टिहरी के बाद लोहारी भी डूब गया

 लखवाड़ व्यासी जल विद्युत परियोजनाओं का काम हुआ तेज़ 7  120 घर जलसमाधि देकर देश को देंगे बिजली

इंसान की ज़िन्दगी में हवा, बिजली और पानी तीन ऐसी आवश्यकताएँ हैं, जिनके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन देवभूमि उत्तराखण्ड में देहरादून के एक गाँव लोहारी में वक़्त की कुछ ऐसी हवा चली कि आज गाँव वालों को पानी से ही डर लगने लगा है और बिजली से नफ़रत-सी हो गयी है। इसका मूल कारण है कि उनका पैतृक लोहारी गाँव को प्रशासन ने व्यासी जल विद्युत परियोजना के तहत ख़ाली करा लिया है। उत्तराखण्ड में बने सबसे बड़े टिहरी बाँध में समायी ऐतिहासिक टिहरी की विरासत की यादें अभी भूली भी नहीं थीं कि दोबारा 120 परिवारों की 100 साल पुरानी यादें अब इस परियोजना की भेंट चढ़ गयी हैं।

उत्तराखण्ड देवभूमि की भौगोलिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि हिमालयी शृंखला में बसे इस राज्य के आँचल में गंगा और यमुना समेत अनेक नदियाँ लाखों करोड़ों लोगों की प्यास बुझाने के साथ जीवनदायिनी के रूप में अविरल सदियों से बह रही हैं। भारत के धार्मिक और ऐतिहासिक मानचित्र पर उत्तराखण्ड यूँ तो अपना विशेष स्थान बदरीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री और हेमकुंड साहिब की वजह से रखता ही है; लेकिन राजधानी देहरादून के जनजातीय क्षेत्र चकराता के लाक्षयाग्रह की वजह से इस क्षेत्र की अपनी एक अनूठी पहचान है। सन् 1947 में आज़ादी मिलने के बाद कई नये गाँव और इलाके बसे और उन्हीं में से एक देहरादून ज़िले के जौनसार बावर क्षेत्र में लखवाड़ और लखस्यार गाँव भी बसे। वह ज़माना और था और बहुसंख्य लोग मेहनत व ईमानदारी की कमायी में विश्वास रखते थे। और यहाँ के लोगों ने अपनी कड़ी मेहनत की बदौलत इस बात को सिद्ध भी कर दिया।

यमुना नदी के सहारे जौनसार बाबर के उत्तरी छोर पर स्थानीय ग्रामीणों ने कड़ी मेहनत करके क्षेत्र को हरा-भरा कर दिया और इतना ही नहीं अच्छी खेती से प्रोत्साहित होकर ग्रामीणों ने कुछ दूरी पर पहाड़ी की तलहटी में 10 परिवारों को लेकर एक गाँव भी बसा दिया, जिसको नाम दिया लोहारी गाँव। चूँकि खेती की पैदावार अच्छी होती थी, तो लोहारी वासियों का मूल व्यवसाय ही कृषि हो गया। अक्सर देखा जाए, तो किसी पेड़, पुल या इमारत की एक मियाद होती है। लेकिन विधाता ने लोहारी गाँव की क्या तकदीर लिखी थी? यह किसी को नहीं पता था। अब इसको गाँव वालों का भाग्य कहा जाए या क़ुदरत का फ़ैसला कि अनिश्चितता के साये में पाँच दशक लोहारीवासियों ने व्यतीत कर दिये; लेकिन पारम्परिक तीज-त्यौहार,  शादी-ब्याह के मौक़ों पर कभी भी यहाँ के लोग अपने पैतृक गाँव पहुँचना नहीं भूले। लेकिन अब उनकी वो अमिट यादें भी जल समाधि ले चुकी हैं। लेकिन वक़्त का एक दौर ऐसा आया, जब ग्रामीणों की सारी आस टूट गयी। जून, 2021 में व्यासी जल विद्युत परियोजना के लिए जुडडो गाँव में बनाये गये बाँध की झील में पानी एकत्र किया जाने लगा है, तो ग्रामीणों के सब्र का बाँध टूट गया और उसी दौरान क्षेत्रीय विधायक मुन्ना सिंह चौहान को उस वक़्त ग्रामीणों के जबरदस्त ग़ुस्से का सामना करना पड़ा, जब एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने वहाँ पहुँचे।

बात बनती न देख ग्रामीणों ने अपनी माँगों को लेकर अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर दिया। पाँच दशकों से अधिक समय से लोहारी में बसे हुए ग्रामीणों की माँग है कि मुआवज़े के अलावा ज़मीन के बदले ज़मीन, मकान के बदले मकान, रोज़गार छिन जाने पर नौकरी दिये जाने की व्यवस्था की जाए। मामला गरमाता देख तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह ने विस्थापन और मुआवज़े के मामले को सदन में भी उठाया; लेकिन नतीजा शून्य ही रहा। उल्टा आन्दोलनरत ग्रामीणों को जबरन धरने से उठाकर जेल भेज दिया गया, जिसमें 17 लोगों पर मुक़दमे भी दर्ज किये गये। इससे हल निकलने के बजाय ग्रामीणों में और ज़्यादा आक्रोश बढ़ गया। गाँव की चंदा चौहान का मानना है कि हम अपने पुरखों की अमानत को दे रहे हैं, जहाँ हम पाँच दशकों से अनाज और सब्ज़ी उगाते आये हैं। गाँव की एक अन्य बुज़ुर्ग महिला 72 वर्षीय गुल्लो देवी इस बात को बताते बताते रो पड़ीं कि रात नींद खुलते ही हमारा रोना छूट जाता है।

विस्थापितों की पैरवी कर रहे राजस्व मामलों के वरिष्ठ अधिवक्ता नरेश चौहान ने ‘तहलका’ को बताया कि गाँव का इतिहास तो औरंगजेब शासनकाल समय का है; लेकिन मौज़ूदा हालातों पर नज़र डालें, तो विस्थापन की ज़द में आये लोहारी गाँव में 72 खातेदार हैं और 96 से 100 के क़रीब परिवार हैं, जो बाँध निर्माण से प्रभावित हुए हैं। नरेश चौहान, जो पुरज़ोर तरीक़े से इस परियोजना के प्रभावितों के हितों की पैरवी करने में जुटे हैं; ने बताया कि वर्ष 1961-62 में इस परियोजना का मसौदा तैयार हुआ था और 10 वर्षों के भीतर 1972 में भूमि अधिग्रहण कर ली गयी। सन् 1976 में इसे स्वीकृति मिली, सन् 1984 में काम शुरू हुआ, जो सन् 1989 तक चरम पर रहा। तब यह परियोजना उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग और जे.पी. कम्पनी के पास थी। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने इसे नेशनल हाइड्रो पॉवर कॉर्पोरेशन (एनएचपीसी) को दे दिया, जिसने सन् 2004 से सन् 2007 तक इसकी डीपीआर तैयार की। लेकिन 300 मेगावॉट की तीन टरबाइन जो प्रथम चरण लखवाड़ और 120 मेगावॉट की द्वितीय चरण ब्यासी जल विद्युत परियोजना की दो टरबाइन बनकर तैयार होनी थी, कुछ तकनीकी कारणों से जल की पर्याप्त उपलब्धता न होने की वजह से संचालन स्थिति तक नहीं पहुँच पायी। पिछले पाँच दशकों से अधिक समय से फाइलों में धक्के खाती आ रही इन परियोजनाओं में पहले चरण में लखवाड़ परियोजना तैयार होनी थी और द्वितीय चरण में ब्यासी जल विद्युत परियोजना तैयार होनी थी, जो आज भी संचालन के महूर्त का इंतज़ार कर रही हैं। इसे सरकार की नाक़ाबलियत कहा जाए या लालफ़ीताशाही, ऊर्जा प्रदेश कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में क़ुदरत द्वारा मुहैया करवाये तमाम प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद उत्तराखण्ड बजाय दूसरे राज्यों को बिजली बेचने के उल्टा उनसे महँगी बिजली ख़रीद रहा है।

विरोध और आन्दोलनों के साये में शुरू हुई इन जलविद्युत परियोजनाओं के बन जाने के बावजूद संचालन में आ रही दिक़्क़तों को देखते हुए विभाग ने अंतत: प्रशासन की मदद से पुलिस बल के साथ गाँव ख़ाली कराने का कठोर निर्णय लिया, जिसके चलते 5 अप्रैल, 2022 को प्रभावित परिवारों के खाते में मुआवज़ा राशि हस्तांतरित करने के 48 घंटे में गाँव ख़ाली करने का अल्टीमेटम भी नोटिस के ज़रिये ग्रामीणों के घरों के बाहर चस्पा कर दिया और इसकी अवधि पूरे होते ही बुलडोजर भी चलवा दिया। अपने दादा दादी के पैतृक गाँव को अपनी आँखों के सामने जलमग्न होते देख ग्रामीण भी अपनी आँखों से आँसुओं के सैलाब को नहीं रोक पाये। टिहरी जल विद्युत परियोजना के बाद लोहारी ऐसा दूसरा गाँव हैं, जिसने जल समाधि देकर देश के बाक़ी शहरों को रोशन किया है।