चरखे से चर-खा तक

इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
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राजनीति में कई लोग इन्हें दिग्गज मानते हैं, मगर मेरे लिए वे मात्र गज हैं. नापने वाला नहीं चरने वाला गज. उन्हें अपनी तरफ देखते हुए मैंने एक सवाल फेंका, ‘आखिर कितना खाएंगे?’ वे मुस्कुराए. बोले, ‘यह सवाल ही अप्रासंगिक है. जिसका जो काम है, वो तो करेगा ही. यह तुम जैसों की अज्ञानता है कि इसे स्वाभाविक नहीं मानते. और जब अस्वाभाविक लगेगा, तो हो-हल्ला मचाओगे ही.’

‘तो आपका दिन-रात चरते रहना अस्वाभाविक नहीं है? आपके चरने की कोई सीमा है कि नहीं!’ ‘चरना! खाने से तुम चरने पर आ गए! बहुत खूब! यह शब्द मुझे व्यक्तिगत रूप से भी पसंद है. देखो तो सृष्टि में मानव की उत्पत्ति ही चरने के लिए हुई है. श्रेष्ठ मानव वही है, जो भी मिले उसे झट कचर-कचर चर जाए.’ यह कहते हुए उन्होंने कचौड़ी की दुकान की तरफ देखा. ‘अब ऐसा भी क्या चरना कि हाजमे के साथ पूरा सिस्टम ही चरमरा जाए!’ ‘तुम्हारे अंदर अज्ञानता का सिंधु जान पड़ता है! चलो, आज तुम्हारी अज्ञानता दूर करता हूं.’ ‘लगता है चर चुके हैं… आज का कोटा पूरा हो गया!’ वे ठठाकर हंसे. ‘ठीक पकड़ा, अभी चर के ही आ रहा हूं. सृष्टि इसलिए ही है कि चरा जाए. वरना चराचर जगत नहीं कहा जाता. चराचर मतलब चरा कर… चर… चर… पगले! पूरे जगत को चर.’

‘अपने खेत को छोड़कर दूसरों की फसल चर जाना क्या अत्याचार नहीं है? इसे क्या कहेंगे आप?’ ‘इसे भी तुम्हारी अज्ञानता कहूंगा. थलचर, जलचर, नभचर, उभयचर, निशाचर… इनके बाद में यह चर क्यों लगा है! कहने का मतलब है कि जो जहां हो वहीं चरे.’ उनके चर… चर… से मेरा भेजा पंच्चर हो गया. मन में आया कि उन्हें सनीचर! से संबोधित करूं. इस बीच वे कुछ सोचने लगे. ‘क्या सोच रहे हैं? क्या कभी चरते वक्त या चरने से पहले सोचा है आपने? कभी आप और आपके सहचर-अनुचर बंधुओं ने सोचा है कि इस देश को आप सबने चरखा से चर-खा तक पहुंचा दिया है!’ वे बोले, ‘चरने के लिए क्या सोचना! चरो! कचर-कचर! पचर-पचर! जो लचर होते है, वे ही चर नहीं पाते, उनके घर में फर्नीचर तक नहीं होता और वे ही तुम्हारे चरखे वाले देश में फटीचर कहलाते हैं.’ मुझे लगा कि ‘चर’ को लेकर मैं जीत नहीं पाऊंगा. मुझे ‘चर’ छोड़कर ‘खाना’ पर भी आना होगा.

‘आप सब कुछ खाते है!’ मैं उन्हें बाड़े में लाने के लिए कुछ नए सवाल सोचने लगा. वे बोले, ‘अबोध हो. भारतीय राजनीति का इतिहास देखो. अगर इतिहास नहीं तो वर्तमान देखो. सारे प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे.’
‘आपकी भूख असीमित क्यों है? जीने के लिए खाइए न! मगर आप इतना खाते हैं कि विदेशी बैंकों तक में आपके खाते हैं!’ ‘देखो मंगलग्रह के प्राणी! आमजन जीने के लिए खाता है, मगर हम जीतने के लिए खाते हैं. हमें चुनाव जीतना होता है इसलिए जो मिल जाता है, खाते हैं. बिना खाए, बिना खिलाए चुनाव नहीं जीते जाते. हमारा खाना प्राकृतिक है… वोट मांगा तो कसमें खाईं, जब भाषण दिया, तो भेजा खाया, कुर्सी मिली तो शपथ खाई, कुर्सी पर बैठे तो घूस खाई, कुर्सी से उतरे तो फिर सिर खाने आ गए…

तुम बस यह समझ लो कि हमारा खाने से रिश्ता कुछ ऐसा है जैसे कि सरकारी विभाग का एप्लीकेशन से और चापलूसी का प्रमोशन से.’ मैं मुंह की खा चुका था. अब उनसे शास्त्रार्थ करने की शक्ति शेष नहीं थी. मैंने अपनी बची-खुची शक्तियों को समेटा और पूछा, ‘भगवान के लिए आप यह बताइए, आप क्या नहीं खाते?’ ‘तरस’, यह कहकर वे पान चबाते आगे बढ़ लिए और मैं अपने साथ-साथ भारतीय वोटरों पर तरस खाने लगा.

-अनूप मणि त्रिपाठी

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