जमाल की जान

तीन पाए का पलंग-एक पाए को तो दीमकों ने चाट लिया- जमाल चुपचाप लेटा हुआ था। उसे बेहद चिंता हो रही थी। न जाने क्यों खड़ा नहीं हो पा रहा था। उसकी उंगलियां ऊपर और नीचे हो रही थीं। उसके दिमाग में उसका कसा हुआ शरीर घूम रहा था। नहीं! वह तो आसपास है भी नहीं। लेकिन एक बार वह कितने दिन साथ रही। बहुत साफ कहें तो हर सुबह की शुरूआत से जुलाई के आधे महीने तक। यही वह आखिरी दौर था जब वे मिले।

गजब! वह बड़बड़ाया। अलग होने के भी अजब तरीके। अचानक हुई शुरूआत के बाद फिर अकेले हो जाने का भय। उसने आयताकार कमरे में चारों ओर देखा। फर्श पर तिलचट्टे दौड़ रहे थे और चारों ओर मच्छर अपनी तान छेड़े हुए थे। कोई भी और प्राणी नहीं था। सिवा उसके।

अच्छा होता खड़ा न होने के सूरत में उसने कभी इंसान की शक्ल ली ही नहीं होती। आखिर क्यों कोई इस पुराने तालुकेदार से अपना दोस्ताना बढ़ाता जिसके पास न धन-दौलत है बस अकड़ है।

वह अपने बाप-दादाओं की हवेली में ही, संयुक्त परिवार के घेरे के एक कोने में सिमट गया होता। लेकिन उसने चाहा कि वह खुद को दकियानूसी झमेलों से आजाद कर ले। उसने खेती की ओर ध्यान दिया खास तौर पर ‘आर्गेनिकÓ खेती की ओर।

लेकिन फसल चौपट हो गई। प्रदूषण के चलते आबोहवा बदली और बीजों और मिट्टी को खासा नुकसान पहुंचा। एक ही जगह वह कामयाब हो पाया वह भी उस औरत के साथ जिसे उसने अपना खाना बनाने के लिए रखा था।

अचानक एक दिन बस स्टैंड की कैंटीन में उसकी नज़र उस पर पड़ी। वह वहां चने की एक कटोरी दाल लेने गया था। उसके हाथ में एक प्लेट भात था। उसने उससे यूं ही पूछ लिया कि क्या वह उसके लिए किसी की तलाश कर सकती है जो उसके लिए दाल, चावल, रोटी बना सके।

वह पहले तो उसे एकटक देखती रही। फिर उसने सिर हिलाया। उसने कहा, सुबह यहां आने के पहले वह उसके यहां खाना बनाने आ सकती है। कुछ भी मुफ्त मेें नहीं मिलता। उसने कहा, हर महीने दो हज़ार रु पए से कम नहीं। रसोई का काम करके जिंदा तो रहना ही होगा।

न तो उसने अपना नाम बताया और न सरनेम। उसने अपने घर-परिवार के बारे में भी कुछ नहीं बताया। कोई फालतू की बात नहीं। कैंटीन में मौजूद तमाम तरह के फालतू लोग यह बातचीत बड़े गौर से सुन रहे थे। लिखो, अपना पता लिख दो इस चिट पर। मुझे उस तरफ गुसलखाने की ओर जाना है।

दूसरी सुबह दरवाजा पीटा जाने लगा। जमाल उठ बैठा। वह सन्न सा बैठ गया। आखिर इतनी सुबह उसके दरवाजे पर कौन हो सकता है। इतनी सुबह कौन हो सकता है वह भी इतनी व्यस्त मोहल्ले की गहराइयां में?

उसके दरवाजे पर वह खड़ी थी। काफी कमजोर, थकी हुई। उसके शरीर पर सूती साड़ी और ब्लाउज अपने कसाव में बांधे थे। वह तेज सांस ले रही थी जिससे उसके पल्लू के भीतर लग रहा था, दो जीवित वस्तुएं सांस सा ले रही हैं। थोड़ा हिचकचाया सा,वह यह समझ नहीं पा रहा था कि वह बातचीत किस तरह शुरू करें। आखिरकार उसी ने तो उसे खाना पकाने के लिए किराए पर रखा था और अब उसकी ललक बढ़ती जा रही थी और, थोड़ा और के लिए।

उसने अपना पल्लू सीने पर फैलाने की कोशिश की। लेकिन उसके स्तन विद्रोह करने पर आमादा थे। या फिर उसे ऐसा लगा। या उसने ऐसी कल्पना की। या वह यही चाहता था।

उसने उससे रूटीन के सवाल पूछे मसलन वह कहां रहती है और किसके साथ है।

लेकिन वह ब्यौरे में नहीं गई। उतना ही जितने का उसके काम से मतलब था – वह अलसुबह यानी पौ फटने ही आ जाया करेगी। उसके बाद वह कैंटीन चली जाएगी जहां रसोइए की नौकरी उसे मिली है।

दिन भर के काम पर उसके जाने के पहले उसने उससे अपने लिए और उसके लिए चाय बनाने को कहा। रसोई घर बाकायदा नहीं था। किसी तरह बंदोबस्त किया गया था। पत्थर के फर्श पर गैस का स्टोव था। पास ही एक आलमारी थी जिस पर जार थे। उनमेें वह सारा सामान था जो अमूमन हर भारतीय रसोईघर में मिलते ही हैं। यानी दालें, आटा, चपाती, चावल, चीनी, नमक, चाय, मेथी, हल्दी और बेसन। कोई लाल या हरी मिर्च भी नहीं थी जो उसकी आंतों के लिए ठीक न होती।

उसने सिर हिलाया और गैस स्टोव पर भगौया रख दिया। उसके स्तन उसके बेतरतीब ब्लाइज से बाहर झांकने से लगे। वह शायद कुछ सामान लेने के लिए उठने लगी तो लडख़ड़ा गई। इसके पहले उसका सिर चोट खाता। उसने उसे कमर से पकड़ लिया। उसे शायद उसका पूर्वाभास था या वह सतर्क था पर वह खुद पर काबू नहीं रख पाया। उसके हाथ बेकाबू होकर उसके ऊपर-नीचे, उठते-गिरते स्तनों पर थे। उसकी जीभ उसकी मुंह में जीभ पर थी। दोनों उस तीन पाए के पलंग पर जा बैठे। थोड़े ही पहल की ज़रूरत थी। थोड़ा ही धक्का देना या खींचना, थोड़ा बहुत प्रतिरोध उनके बीच हुआ। लेकिन दोनों की इच्छा तो थी।

इस वाकए पर वह अचंभित था। शायद उसे लगा वह चीखेगी या शोर मचाएगी। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। वह चीखी तक नहीं। मगर सुबकी ज़रूर। यह उसके चाहने सा था। वे हर बार वह गहराई तक जाता और उस दौरान चेहरे पर अपनी नजर गड़ाए रहता। वह बहुत आकर्षक नहीं थी लेकिन सादी थी। वह बहुत ही साधारणा मेकप रखती। काजल की एक रेखा, गले और स्तनों पर क्रीम लगाती। शायद शरीर से दुर्गध रोकने के लिए। पसीना ऊपर से नीचे बहता रहता। उन सुबहों में, एक सुबह उसने उसे कुछ इस तरह देखा मानो कि वह बोल उठी कि क्या वह उसके मुंह में जाना चाहता है।

दरअसल उसकी उत्तेजना में यही चाहत रही हो जिसके चलते वह पगला सा जाता था। वह उसके चेहरे पर जमी अपनी निगाहें कभी हटाना नहीं चाहता था। धरातल पर वह तेज लगती थी। और हर बार वह उसमें होता। वह उसके सहज उसके चारों ओर होती, उसे घेरे रखती उसे वह उतने ही जंगली तरीके से प्यार भी करती। लगभग एक फिसलने वाली जगह में लगभग अदला-बदली कर। उसे अंंदर सरकने देना और फिर बाहर, यहां वहां और उसके पांव कहां-कहां। फिर उसे वह जाने न देती उस पर उसके पांव होते। वह पीठ के बल होता और वह जताती रहती प्यार।

हर सुबह जब वह दिन में निकल जाती तो वह बैठा सोचता रहता। यह क्या साधारण सी दिखने वाली यह प्राणी इतने बेपनाह तरीके से उसे चाहती है। क्या उसे इस तरह से उन्मत्त तरीके से उससे प्यार करते रहना चाहिए। ऐसे ही दिन बीतते जाएंगे। क्या ये संबंध बने रहेंगे बिना उन क्षणों के जब अलसुबह वह खड़ा न हो पाता। लेकिन खेल थमता नहीं जारी रहता। तमाम तरह की आह, ओह और हल्की बड़ाबड़ाहट के साथ। वह उससे और कितना चाहेगी। उसके पास जो कुछ भी था वह उसे सौंप ही रहा था। अपना पुरूषत्व।

वह लगभग दो दशक बाद प्यार कर रहा था। उसकी काफी पहले शादी हुई थी लेकिन वह नहीं चली। उसका सामना उस औरत से हुआ जिसके मन में यह डर बैठा था कि उसके शरीर से कई तरह के विषाणु प्रवेश कर जाएंगे- एचआईवी हों या टीबी या वीडी या फिर एसटीडी। एक मिला-जुला अभियान जाने ले लेने को। वह चीखती ‘कंडोमÓ ज़रूरी हैं। कंडोम बेहद ज़रूरी है। हर बार आधीरात में वह चीखती। उसकी मां ने उसे नौ महीने भी वक्त दिया था जिसमें वह पहले पोते का मुंह देखना चाहती थी। इस अनोखी और अजीब सी बनी इस जोड़ी में उसका उत्साह महज एक सप्ताह तक रहा। यह शादी बमुश्किल चार सप्ताह रह पाई। और इसके पहले कि वह इस असंगत मेेल को ज्वार सा उठते बढ़ते महसूस करता। वह खत्म हो गया। निराशा में वह उन कंडोम को खींचता रहता। उनमें छेद करता रहता। ‘यह करके मुझे अपनी मां और पत्नी को संतुष्ट करने का आनंद मिलता।Ó यह तो अच्छा था कि उसके पास ढेरों कंडोम (निरोध) नहीं थे। फिर शादी ही ‘पंचरÓ हो गई थी। तलाक का मामला घिसटता रहा। उसमें कई तरह की शाखा-प्रशाखाएं भी फूटीं। वह भी खुद पर की गई टिप्पणियों से नहीं बचा जो उस पर किए गए थे। उसमें और उसके खानदान के बीच की दूरियां और बढ़ गई। वह एक ऐसे खोल में सिमट गया जहां कोई उसका कोई अपना नहीं जिससे वह दोस्ती कर सके।

ऐसा नहीं है कि वह हमेशा बाहर की मस्त रहता था। वह एक अक्षत यौवन थी। जिससे उसने शादी की। उसके पहले उसने अपने किशोर सालों में कभी किसी संबंधी का हाथ अपने हाथ में नहीं लिया था। अभी भी वह खाका उसके दिमाग में कौंधा करता है। एक धुंधली सी याददाश्त जब वह एक बच्ची थी और वह किशोर था। वह जल्दी ही अवध के किसी और शहर में चली गई थी।

ज़रूरी संसाधनों के अभाव में जमाल में सेक्स की इच्छा बस हस्तमैथुन तक सिमट गई थीं। तभी अचानक यह सुंदरी, एक तोहफे सी उसके हाथ लग गई।

वह हर सुबह आती। वे पहले घंटों प्यार करते। सेक्सुअल इच्छा थोड़ी बहुत तब भी पूरी होती चावल, तरकारी और दाल पकने के लिए जब पतीलों, हांडियों और देगची में चढ़ानी होती। वह दोपहर तक ज़रूर निकल जाती। हर दिन एक रहस्य ज़रूर छोड़ जाती। वह कभी ज़रूरत से ज्य़ादा कभी कुछ न कहती। वह उतना ही बोलती जितना उसे बोलना होता। उसने कभी न तो अपना नाम बताया और न यह बताया कि वह कहां से आती है। न उत्तेजना में उसने कभी यही कहती कि क्यों वह उसके जबरिया प्यार को झेल रही है। बल्कि वह उतनी ऊर्जा से उसे प्यार करती जितना उसने सपने में कभी सोचा हो। कभी तो उसका उत्साह उसके अपने दिमाग में हमेशा घूमती टहलती फिर अपनी सोच के साथ गति लेता। वह बैठ जाता और तुलना करता, उसकी एक ज़माने मेंंं उसकी एकमात्र पत्नी कितना ठंडापन था बनिस्बित इस औरत में गरमाहट के। वह कितनी गर्मजोशी से उसे बाहों में लेती थी। उसके मुंह की लार उसके मुंह में आ जाती थी। वह टांगों को थोड़ा चौड़ा करती। उसकी उंगलियां उसकी जांघों पर थिरकतीं हुई उसे उन ऊँ चाइयों पर ले जातीं कि वह बता नहीं सकता। वह जब दिन में अपने काम पर जाती तो उसमें दरवाजा बंद कर लेने भर की भी ताकत नहीं होती थी। वह घंटों एक ही मुद्रा में लेटा रहता… इंतजार करता दूसरी सुबह होने का। उसके शरीर की हर खूबसूरत बनावट को वह जानता-पहचानता था। उसकी आवाज में जो मलमजसाहट टपकती थी। उसकी आंखों में भावनाएं टंगी हुई थीं और फिर उसकी लंबी चोटी उसकी जांघों तक आती थी।

उसके बारे में उसे बहुत कम जानकारी थी। वह महज इतना जानता था कि वह भागी हुई कैंटीन जाएगी जहां उसे खाना पकाना है। कभी-कभी उसकी इच्छा होती कि वह कैंटीन मैनेजर से कम से कम उसका नाम तो पता करे। लेकिन फिर उसने इस सोच को नकार दिया। क्यों? शायद कैंटीन वाले की उसकी नियत पर संदेह हो जाए। बदले मेें वे यदि उससे उसका नाम और इतिहास पूछें।

क्या उसे उस पर शक होने लगा था? हां भी और नहीं भी। वह साधारण सी दिखती और कुछ भी ऐसा नहीं करती थी जिसे लेकर उस पर संदेह हो – हाथों पर इमली के दाग, लहसुन-प्याज-अदरक की गंध। कोई भी कह सकता था कि इतनी गमगमाती है मानो वह खुद बाकायदा एक बड़ा रसोईया है। लेकिन एक बार जब वह उसके पास होती तो बेहद बदली सी नजर आती। जैसे उसने प्यार करने का कोई कोर्स कर रखा हो या फिर ऐसी कुछ फिल्में देखीं हों जिनमें प्रेम का इजहार करते दिखाया जाता है।

अजीब-अजीब से ख्याल उसे आते जब वह उस पर लेटा होता। वह कैसे वहां हमेशा रहती लगभग अनंतकाल तक। कैसे उसमें इतनी ताकत है जैसी उसमें थी। वह कैसे इतनी हिम्मती, खुली हुई और जबरदस्त प्यार करने वाली है खूब!

एक सुबह उसने उसके नंगे शरीर को भर आंख देखा। कहीं भी कोई कुछ कटा-फटा, तिल या जख्मों का भी कोई निशान नहीं। कहीं भी नहीं। उसकी चमड़ी चमक रही थी और उस पर कहीं कोई धब्बा नहीं था जैसा कोई नवजात हो। उसकी पुरानी बीवी तो रोगों के गंभीर संक्रमण के अंदेशों से इस कदर डरी हुई थी कि उसने उसके स्तनों से हाथ खींच लिए थे। तभी उसने ही उसके हाथों को स्तनों पर रख दिया। आप क्यों मेरी इतनी छानबीन कर रहे हो, मानो आप खुद ही कोई बड़े डाक्टर साहब हो?अचानक वह बोली।

उसके पास कोई तैयार जवाब नहीं था। वह लगभग अस्पष्ट सा फुसफुसाया। क्या तुम्हारे ऐसे संबंध औरों के साथ भी हुए है। मेरा मतलब है कि दूसरों के साथ भी या सिर्फ मेरे ही साथ या…?

वह फुफकारी, वह गुर्राई। उसने बिना रु के अपने शब्दों से उस पर हमला किया। कैसे तुम्हारी हिम्मत हुई। कैसे तुमने मेरी बेइज्जती की। क्यों ऐसा किया तुमने! क्या मैंने कभी तुमसे तुम्हारे बारे में पूछा। तुम भी तो करते रहे हो। अब तुम चाहते हो कि मैं जाऊँ। मैं तों जा रही हूं। मैं जा रही हूं वहां न जाने कहां। तुम्हारे बिना भी मैं रह सकती हूं। मुझे तुम्हारा प्यार नहीं चाहिए। इतने सालों से मैं सब कुछ अकेली ही करती रही हूं। मुझे किसी की ज़रूरत नहीं, मुझे तुम्हारी भी ज़रूरत नहीं। तुम बस तुम हो।

‘लेकिन यह सब तुम्हारे लिए पहली बार सा तो नहीं था।Ó

‘नहीं पहली बार नहीं… एक और आदमी था लेकिन सालों पहले।Ó

‘कई बार उस आदमी के साथ?Ó

‘नहीं, बहुत बार नहीं। शायद आठ या नौ बार ही। मुझे बाद में पता चला कि वह जालसाज था। मैं उससे रूखी हो गई। यह सब बरसों पुरानी बातें हैं। मैं किसी से भी इन फालतू मामलों पर बात भी नहीं करती।Ó

‘लेकिन तुम मेरे साथ हो… तुम मुझे अच्छे से जानती भी नहीं हो और तुम यहां साथ लेटी हो।Ó

‘यह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। तुम्हारा साथ मैंने चाहा। मैं तुम्हारे साथ यह चाहती थी।Ó

‘लेकिन कैसे तुम इसके बिना बरसों रह सकी? मैं यह सब मैं नहीं समझ पा रहा। वाकई नहीं।Ó

‘तुमने जैसा कहा, तुमने यह सब बरसों नहीं किया। क्या तुम यह कहना चाहती हो कि बीस या तीस साल बाद तुम प्यार कर रही हो?Ó

उनके अपनी नजरें झुका लीं और अपना सिर उसके सीने पर टिका दिया। उसके हाथ उसके स्तनों को थामने के लिए बेचैन थे।

जुलाई के लगभग चौदह दिन बीते थे और इतवार का दिन था। कैंटीन की रसोई में उसकी छुट्टी थी। वह देर में पर तेजी से चली। वह इंतजार करता उकता गया था। उसके आते ही उसकी थकावट और परेशानियां दूर हो गईं। वह कुछ भी न कह सका।

हर सुबह की तरह उसने गैस स्टोव पर पतीला रख दिया। वह उसे आलिंगन में लेता कि वह दूर खिड़की की तरफ जाकर खड़ी हो गई। उसकी आंखों में सूनापनथा। उसके चेहरे पर तनाव बढ़ रहा था। ‘आज मैं छोड़ रही हूं।Ó

छोड़ रही हो। ‘हां,। क्यों… कहां। यह मत पूछो।Ó

‘तुम्हें कुछ और पैसा बढ़ा कर दूंगा। मैं ज्य़ादा नहीं कमाता लेकिनÓ

‘मैं यह शहर, यह मोहल्ला छोड़ रही हूं।Ó यह

‘जुल्म! मुझ पर क्यों इतना जुल्म। मैं तुम्हें कुछ और ज्य़ादा दे दूंगा। जो कुछ मेरे बैंक में है। वह सब अब तुम्हारा।Ó

‘रु पयों का क्या करना। बेकार-क्या कम और क्या ज्य़ादा।Ó

‘फिर क्या?Ó

‘मैंने अपनी सूरत बदलनी चाही थी लेकिन बदल नहीं पाई।Ó

‘तुम क्या चोर थी।Ó

‘नहीं चोर नहीं, पूरी तौर पर एक रसोइया।Ó

‘फिर क्यों ऐसा बदलाव?Ó

‘नहीं, अचानक नहीं। पिछले हफ्ते उन्होंने ने एक हेल्पर लड़का रहमत को निकाल दिया। अब मेरी बारी होगी। कैंटीन के ये तमाम बेमतलब के लोगों ने यह अनुमान लगा लिया कि मैं मुसलमान हूं। वे पहले मुझे निकाल बाहर करें, मुझे ही उन्हें एक सबक देना चाहिए। एक नायाब सबक। उन्हें अपनी जिंदगी से ही अलग करने का।Ó

‘तुम एक मुसलमान हो? हां…।

‘फिर तुम इतनी डरी हुई क्यों हो। क्या हुआ?Ó

‘मैं इस साले गुंडों-मवालियों से नहीं डरती। लेकिन खुद को मैं इन खूनी लोगों से बचाना चाहती हूं।Ó

‘लेकिन तुम तो महज एक रसोइया हो।Ó

‘ये थर्डक्लास लोग एक मुसलमान माली, या दर्जी या मजदूरी का तो रख लेंगे लेकिन मुसलमान, कतई नहीं।Ó

उसने सिर हिलाया। दुखी हुआ और सोचता रहा।

‘गुंडों की ये सेवाएं हमें जीने नहीं देंगी। घंटों इनके लिए खाना पकाते रहो और नतीजा सिफर।Ó

‘तुम्हारा नाम?Ó

‘रानी, इन वाहियात कैंटीन वालों के लिए। यह मेरा असली नाम नहीं है। मैं यहां से जा रही हूं। अब सुरक्षा का कोई भरोसा नहीं।Ó

‘तुम्हारा शौहर?Ó

‘उसने उसकी आंखों में देखा। फिर कहा, उसे छोड़ दिया। कभी उसके ही साथ भागी थी। लेकिन वह एक जालसाल निकला, उसे छोड़ दिया।Ó उसने कंधे उचकाए। फिर कड़ लहजे से कहा, ‘मैं बिना शौहर के भी गुजर-बसर कर लूंगी, भले कहीं कुछ भी न हो। भले प्यार भरे शब्द न हों। भले कोई स्पर्श न हो, भले ही कुछ भी न हो। मैं नहीं चाहती कि मुझे टुकड़े-टुकड़े काट डाला जाए और शेष ब्रिगेड-सेना वाले जो इधर-उधर घूम रहे हैं वे उसे इधर और उधर फेंकते फिरें।Ó

‘लेकिन तुम एक औरत हो!Ó

‘तो क्या हुआ।Ó

‘ये लोग तुम्हारा बलात्कार कर सकते हैं या …।Ó

‘मैं उन्हें खुद को छूने भी नहीं दूंगी। कोई मुझे नहीं छू सकता।Ó

‘लेकिन तुम अकेली हो।Ó

‘इसीलिए मैं वापस अकबराबाद जा रही हूं।Ó

‘अकबराबाद? वह मेरा कस्बा है। हो सकता है मैं तुम्हारे परिवार को भी जानता होऊं।Ó

‘उसने उसके किसी भी सवाल का फिर जवाब नहीं दिया। हालांकि वह बड़बड़ाता रहा। लेकिन तुम मेरे पास आई। मेरे साथ रही, अपनी खुशी से। क्यों? तुमने ऐसा क्यों किया यदि तुम्हें मुझे छोड़ ही देना था?Ó

निहायत तकलीफ भरी नजरों से उसने उसे देखा।

उस टिकी हुई अजीब सी निगाहों में कुछ वैसा ही था जब लगातार उसे उसी तरह देखती रही जब तक वह झल्लाता हुआ बोल नहीं बोला, मुझे छोड़ कर मत जाओ। मैं तुम्हारी देखभाल करूंगा।Ó

उसने उसे सवालिया निगाहों से एकबारगी देखा ‘कहां था यह उन सालों में जब वह नारकीय जिंदगी जी रही थी।Ó

बेहद कमजोर सी वह कमरे से बाहर को बढ़ी। वह चलती रही। नहीं और कतई नहीं मुड़ी। एक बार भी नहीं। तब भी नहीं जब कि उसने अपना सोचा संभाला वाक्य उछाला। ‘तुम्हें कोई भी वह नहीं दे सकता जो मैंने तुम्हें दिया। मैंने तुम्हें सब कुछ बेहद दिया और बेइंतहा।Ó

‘लेकिन वह चुपचाप उस सूनी गली में चलती रही।Ó

जमल खुद अकबराबाद गया और लौटा। वहां उसे ढूंढता रहा। हो सकता है वह उसे फिर तलाश ले। शायद… और लेकिन वह कहीं नहीं मिली।

जमाल के खानदान मेें ज़रूर कोई एक सदस्य लापता लोगों की सूची में था। वह उस सूची में थी जान बानो। वह बच्ची जिसका हाथ उसने सालों पहले अपने हाथ में लिया था – तब वह किशोर था और वह एक बच्ची।

एक पागल की तरह वह हर किसी से या कहें हर किसी से अकबराबाद की भीतरी और बाहरी गलियों मेें घूमता-बात करता रहा। बड़ी होकर जान बानो कैसी दिखती होगी। क्या वह साडिय़ां पहनती होगी। क्या बालों में प्लेट लगाती होगी? क्या वह खाना पकाती थी। क्या वह दुबली-पतली सी थी। क्या उसके निचले ओठ के पास तिल (मस्सा) था?

कहीं कोई साफ जवाब नहीं।

लेकिन वह जितना ज्य़ादा वह उसके बारे में सोचता वह आश्वस्त होता जाता कि हो न हो, यह वही जान बानो थी। ख्याल और ज्य़ादा ख्याल आते। सालों पहले जब उसने उसका हाथ थाम लिया था तो उसने अपना हाथ उसके हाथ की पकड़ से खींचा नहीं था।

उसने उसे हाथ थामे रहने दिया जब तक वह चाहा। काफी देर तक। यह थी चाहत। बेतरह चाहत। हो सकता है उसने इतने सालों तक उसका इंतजार किया हो। हो सकता है उसने कैंटीन से उसे पहचान लिया हो इसीलिए वह खुशी से उसकी बगल में उसकी तीन पाए की चारपाई पर लेटती।

बाहरी इलाकों में बसी गंवई बस्तियों से जबरदस्त दंगे-फसाद की खबरें आ रही थीं। जमाल बेहद बेचैन हो रहा था। वह तनाव में भी था। हो सकता है उसकी इच्छा हुई हो कि वह अपने कस्बे के घर का हाल-चाल जानने के लिए वापस अकबराबाद जाए। हो सकता है वहां वह अपनी जानबानों को वहां पा जाए। बस, हो सकता है!