ‘अपराधीÓ या ‘सांडÓ क्या गुल खिला सकते है। इसका मकान शहरी सरकारों को रहा होता तो कुछ करते? इस अहम मुद्दे को लेकर पिछले दिनों जागरूक नागरिको ंको मुख्यमंत्री का आश्वासन भी फूंक में उड़ता नजर आता है कि, ‘अगले आठ दिनों में उन्हें इस ‘आफतÓ से निजात मिल जाएगी?Ó लेकिन निजात तो मिलती जब मेयर के फुरसत होती? गैर की छोड़ें तो कोटा मेयर को तो अपने वार्ड में टहलते ‘आतंकÓ की ही परवाह नहीं है तो उन्हें क्या कहा जाए? बहरहाल शहरों का फ्रस्ट्रेशन बढ़ता जा रहा है कि उसकी बात शहर का खलीफा ही नहीं सुन रहा है? लोगों में किस कदर दहशत है कि, मुहल्लों में खेलते बच्चे अब कहीं नजर नहीं आते, लोग सुबह की सेहतमंद सैर और शाम को टहलने का कार्यक्रम टाल चुके हैं, लेकिन कब तक? लोगों का तंज बहुत कुछ कह जाता है कि ‘किसी की मौत से नगरीय सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता?