ज्यों नावक के तीर

bookदूर तक चुप्पी मदन कश्यप का नया कविता संग्रह है. इससे पहले उनके तीन कविता संग्रह- लेकिन उदास है पृथ्वी, नीम रोशनी में और कुरुज प्रकाशित हो चुके हैं. बिहारी के लिखे छोटे लेकिन प्रभावशाली दोहों के बारे में कहा जाता था- सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर. मदन कश्यप की छोटी लेकिन बेहद असरदार कविताओं पर यह उक्ति लागू होती है.

संग्रह की कविताओं के एक हिस्से में ढेर सारी यादें हैं. त्रिलोचन की याद, महल फिल्म की याद, गुवाहाटी कांड (जहां एक 17 साल की युवती के साथ उन्मादी भीड़ ने बेहद बर्बर व्यवहार किया था), बोकारा में हुए गोलीकांड की याद और ऐसी तमाम अन्य घटनाओं की स्मृतियां दर्ज हैं. संग्रह में तमाम ऐसी कविताएं हैं जो एक किस्म की बेचैनी को जन्म देती हैं. ‘प्रतिकूल’ शीर्षक से लिखी यह कविता उसकी बानगी है, ‘अचानक पोखर में कूद पड़ी वह स्त्री/ उसी समय पता चला कि उसे तैरना आता है/ चेहरे को सुविधा थी/ वह ऊपर उठ भी सकता था/ और पानी की सतह में छुप भी सकता था/ लगातार पांव चलाने में/ साड़ी सिमट कर घुटनों तक आ गई थी/  तभी लगा कि तैरने के लिए/  यह वस्त्र कितना प्रतिकूल है.’

एक अन्य कविता में वह कहते हैं- गम खाना भले ही माना जाता है अच्छा/ लेकिन अच्छा होता नहीं है/ जब आप गम खाते हैं/ तो असल में/ गम आपको खा रहा होता है.

इन कविताओं का रचनाकाल सन 1973 से 2012 तक यानी तकरीबन चार दशकों में फैला हुआ है. युवा पीढ़ी के लिए यह दुर्लभ अवसर है कि वह मदन कश्यप जैसे हस्तक्षेप करने वाले कवि के साथ इन चार दशकों में विचरण कर सकता है. पाठकों के समक्ष अवसर है कि वे एक ही संग्रह में एक ही कवि की उदारीकरण के पहले और उसके बाद रची गई रचनाओं का पाठ कर सकता है, उनके आस्वाद, उनकी प्रकृति में अंतर को रेखांकित कर सकता है.

संग्रह की एक और विशेषता यह है कि लेखक ने सभी  कविताओं को विषम पंक्तियों पर समाप्त किया है. इससे कविताओं में किसी तरह की लयकारी ढूंढ़े नहीं मिलती. ऐसा क्यों है यह तो लेखक ही बताएगा लेकिन जब परिस्थितियां इतनी विषम हैं तो कविता सम पर क्यों

समाप्त हो?

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