जान जोखिम में डालकर चल रहे यात्री

उत्तर प्रदेश देश में नंबर वन के बड़े-बड़े होर्डिंग-पोस्टर हमारे शहर में ख़ूब लगे हैं। एक चाय की दुकान के पास ही सडक़ किनारे लगा एक होर्डिंग दूर से दिखायी देता है, तो चाय की दुकान पर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अख़बार के पन्ने पलटते-पलटते दो-तीन बुद्धिजीवी बड़ी गम्भीरता से पूछने की मंशा से तंज भरे लहज़े में कहते हैं कि किस बात में यूपी नंबर वन है? एक बुद्धिजीवी झट से कहते हैं- अगलई-पगलई में। एक सनकी, वॉट लगी सबकी। कुछ लोगों की हँसी छूट जाती है। इतने में ठट-ठट, ठठर-ठठर की आवाज़ करता एक डग्गामार वाहन (जिसमें जुगाड़ से अधिक सवारियाँ भरने का इंतज़ाम किया जाता है।) गुज़रता है, जिसमें चार सवारी बाहर की ओर लटककर खड़ी होती हैं और अन्दर खचाखच सवारियाँ भरी होती हैं। यह हमेशा की कहानी है और त्योहारों के सीजन में स्थिति और भी ख़राब हो जाती है। बेख़ौफ़ डग्गामार वाहनों के मालिक, चालक (ड्राइवर) और सह-संचालक (कंडक्टर) ट्रैफिक सुधार में लगी पुलिस से हाथ मिलाते कई बार दिखते हैं।

इसमें ताज़्ज़ुब की कोई बात नहीं; क्योंकि यह रोज़ का काम है। डग्गामार वाहन की प्रदूषण जाँच करायी हो या नहीं, वाहन के काग़ज़ पूरे हों या नहीं, पथ कर (रोड टैक्स) जमा हो या नहीं, गाड़ी का बीमा हो या नहीं, आठ सवारियों से ज़्यादा लेकर चलने की अनुमति (परमीशन) से भी कोई मतलब नहीं, बस पुलिस तक लाल पत्ती के चार-पाँच नोट महीने-दर-महीने जाने चाहिए, फिर चाहे कोई वाहन चालक 16 सवारियाँ भरे या 20-22 कोई दिक़्क़त नहीं। तेज़ गति में वाहन चलते रहेंगे और काली कमायी में बँटवारा होता रहेगा। शहर से ज़िले के तक़रीबन हर गाँव, क़स्बे में इन डग्गामारों का फेरा दिन भर होता है और जिन लोगों के पास चलने का कोई संसाधन नहीं है, वो लोग अपनी जान जोखिम में डालकर इनमें मुर्गियों की तरह भरकर चलना अपनी मजबूरी समझते हैं। कई बार सडक़ पर दुर्घटना का शिकार हुए लोगों में से बहुतों ने अपनी जान गँवायी है, तो बहुत-से लोग अपाहिज तक हुए हैं।

क्या कहते हैं दुर्घटना मामलों के जानकार?

दुर्घटना मामलों के जानकार वकीलों का कहना है कि डग्गामार वाहनों से अगर कोई दुर्घटना होती है, तो उसमें कई समस्याएँ आती हैं। पहली तो यह कि सडक़ दुर्घटना का मुक़दमा करने से पहले ही पुलिस मामले को पीडि़तों को नाम मात्र का मुआवज़ा दिलाकर और उन पर दबाव बनाकर मामले को रफ़ा-दफ़ा कर देती है। अगर गलती से कोई पीडि़त अथवा मरने वाले के परिजन मुक़दमा कर देते हैं, तो पुलिस की रिपोर्ट, गवाहों की कमी और वाहन के ख़िलाफ़ कोई रिपोर्ट न होने के कारण पीडि़तों को मुआवज़ा और दोषियों को सज़ा, दोनों नहीं मिलते या फिर एक ही काम हो पाता है। दूसरी बात यह कि डग्गामार वाहनों में अनुमति से ज़्यादा भरी सवारियों के चलते सबका दावा (क्लेम) न्यायालय मान्य नहीं कर पाता, क्योंकि बीमा कम्पनियाँ इसे देने से मना कर देती हैं। कई वाहनों का बीमा न होने के चलते भी मुक़दमा लडऩे में दिक़्क़त आती है।

ऐसे में अगर पुलिस ने ही वाहन मालिक को दोषी ठहरा दिया, तो थोड़ा-बहुत मुआवज़ा पीडि़तों को मिल जाता है; अन्यथा मालिकों की इतनी पहुँच तो होती ही है कि वे अपने वाहन चालकों को थाने में ही दोषी क़रार दिलवाकर उन्हें जेल भिजवा देते हैं और ख़ुद बच जाते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि कोई परेशानी बताकर चालक की जमानत तो हो ही जाएगी। लेकिन मुक़दमा करने के बाद पीडि़तों को मुआवज़ा मिलने में काफ़ी लम्बा समय लग जाता है।

सहूलियत के चक्कर में जोखिम

जिन गाँवों तथा क़स्बों से लोग अधिकतर शहर जाते हैं, उन्हें रोडवेज या दूसरी बसों की अपेक्षा डग्गामार वाहन आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। इसे सवारियाँ सहूलियत समझती हैं। इसके अलावा उन्हें मुख्य रोड तक जाने में लगने वाले किराये और फिर रोडवेज में लगने वाले किराये से कुछ कम किराया इन डग्गामार वाहनों का पड़ता है। इसी वजह से लोग डग्गामार वाहनों में बैठ जाते हैं और अपनी जान जोखिम में डालकर बिना सुरक्षा का सफ़र करते रहते हैं। डग्गामार वाहन चालक ठूँस-ठूँसकर सवारियाँ भरते हैं। पुलिस कुछ कहने से रही; क्योंकि उसे महीना चाहिए। आरटीओ दफ़्तर भी इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता। महीने, दो-महीने में कहीं अगर आरटीओ अधिकारी की गाड़ी जाँच (चेकिंग) पर खड़ी है, तो समझ लीजिए कि वह भी अपनी भूख मिटाने आया है और शाम तक डकार न मार पाने लायक पेट भरकर महीने भर तक आराम से दफ़्तर की कुर्सी तोड़ेगा। पूरे ज़िले में डग्गामार वाहनों की गिनती अगर की जाए, तो सैकड़ों निकलेंगे। इसके चलते डग्गामार वाहन चालक और सह चालक बेख़ौफ़ होकर रहते हैं और एक दबंग गैंग की तरह किसी से भी भिडऩे को तैयार रहते हैं।

सवारियों से खींचतान

डग्गामार वाहनों के चालक और सह चालक सवारियों के दिखते ही उन्हें हाथ पकडक़र जबरन अपने वाहन में बैठाते हैं। कई बार दो वाहन चालक और सह चालक अपने अपने वाहन की तरफ़ सवारियों को खींचते हैं, जिसके चलते उनमें आपस में भी झगड़ा हो जाता है। सवारी अगर एक डग्गामार में बैठ गयी अथवा उसका सामान चालक और सह चालक ने अपने वाहन में रख लिया, तो फिर सवारी दूसरे वाहन में जल्द जा नहीं सकती। अगर सवारी ने इसकी ज़िद की, तो उससे बदतमीजी करना इन डग्गामार चालकों, सह चालकों का काम है। इसमें पुलिस भी कुछ नहीं करती। हाल यह है कि अगर डग्गामार के चालक अथवा सह चालक ने सवारी को खड़ा कर दिया, तो भी वह दूसरे वाहन में जाने की ज़िद नहीं कर सकती, जब तक कि वह भी मज़बूत न हो। इन वाहनों की जो गति होती है, उससे सवारियाँ इधर-उधर होती रहती हैं; पर इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। बच्चों तक को वाहनों में थोड़े से सहारे से टिकाकर खड़ा किया जाता है।

हर ज़िले की यही कहानी

यह पक्की ख़बर है कि पूरे राज्य मे डग्गामार वाहन गति में दौड़ते हैं। कई ज़िलों में जाकर देखने पर पता चलता है कि लगभग हर ज़िले में डग्गामार वाहनों की भरमार है। बड़ी बात यह है कि इन डग्गामार वाहनों के जो मालिक हैं, वो नये लोगों को अपने इस काम-धन्धे में घुसने नहीं देते। अगर कोई नया व्यक्ति वाहन लेकर सडक़ पर चलाने की सोचे, तो उसकी पुलिस और प्रशासन में अच्छी पकड़ होनी ज़रूरी है। मगर अगर किसी ने वाहन को नियम से चलाने की कोशिश की, तो नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर चलने वाले वाहन चालक उसे ऐसा नहीं करने देंगे।

सरकार को लग रहा चूना

डग्गामार वाहनों के मालिक केवल वाहन का रोड टैक्स ही भरते हैं। सवारियों को टिकिट देने का चक्कर नहीं रखते और न ही उनसे हो रही कमायी से कोई अतिरिक्त कर भरते हैं। उनका बहुत छोटा कर काली कमायी करने के एवज़ में रिश्वत के रूप में पुलिस और आरटीओ अधिकारियों की जेबें गरम करने भर को भरा जाता है। सच तो यह है कि इन डग्गामार वाहनों के चलते उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग को हर रोज़ लाखों रुपये का चूना लगता है। इतने पर भी न तो सरकार इस मामले में कुछ करती है और न प्रशासिनक अधिकारी। अगर कभी इन डग्गामार वाहनों पर कार्रवाई के आदेश कभी ऊपर से आते हैं, तो पुलिस और आरटीओ विभाग केवल खानापूर्ति करके उसका पालन नहीं करते। कुछ जगह एआरटीओ अधिकारी सख़्त हो, तो वहाँ चोरी-छिपे वाहन सडक़ों पर दौड़ते हैं। अगर कहीं आरटीओ अधिकारी चेकिंग के लिए खड़ा होता भी है, तो डग्गामार वाहन चालक बड़ी होशियारी से मेन रोड से बचाकर वाहन चला ले जाते हैं।

लडऩे को तैयार

डग्गामार वाहनों के मालिक और उनके चालकों, सह चालकों से जब यह पूछो कि वे नियमों की धज्जियाँ क्यों उड़ाते हैं, तो उनके तन-बदन में आग लग जाती है और लडऩे को तैयार हो जाते हैं। अगर कोई जान-पहचान का हो, तो वह अपना दर्द पहले बताता है। एक डग्गामार वाहन चालक का दर्द इसी तरह फूटा, जो कहता है कि आपको नहीं मालूम, अगर हम नियम के हिसाब से केवल आठ सवारियाँ भरकर चलें, तो जेब से पैसा लगाना पड़ेगा और साल भर में वाहन बिक जाएगा। उसका कहना है कि जितना ईंधन गाड़ी खाती है, उतनी ही क़ीमत पुलिस और आरटीओ विभाग खा जाते हैं। हम ईमानदारी से चलें या नियमों को तोडक़र उन्हें इससे कोई मतलब नहीं, उन्हें तो महीना चाहिए। अगर महीना नहीं देंगे, तो रोड पर नहीं चल सकते।

महामारी का ख़ौफ़ नहीं

इन डग्गामार वाहनों में ठूँस-ठूँसकर भरी सवारियों को देखकर लगता है कि अब लोगों में कोरोना महामारी का ख़ौफ़ नहीं रहा। क्योंकि न तो अधिकतर लोग ही ठीक से मास्क लगाना चाहते हैं और न वे सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) का पालन कर रहे हैं। रक्षाबन्धन और जन्माष्टमी के त्योहारों पर तो बाज़ारों और वाहनों में इतनी भीड़ जुट रही है कि ऐसा लगता है जैसे कोरोना नाम की कोई महामारी कभी थी ही नहीं। लोग यह भी भूल गये कि अभी कुछ महीने पहले ही हर शहर, हर गाँव और हर क़स्बे से लाशें उठी हैं। पुलिस और सरकार इसे भी अनदेखा कर रही है।