…जमाना है पीछे

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‘जब मैं अमरोहा लौटी तो कई लोगों ने मुझसे पूछा कि चांद से वापस कब लौटीं?’ यह कहते-कहते खुशबू मिर्जा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ जाती है. उनकी इसी बात में उस ऊंचाई का संकेत भी छिपा है जो उन्होंने हासिल की है. 22 अक्टूबर, 2008 का दिन देश में अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक नए कीर्तिमान का साक्षी बना था. यही वह दिन था जब ‘चंद्रयान-1’ नामक अपना पहला मानवरहित यान चांद पर भेज कर भारत यह कारनामा करने वाले गिने-चुने देशों में शुमार हुआ था. उस दिन जब सारे देश की निगाहें चंद्रयान के सफल प्रक्षेपण पर टिकी हुई थीं और लोग विभिन्न माध्यमों से इसके पल-पल की खबर पाने को उत्सुक थे तो 23 साल की खुशबू मिर्जा इस ऐतिहासिक पल की प्रत्यक्ष गवाह बन रही थीं. उस पल को अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पल मानने वाली खुशबू कहती हैं, ‘वो बहुत ही रोमांचकारी दृश्य था. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के ही कई लोगों को यह मौका नहीं मिल पाता कि वे इस दृश्य को प्रत्यक्ष देख पाएं. मैं खुशनसीब थी कि मुझे यह मौका मिला.’

सारा देश जब चंद्रयान-1 की सफलता पर गौरवान्वित महसूस कर रहा था तब खुशबू मिर्जा ने इस परियोजना का एक हिस्सा बनकर उत्तर प्रदेश के अमरोहा वासियों को गर्व करने का एक और कारण दे दिया था. अमरोहा की मुस्लिम आबादी वाले चौगोरी मोहल्ले की खुशबू मिर्जा चंद्रयान परियोजना के चेक आउट डिवीजन के 12 सदस्यों में से एक थीं. अमरोहा में ही पली-बढ़ी और अपनी 10वीं तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम से करने वाली खुशबू आज किसी भी मायने में बड़े शहर की लड़कियों से कम नहीं. और उनकी उपलब्धियां तो निश्चित ही अपनी उम्र की किसी भी लड़की की तुलना में कहीं ज्यादा हैं. वे मानती हैं कि मेहनत और लगन से कुछ भी हासिल किया जा सकता है और असंभव कुछ भी नहीं होता. अपना ही उदाहरण देते हुए वे कहती हैं, ‘हिंदी माध्यम से पढ़ने के बाद जब मैंने अंग्रेजी माध्यम में प्रवेश लिया तो शुरुआत में मुझे भी काफी मेहनत करनी पड़ी. लेकिन जब आपमें कुछ करने और सीखने की लगन हो तो सब कुछ खुद ही आसान हो जाता है.’

मिर्जा परिवार की तीन संतानों में खुशबू के अलावा उनकी छोटी बहन महक और बड़ा भाई खुश्तर हैं. ये तीनों ही आज इंजीनियर हैं. खुशबू अपनी कामयाबी का श्रेय अपने परिवार और विशेष तौर से अपनी मां को देती हैं. 1994 में खुशबू के पिता सिकंदर मिर्जा की मृत्यु हो गई थी. उस वक्त खुशबू सात साल की थीं और महक चार साल की. ऐसे में तीनों बच्चों की जिम्मेदारी मां पर ही आ गई जिन्हें परिवार का पेट्रोल पंप अब खुद ही संभालना था. खुशबू बताती हैं, ‘मेरे पिता जी भी एक इंजीनियर थे और उनका सपना था कि उनकी बच्चियां खूब तरक्की करें. इस सपने को साकार करने में हमारी मां का ही सबसे ज्यादा योगदान है.’

अमरोहा के कृष्णा बाल विद्या मंदिर से दसवीं पास करने के बाद खुशबू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में प्रवेश लिया और यहीं से अपनी इंजीनियरिंग भी पूरी की. छोटे शहरों और खास तौर पर मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के बारे में लोगों की आम धारणा को तोड़ते हुए खुशबू ने अपनी पढ़ाई के दौरान फैशन शो और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी बेहतरीन प्रदर्शन करके कई इनाम जीते. एमएमयू के छात्र संघ चुनावों में लड़कियों के लिए हमेशा से बंद रहे दरवाजों को तोड़कर चुनाव लड़ने वाली पहली लड़की भी खुशबू ही हैं.

2006 में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते ही खुशबू को अपने बेहतरीन प्रदर्शन के चलते एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से नौकरी का प्रस्ताव मिला. इसे स्वीकार करके वे दिल्ली आ गईं. बहुराष्ट्रीय कंपनी की चमक-दमक और मोटी पगार वाली नौकरी भी उनको ज्यादा दिनों तक बांध न सकी और तीन महीने बाद ही वे इसे छोड़ इसरो से जुड़ गईं. हालांकि इसरो में उन्हें अपनी पहली नौकरी की तुलना में काफी कम वेतन मिलना था. खुशबू बताती हैं, ‘पैसों के लिए मैं इसरो का प्रस्ताव ठुकराने की सोच भी नहीं सकती थी. देश के लिए कुछ करना था और इसके लिए इसरो के साथ जुड़ने से अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता था. कई लोगों को तो लगता था कि मैं चांद पर गई थी. ’

खुशबू भले ही चांद पर न गई हों लेकिन उन्होंने चांद की ऊंचाई जरूर हासिल कर ली है. आज वे कई लड़कियों के लिए आदर्श बन चुकी हैं. वे बतौर इंजीनियर इसरो में अपनी पहली पदोन्नति भी प्राप्त कर चुकी हैं. खुशबू कई कॉलेजों और संस्थाओं के छात्रों को संबोधित करके उन्हें इंजीनियरिंग के क्षेत्र में संभावनाओं की जानकारी और प्रेरणा देती रही हैं.

खुशबू का मानना है कि असंभव कुछ भी नहीं होता और यदि एक बार कुछ करने की ठान लो तो फिर धर्म, जाति, शहर, माहौल जैसी कोई भी चीज इंसान का रास्ता नहीं रोक सकती. उनकी कथनी ही नहीं, करनी ने भी यह साबित किया है.

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