चुनाव की रणनीति बना लें या फिर राज करें

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अगले लोकसभा चुनावों यानी 2019 से पहले 2018 में ही देश के आठ-नौ राज्यों में चुनाव होने हैं। इन चुनावों की तैयारी में विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्रिमंडल के मंत्री अपनी पार्टी उम्मीदवारों की जीत में जुट जाएंगे। गुजरात चुनावों में केंद्रीय मंत्रिमंडल के आधे से ज्यादा मंत्री और प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और बड़े लोग वहां मोर्चे पर डटे रहे। अब तो राजनीति में कार्यरत हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी मौका मिलेगा ज़मीनी स्तर पर मुद्दों को उछालते हुए सक्रिय राजनीति में आने का। लगातार सामाजिक सक्रियता से राजनीति में आना तो होता ही है। हालांकि मसले जहां के तहां ही रह जाते हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ अभी हाल दिल्ली में आंदोलन चला सफल रहा। दिल्ली चुनावों में एकदम नए लोगां की आम पार्टी बनी। लगभग पांच ही साल में सामाजिक कार्यकर्ताओं की यह बड़ी जीत रही। अभी हुए गुजरात चुनावों में पाटीदार आरक्षण, दलित और ओबीसी के मसलों के चलते कांग्रेस को भरोसे लायक नौजवान नेता ज़रूर मिल गए और मज़बूत विपक्ष बन सका। हिमाचल प्रदेश में वामपंथी उभार एक सीट पर सीमित रहा। लेकिन इस जीत ने बताया कि ज्य़ादातर वामपंथी लोग सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाते हैं। इनकी और कांग्रेसी रणनीति के चलते भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हार गए हालांकि पार्टी जीत गई। आम चुनाव अब 2019 में हैं और उसकी तैयारी में केंद्र की सत्ता संभाल रही पार्टी पहले से ही सक्रिय है, लेकिन इस साल की चुनावी तैयारी में केंद्र व राज्य सरकारों का कामकाज तो होता रहेगा लेकिन सुशासन नहीं होगा।
अभी पुणे में हुई हिंसा के जवाब में महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में जिस तेजी से हिंसा फैली उससे यह एहसास हुआ कि राजनीतिक आकांक्षा पूरी करने की ललक में किस तरह ज़मीनी सक्रियता काम करती है। जब राजनीतिक अवसर ठीक से नहीं मिलते तो उस ज़मीनी सक्रियता को असीम सभावनाओं के लिए उपयुक्त माना जाता है।
इस साल त्रिपुरा छत्तीसगढ़, कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में चुनाव होने हैं। पूरे देश में आरोपों प्रत्यारोपों का शोर होगा और सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति में अपने प्रवेश को सुगम बनाने के लिए सक्रिय रहेंगे।
हर विपक्षी दल के लिए सत्ता पार्टी की आलोचना करना उचित है। राहुल तो 2019 के चुनावों के पहले अपने तौर तरीके भी बदल चुके हैं। अब उनकी निगाहें नए उभरते लोगों पर हैं। उन्होंने कुछ मुद्दों पर मज़बूत रुख लेने की शुरूआत भी कर दी है। उनके इस बदलाव से भाजपा में अब संशय घना हुआ है।
भाजपा ने जीएसटी, विमुद्रीकरण, उजाला (एलईडी बल्ब के इस्तेमाल से अच्छी रोशनी हो) सौभाग्य(चार करोड़ घरों में बिजली पहुंचाना वह भी ग्रामीण क्षेत्रों और अर्ध शहरी इलाकां में) आदि योजनाएं शुरू कीं। भाजपा के नेतृत्व में चल रही एनडीए सरकार की यह प्रगतिशील योजनाएं साबित भी हुई हैं। इसी तरह उड़ान (क्षेत्रीय हवाई अड्डों को विकसित करना जिससे अर्धशहरी और ग्रामीण इलाकों में आवागमन बढ़े) यह योजनाएं कामयाब रही हैं। इसलिए उनके नतीजे भी आ रहे हैं। कई ऐसी ही योजनाएं पहले भी घोषित हुई लेकिन सात दशक बीत गए। बात बनी नहीं इन योजनाओं को लागू करने के तरीके पर सवाल उठ सकते हैं लेकिन इरादों पर नहीं।
मतदाताओं के एक वर्ग को साथ लिया जा सके इसका अभ्यास हर राजनेता करता है। ज्य़ादा मत पाने की चाह में जाति, वर्ग, समुदाय को साथ लेने की कोशिश में हिंसा का दौर होता है और आम आदमी की मौत भी होती है। उसे ज़मीनी स्तर पर संभालना ही वह कला है जो सामाजिक कार्यकर्ता जानता है। आज निहायत छोटे स्तर पर ज़मीनी सामाजिक कार्यकर्ता महत्वपूर्ण है।
विपक्षी दल जब राजनीतिक कार्यकर्ता की खोज में आते हैं तो उन्हें मीडिया भी सहयोग करता है। यह देश को विभाजित करने की कोशिश करते हैं। यह तरीका इसलिए खतरनाक है क्योंकि इसे होने वाले नुकसान का असर दीर्घकाल तक रहता है। भले कोई भी पार्टी सत्ता में हो। आज की राजनीति मानो देश को 70 और 80 के दशक में ले जा रही है जब आरक्षण, कर्जमाफी, भाषा,धर्म और वोट बैंक राजनीति ही ज़रूरी मुद्दे थे।
आप देखिए गुजरात के पाटीदार और हरियाणा -राजस्थान के जाटों का आरक्षण के लिए प्रदर्शन आंदोलन सिर्फ भावनाएं भड़काने का ही प्रयास था। इसे सत्ता और विपक्ष हवा देता रहा। आंदोलन चलाने वाले छोटे-बड़े नेता भी जानते हैं कि अब आरक्षण की गुंजाइश नहीं है। लेकिन कांग्रेस ने बढ़ावा दिया। इसी तरह दलितों का आंदोलन है। उनके नेता जिग्नेश मेवाणी गुजरात विधानसभा में विधायक हैं। उनकी खासियत यह है कि सत्ता पाने के लिए वे समाज में युद्ध करा दें। वे खुद को 98 फीसद राजनीतिक और दो फीसद सक्रिय कार्यकर्ता बताते भी हैं। उन्हें कांग्रेस ने समर्थन भी दिया।
अब कर्नाटक में हिंदू समुदाय से लिंगायत को अलग कराने का आंदोलन हिंदू समुदाय का ध्रुवीकरण कर रहा है। चुनाव जीतने की यह भी एक कोशिश है। अलग-अलग छोटे समुदायों में हिंदुओं को अलग करके क्या हिंदू भी अल्पसंख्यक नहीं हो जाएंगे। लेकिन यह बात चुनावी रणनीति में महत्व नहीं रखती।
अब एक डेढ साल ही है लोकसभा चुनावों में हर ज़मीनी कार्यकर्ता राजनीति में आने के लिए नए-नए भड़काऊ मुद्दों की तलाश कर रहा हैं। उसे शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास नहीं चाहिए। राहुल गांधी और गुजरात में उनकी तिकड़ी गुजरात में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने में कामयाब रही। कुछ और राज्यों में मेहनत करें तो यह और मज़बूत होगी। देखना यह है कि राहुल के ही खिलाफ कब यह तिकड़ी होती है।
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाते हुए सत्ता पा गए। अब राज्यसभा में जिन्हें उम्मीदवार बनाया उनमें एक नेता ने तो महज एक दिन पहले कांग्रेस छोड़ी थी। उनकी अभी हाल बनी पार्टी पंजाब में हारी, गुजरात में उसके सभी उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई। दिल्ली कांगेस के हाथों से सरकी और अब आप के हाथों में से भी खिसक रही है। लेकिन क्या हुआ। लोकतंत्र में जीतता है सही सामाजिक कार्यकर्ता ही।