जासूसी के हम्माम में सब..

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जर्मनी की चांसलर (प्रधानमंत्री) अंगेला मेर्कल अपने मन की बात मुंह पर आसानी से नहीं आने देतीं. लेकिन 24 अक्टूबर को उनकी नाराजगी छलक ही पड़ी. ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ के देशों का शिखर सम्मेलन था. एक ही दिन पहले जर्मन पत्रिका ‘डेयर श्पीगल’ की इस खबर से सनसनी फैल गई थी कि अमेरिकी गुप्तचर सेवा एनएसए (नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी ) जर्मन नागरिकों के टेलीफोन तो सुनती ही है, चांसलर मेर्कल के मोबाइल फोन पर उसके कान लगे रहते हैं. शिखर सम्मेलन से ठीक पहले पत्रकारों ने जब उनसे पूछा कि इस खबर के बारे में उनका क्या कहना है तो उन्होंने बड़ी नाराजगी भरे स्वर में कहा, ‘दोस्तों के बीच जासूसी बिल्कुल नहीं चल सकती.’ इससे पिछली शाम को उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को फोन किया था और उनसे भी यही कहा था.

जर्मनी ही नहीं, सारे  यूरोप में इस समय खलबली मची हुई है. अमेरिका और ब्रिटेन बिरलों की ही नहीं, अदनों की भी और दूसरों की ही नहीं, अपनों की भी जासूसी कर रहे हैं. औचित्य है आतंकवाद की रोकथाम. लेकिन उनके लंबे हाथ दूर तक जा रहे हैं. उनकी गुप्तचर सेवाएं अन्य देशों की दूरसंचार कंपनियों के सर्वर-कंप्यूटरों में ही नहीं, दूरसंचार के समुद्री केबलों में भी सेंध लगा कर वह सब कुछ देख, पढ़ और सुन रही हैं, जो फोन पर कहा, ईमेल द्वारा लिखा या किसी भी कंप्यूटर द्वारा कहीं भी भेजा जा रहा है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रेषक और ग्राहक राजा है या रंक. किसी देश का राष्ट्रपति है या आतंकवादी.

भरोसा ठीक, लेकिन निगरानी बेहतर
इस तरह की ‘संपू्र्ण जासूसी’ की बात इससे पहले स्टालिन के उस सोवियत संघ और उसके पिछलग्गू कम्युनिस्ट देशों के बारे में ही सुनी जाती थी जिनका अब अस्तित्व ही नहीं रहा. भूतपूर्व सोवियत संघ के संस्थापक लेनिन का ही यह भी कहना था कि ‘भरोसा करना अच्छी बात है, लेकिन निगरानी रखना उससे बेहतर है.’

अपने मित्रों और शत्रुओं पर अमेरिका और ब्रिटेन यह निगरानी कब से रख रहे हैं, कहना कठिन है. हां, इस निगरानी की कहानी दुनिया के सामने आनी तब शुरू हुई जब अमेरिका की ‘राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी’ एनएसए का एक तकनीकी कर्मचारी एडवर्ड स्नोडन इस साल मई में अपने दफ्तर से गायब हो गया. वह 2009 से ‘एनएसए’ द्वारा अनुबंधित ‘बूज़ एलन हैमिल्टन’ नाम की एक कंपनी में ‘कंप्यूटर सिस्टम एडिमिनिस्ट्रेटर’ के तौर पर काम कर रहा था. उसकी पहुंच इंटरनेट पर निगरानी रखने से जुड़े बहुत ही गोपनीय कंप्यूटर प्रोग्रामों ‘प्रिज्म’ और ‘बाउंडलेस इन्फोर्मैन्ट’ (असीमित सूचनादाता) तथा ब्रिटेन के जासूसी प्रोग्राम ‘टेम्पोरा’ तक भी थी. स्नोडन अपने हाथ लगी सारी जानकारियों को पहले यूएसबी स्टिक पर और बाद में घर जा कर लैपटॉप में कॉपी कर लिया करता था. 20 मई को लापता होने के साथ वह वे सारी गोपनीय जानकारियां अपने साथ लेता गया जिन्हें वह अपने लैपटॉप में छिपा सकता था.

दुस्साहसिक ‘देशद्रोही’
छरहरी कद-काठी वाले 30 वर्षीय एडवर्ड स्नोडन के दुस्साहसिक ‘देशद्रोह’ की भनक अमेरिका को तब मिली जब वह हांगकांग पहुंच गया था. वहां के एक होटल में एक जून, 2013 को वह ब्रिटिश अखबार ‘गार्डियन’ के पत्रकार ग्लेन ग्रीनवाल्ड से मिला और उसे इन गुप्त सूचनाओं की जानकारी दी. ‘गार्डियन’ ने स्नोडन का नाम बताए बिना इन सूचनाओं को छह जून से किस्तों में प्रकाशित करना शुरू कर दिया. अमेरिका की गुप्तचर सेवा एफबीआई इस बीच सक्रिय हो चुकी थी इसलिए नौ जून को स्नोडन ने हांगकांग में अपनी पहचान खुद ही सार्वजनिक कर दी. उसे लगा कि ऐसा करने से उसे दुनिया के किसी न किसी देश में शरण जरूर मिल जाएगी. फिलहाल उसे रूस में इस शर्त पर अस्थायी शरण मिली हुई है कि वह रूस से बाहर नहीं जाएगा और कोई नए दस्तावेज किसी को नहीं देगा.

स्नोडन ने अमेरिकी और ब्रिटिश गुप्तचर सेवाओं की गतिविधियों और उनकी मिलीभगत की कलई खोलने वाले दस्तावेजों का जखीरा हथिया लिया है. ब्रिटिश, जर्मन, फ्रांसीसी, इतालवी, स्पेनी और खुद अमेरिकी अखबारों ने खूब चटखारे लेकर उन्हें किस्तों में छापा है और वे अब भी लगातार इन्हें छापे जा रहे हैं. अमेरिका और ब्रिटेन की सरकारें बस दांत पीसकर रह जाती हैं.

घर का भेदी लंका ढाए
अमेरिका और ब्रिटेन अपनी कलई खुल जाने से ढह तो नहीं जाएंगे, पर दुनिया के सामने उनकी ऐसी किरकिरी पहले कभी नहीं हुई थी. ब्रिटिश सरकार ने तो ‘गार्डियन’ और ‘इंडिपेन्डेन्ट’ जैसे समाचारपत्रों को धौंस-धमकी भी दी. 16 अक्टूबर को प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने संसद में कहा, ‘यह एक तथ्य है कि राष्ट्र की सुरक्षा को क्षति पहुंची है. मेरे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के सविनय अनुरोध पर गार्डियन का यह मान लेना कि वह गोपनीय दस्तावेजों को नष्ट कर देगा, इस बात की स्वीकारोक्ति है.’ प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से पहले ब्रिटेन के ‘डेली मेल’ और ‘द सन’ जैसे भारी बिक्री वाले समाचारपत्रों ने भी ‘गार्डियन’ पर हमला बोल दिया था. ‘डेली मेल’ ने लिखा था, ‘गार्डियन’ वह ‘समाचारपत्र है जो हमारे दुश्मनों की मदद कर रहा है.’ बाद में ‘टाइम्स’ और ‘डेली टेलीग्राफ’ ने भी प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाया. यह भी एक असाधारण घटना रही कि ‘गार्डियन’ पर शाब्दिक हमले के बाद अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और स्पेन के सबसे प्रतिष्ठित अखबार उस के बचाव में उतर आए. अपने लिखित वक्तव्यों में उनके प्रधान संपादकों ने एडवर्ड स्नोडन से मिले गोपनीय दस्तावेजों के प्रकाशन को ‘लोकतंत्र की सेवा’ करार दिया.

सहकर्मियों की शामत
इस बीच पता चला है कि लोकतंत्र की इस सेवा के लिए स्नोडन ने अपने देश की सरकार और अपनी कंपनी के साथ ही नहीं, अपने करीब दो दर्जन सहकर्मियों के साथ भी विश्वासघात किया है. शुरुआत जनवरी 2013 में दस्तावेजी फिल्मकार लाओरा पोइत्रास और फरवरी में ‘गार्डियन’ के पत्रकार ग्लेन ग्रीनवाल्ड के साथ गोपनीय मुलाकातों से हुई. इसके बाद ही उसने ‘एनएसए’ के कंप्यूटरों में बंद गोपनीय दस्तावेज़ों को यूएसबी स्टिक पर उतारना शुरू किया. कंप्यूटरों में सेंध लगाने के लिए जरूरी ‘पासवर्ड’ उसने अपने 20 से 25 ऐसे सहकर्मियों से प्राप्त किए जो ‘सिस्टम एडमिनिस्ट्रेटर’ होने के नाते उस पर पूरा विश्वास कर रहे थे. बताया जाता है कि स्नोडेन के ये सभी सहयोगी इस बीच नौकरी से हाथ धो बैठे हैं. ‘एनएसए’ के 61 वर्षों के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है.  और यह भी पहली बार ही हुआ है कि फ्रांस के राष्ट्रपति और जर्मनी के चांसलर जैसे यूरोप के ऐसे सबसे महत्वपूर्ण शीर्ष नेताओं के भी टेलीफोन सुने गए हैं, जो अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैन्य संगठन के प्रमुख स्तंभ हैं. इन देशों की सरकारों द्वारा अपने यहां के अमेरिकी और ब्रिटिश राजदूतों को बुला कर इसका विरोध करना भी पहले कभी नहीं हुआ था. इस जासूसी का आयाम कितना बड़ा एवं अभूतपूर्व है, इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है.

सुरसामुखी जासूसी
स्नोडन द्वारा हथियाए गए दस्तावेजों से पता चला है कि 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद से वहां 16 अलग-अलग जासूसी विभाग और एजेंसियां काम कर रही हैं. इस भारी-भरकम जासूसी तंत्र का मंत्र यह है कि कुछ भी छूटना नहीं चाहिए. उसका बजट एक ही दशक में दोगुना हो गया है– 52 अरब 60 करोड़ डॉलर. तुलना के हिसाब से देखें तो भारत का चालू वर्ष का रक्षा-बजट 37 अरब डॉलर के करीब है. अमेरिकी जासूसी तंत्र में शामिल सीआईए का बजट 14 अरब 70 करोड़ और एनएसए का बजट 10 अरब 30 करोड़ डॉलर है. पूरे तंत्र के कर्मचारियों की कुल संख्या है एक लाख सात हजार.

दुनिया को जोड़ने वाले करीब 200 समुद्री ग्लासफाइबर केबल ब्रिटेन से हो कर जाते हैं. ब्रिटिश गुप्तचर सेवा ‘जीएचक्यू’ (गवर्नमेंट कम्यूनिकेशन हेडक्वार्टर्स)  और अमेरिका की ‘एसएनए’ के साझे कार्यक्रम ‘टेम्पोरा’ के तहत इन केबलों में सेंध लगाकर उन के जरिए होने वाले सारे दूरसंचार को स्वचालित ढंग से रिकॉर्ड किया जाता है. कही या लिखी गई बातें (कॉन्टेन्ट) तीन दिन तक और प्रेषक-ग्राहक फ़ोन या फैक्स नंबर तथा ईमेल-पते जैसी जानकारियां (मेटा डेटा) 30 दिन तक संग्रहीत रहती हैं. इस दौरान एक खास कंप्यूटर प्रोग्राम (सॉफ्टवेयर) ‘बाउंडलेस इन्फॉर्मैन्ट’ की सहायता से उन में छिपी उपयोगी जानकारियां स्वचालित ढंग से छांटी जाती हैं. सबसे अधिक तलाश रहती है मध्य-पूर्व के देशों, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और यूरोप में जर्मनी की तरफ आ-जा रही सूचनाओं की. अकेले जर्मनी संबंधी 50, फ्रांस संबंधी सात और स्पेन संबंधी छह करोड़ इंटरनेट और फोन डेटा हर महीने जमा किए जाते हैं.

imgगूगल और फेसबुक भी लपेटे में
अमेरिका के ‘प्रिज्म’ प्रोग्राम के तहत जो शायद 2007 से चल रहा है, इंटरनेट पर ईमेल, स्काइप चैट, आपसी चैट और फोटो प्रेषण जैसी सेवाओं से मिल सकने वाली जानकारियां जमा की जाती हैं. उन्हें पाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, याहू, एपल, फेसबुक, लिंक्डइन, स्काइप आदि कंपनियों के सर्वर-कंप्यूटरों में सेंध लगा कर घुसपैठ की जाती है. ‘प्रिज्म’ का सॉफ्टवेयर यह तक बता सकता है कि कोई व्यक्ति-विशेष ठीक इस क्षण अपने किस ईमेल या चैट-एकाउंट को खोल रहा है. ‘क्लाउड कंप्यूटिंग’ (किसी दूरस्थ कंप्यूटर में अपना डेटा रखना) को चीन से पहले अमेरिका ने ही असुरक्षित बना दिया है. औद्योगिक जगत इससे सबसे ज्यादा चिंतित है.

जर्मन चांसलर अंगेला मेर्कल सहित विश्व के 35 प्रमुख राजनेताओं के टेलीफोन वर्षों से सुने जा रहे हैं. बर्लिन स्थित अमेरिकी दूतावास में तैनात ‘स्पेशल कलेक्शन सर्विस’ (एससीएस) नाम की एक विशेष टीम चांसलर मेर्कल का मोबाइल फोन संभवतः पांच वर्षों से सुन रही थी. दूतावास भवन जर्मन संसद और चांसलर भवन से मुश्किल से आठ सौ मीटर ही दूर है. समझा जाता है कि संसार के लगभग सभी महत्वपूर्ण देशों के अमेरिकी दूतावासों में ‘एससीएस’ के कर्मी अपने उपकरणों के साथ सक्रिय हैं. भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस जाल में फंसने से बच गए, क्योंकि वे मोबाइल फोन इस्तेमाल ही नहीं करते.

राजनेताओं के ईमेल और टेलीफोन हफ्तों और कई बार महीनों संग्रहीत रहते हैं. ‘एनएसए’ के मुख्यालय में सैकड़ों कर्मचारी उन्हें पढ़ने, सुनने, उनका अनुवाद और विश्लेषण करने का काम करते हैं. बाद में उन्हें अमेरिकी विदेश, वित्त या रक्षा मंत्रालय अथवा सीआईए, एफबीआई जैसी गुप्तचर संस्थाओं या राष्ट्रपति के अधीनस्थ राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के पास भेज दिया जाता है. ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ का कहना है कि राष्ट्रपति ओबामा को पांच वर्षों तक पता नहीं था कि विदेशी राजनेताओं की भी जासूसी की जा रही है. न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय, वॉशिंगटन में भारत, फ्रांस, जापान, इटली, यूनान, मेक्सिको आिद 38 देशों के दूतावास और ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ का मुख्यालय भी ‘एनएसए’ की जासूसी के शिकार हैं. जिन देशों की जासूसी में अमेरिका को सबसे अधिक रुचि है, उनमें भारत को पांचवें नंबर पर बताया जा रहा है.

जासूसी का भूत
इसमें कोई संदेह नहीं कि अमेरिका और ब्रिटेन के सिर पर विश्वव्यापी जासूसी का भूत सवार है. दोनों देश इस पर अंधाधुंध पैसा बहा रहे हैं. लेकिन, सच यह भी है कि दुनिया के सभी देश एक-दूसरे की जासूसी करते हैं. दरअसल सब ही राजनीतिक, औद्योगिक या आतंकवादी आशंकाओं से पीड़ित हैं और जानना चाहते हैं कि कौन कितने पानी में है. जहां तक आतंकवाद से लड़ने की बात है तो ‘एनएसए’ के प्रमुख कीथ अलेक्जैंडर ने अमेरिका की एक संसदीय जांच समिति से अक्टूबर में कहा कि उनकी संस्था की सक्रियता का ही फल है कि सितंबर 2001 के बाद से अमेरिका में कोई बड़ी आतंकवादी घटना नहीं हुई है. उनकी संस्था द्वारा दी गई जानकारियां दूसरे देशों में तीन दर्जन इस्लामी आतंकवादी हमलों को विफल बनाने में काम आईं. जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के प्रमुख ने भी सितंबर में स्वीकार किया था कि अमेरिका से मिली सूचनाओं के आधार पर जर्मनी में कम से कम आठ आतंकवादी हमलों को समय रहते विफल कर दिया गया.भारत को भी इस तरह की सूचनाएं मिलती रही हैं. भारतीय अधिकारियों को  तो अमेरिका में प्रशिक्षण भी मिलता है.

इसी तरह, सच्चाई यह भी है कि जर्मनी और फ्रांस जैसे यूरोप के जो देश आज अमेरिका और ब्रिटेन की असीमित जासूसी पर भौंहें टेढ़ी कर रहे हैं वे कल तक एक दूसरा ही राग अलाप रहे थे. वे खुद भी दूध के धुले नहीं हैं. विश्वव्यापी जासूसी के गोरखधंधे में वे भी अमेरिका और ब्रिटेन के घनिष्ठ सहयोगी रहे हैं, और अब भी हैं.

इसीलिए, ब्रिटेन व अमेरिका को नीचा दिखाने वाले एडवर्ड स्नोडन के जयजयकारी इस बीच खुद भी सकते में आ गए हैं. स्नोडन के दस्तावेजों से उनकी अपनी सरकारों की करतूतों का भी कच्चा चिट्ठा खुल गया है. इन दस्तावेजों के आधार पर ‘गार्डियन’ ने नवंबर की शुरुआत  में उजागर किया कि ग्लासफाइबर वाले केबलों में सेंध लगा कर टेलीफोन और इंटरनेट दूरसंचार पर जो निगरानी रखी जाती है, उसकी तकनीकी विधि ब्रिटेन के ‘जीसीएचक्यू’ ने जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और स्वीडन की गुप्तचर सेवाओं के सहयोग से तैयार की है. ‘जीसीएचक्यू’ ने इन देशों की गुप्तचर सेवाओं को बताया कि वे संचार लाइनों की निगरानी संबंधी अपने देशों के कड़े नियमों की काट किस तरह निकाल सकती हैं. जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के बारे में ‘जीसीएचक्यू’ की टिप्पणी थी, ‘जर्मनी के निगरानी नियमों को बदलने या उनकी नई व्याख्या करने के बीएनडी प्रयासों में हमने उसे मदद दी.’

स्नोडन से मिले दस्तावेजों के आधार पर अमेरिकी पत्र ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ ने लिखा कि स्पेन और फ्रांस के नागरिकों के टेलीफोन उनकी अपनी ही गुप्तचर सेवाएं सुनती और ‘एनएसए’ को दिया करती थीं. यही बात ‘एनएसए’ के प्रमुख कीथ अलेक्जैंडर ने भी अमेरिका की संसदीय जांच समिति के सामने कही थी. उन्होंने कहा था कि ‘ये सूचनाएं हमने और हमारे सभी नाटो-मित्रों ने हम सभी देशों की सुरक्षा और सैनिक कार्रवाइयों में मदद के लिए जुटाईं.’  अलेक्जैंडर ने इस सुनवाई में यह भी कहा कि यूरोपीय देश भी अमेरिका में जासूसी करते हैं.

हैकिंग का कानूनी अधिकार
नवंबर के आरंभ में ‘गार्डियन’ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश ‘जीसीएचक्यू’ की नजर में फ्रांस की गुप्तचर सेवा ‘डीजीएसई’ भी सहयोग एवं आदान-प्रदान के लिए भारी तत्परता’ दिखाती है. जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के बारे में पहले से ही पता था कि उसके पास जर्मनी के भीतर इंटरनेट संचार के प्रमुख केंद्रों में घुसपैठ करने की कानूनी सुविधा है. उसे कानूनी अधिकार है कि वह विदेशों के साथ 20 प्रतिशत दूरसंचार की जांच-परख किया करे. कौन जान सकता है कि जांच-परख के नाम पर बीनएडी के भेदिये कब क्या कर रहे हैं और वे 20 प्रतिशत तक ही सीमित रहते हैं या इससे आगे भी जाते हैं.

जर्मन पत्रिका ‘डेयर श्पीगल’ ने जुलाई में रहस्योद्घाटन किया था कि जर्मनी की गुप्तचर सेवाएं अमेरिका की ‘एनएसए’ के जासूसी तौर-तरीकों और साधनों की सबसे उत्साही अनुगामी हैं. ‘एनएसए’ के अधिकारी बीएनडी को अपना अहम सहयोगी मानते रहे हैं. अमेरिकी सरकार जर्मनी के साथ जासूसी सहयोग को बढ़ाने में भारी दिलचस्पी रखती है. इसीलिए उसने जर्मनी की घरेलू गुप्तचर सेवा ‘संघीय संविधान सुरक्षा कार्यालय’को ‘एक्सकीस्कोर’ जैसा आधुनिक सॉफ्टवेयर तक दिया, जिससे कंप्यूटर हार्ड डिस्क जैसे कई प्रकार के डेटा-धारकों का तेजी से अध्ययन किया जा सकता है. ‘एनएसए’ के जनवरी 2013 के एक दस्तावेज में जर्मन सरकार की इस बात के लिए सराहना की गई है कि उसने ‘जी-10 कहलाने वाले कानून की व्याख्या में संशोधन किया है, ताकि गोपनीय किस्म की सूचनाएं अपने विदेशी सहयोगियों को भी देना बीएनडी के लिए आसान हो जाए.’

शिकार ही शिकारी भी
यानी यूरोप के जो देश अपने आप को अमेरिका और ब्रिटने के जासूसी हमले का शिकार बता कर आज विलाप कर रहे हैं, वे स्वयं भी कुछ कम शिकारी नहीं रहे हैं. यूरोप के लगभग सभी देशों के सभी नागरिक जानते हैं कि उनकी अपनी ही लोकतांत्रिक सरकारें हजार तरह से उनकी रग-रग पर नजर रखे हुए हैं. अब अमेरिका और ब्रिटेन भी यदि उन पर नजर रखने लगे हैं तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा?  इसी वजह से जनसाधारण के स्तर पर वैसी कोई खलबली नहीं दिखाई पड़ती, जैसी राजनीतिक मंचों पर हो रही नौटंकी में दिखाई पड़ती है. लोग यह भी कहते हैं कि इस सारी जासूसी से डरे वह जो कोई गलत काम कर रहा है. जो साफ-सुथरा है, वह भला हाय-तौबा क्यों मचाए?

जनता जितनी शांत है, नेता उतने ही अशांत हैं. अमेरिका की मुखर आलोचक जर्मनी की पर्यावरणवादी ग्रीन पार्टी कुछ ज्यादा ही अशांत है. उसके एक सांसद हान्स क्रिस्टियान श्ट्रौएबले एक टेलीविजन पत्रकार के साथ अक्टूबर के अंत में गुपचुप अचानक मॉस्को पहुंच गए. 31 अक्टूबर को वे एडवर्ड स्नोडन से मिले और उसी शाम बर्लिन वापस लौट कर घोषणा की कि यदि स्नोडन को किसी तरह की आंच नहीं पहुंचे, तो ‘वह बर्लिन आने या मॉस्को में ही प्रश्नों के जवाब देने के लिए तैयार है.’ श्ट्रौएबले ने जर्मन सरकार के नाम स्नोडन का लिखा एक पत्र भी दिखाया, जिस में उसने जर्मनी से बातचीत करने के प्रति सहमति जताई है.

जर्मन सरकार धर्मसंकट में
जर्मनी में अमेरिकी जासूसी के आयाम और खुद जर्मन गुप्तचर सेवाओं की भूमिका का पता लगाने के लिए एक संसदीय जांच समिति गठित करने की बात चल रही थी. श्ट्रौएबले शायद सोच रहे थे कि वे मॉस्को में स्नोडन से अपनी गुप्त मुलाकात के माध्यम से इस जांच का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं. लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. जर्मन सरकार धर्मसंकट में पड़ गई है. वह एक ऐसे व्यक्ति से बात कैसे करे जिसने जर्मनी के परम मित्र अमेरिका के साथ विश्वासघात किया है? जिसके नाम अमेरिका ने गिरफ्तारी और प्रत्यर्पण का विधिवत आवेदन किया है? और, जिसने  अब तक की गोपनीयताओं पर से पर्दा उठा कर स्वयं जर्मन गुप्तचर सेवाओं के मुंह पर भी कालिख पोती है?

स्नोडन की अमेरिकी नागरिकता छिन गई है. उसके पास कोई पासपोर्ट नहीं है. उसे रूस में इस शर्त पर शरण मिली है (और वह भी एक साल के लिए) कि रूसी भूमि छोड़ते ही उस की शरण निरस्त हो जाएगी. ऐसे में उस का जर्मनी आना तभी संभव है, जब जर्मनी या उसकी पसंद का कोई दूसरा देश उसे शरण दे और अमेरिका से पंगा मोल ले. कौन करेगा यह सब?  1948 में रूसी नाकेबंदी से घिरे उस समय के पश्चिमी बर्लिन की रक्षा से लेकर 1990 में विभाजित जर्मनी का एकीकरण संभव बनाने तक अमेरिका के जर्मनी पर इतने सारे उपकार हैं कि वह तो अमेरिका को ललकारने की सोच भी नहीं सकता. और वह ऐसा करे तो विश्व महाशक्ति अमेरिका भी उसके कान ऐंठने का साहस दिखा सकता है.

जर्मन सरकार के नाम अपने पत्र में स्नोडन ने लिखा है, ‘सच बोलना कोई अपराध तो नहीं है.’ उसने गंभीरता से नहीं सोचा कि सच बोलना अपराध तो नहीं है, पर आफत को न्यौता देना तो हो ही सकता है. एक ऐसा सच, जिससे देशद्रोह और विश्वासघात की गंध आती हो, उसे सम्मान दे कर अपने यहां भी उसके अनुकरण का जोखिम उठाना भला कौन-सा देश चाहेगा? स्नोडन ने भारत से भी शरण मांगी थी. शायद इसीलिए भारत ने भी कान में तेल डाल लिया. हर देश के पास जासूसी संस्थाएं हैं. हर देश अपने जासूसों से यही अपेक्षा रखता है कि वे संखिया जहर खा लेंगे, पर मुंह नहीं खोलेंगे.

(लेखक जर्मन रेडियो डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के प्रमुख रह चुके हैं)