ख़ूनी हाथ किसके हैं?

आप क्या सोचते हो? एक 84 वर्षीय पुजारी स्टैनिस्लॉस लॉर्डुस्वामी की हिरासत में मौत के लिए कौन ज़िम्मेदार है? वह, जिसने वनवासियों के अधिकारों के लिए काम किया और जो एक विचाराधीन क़ैदी था? या वे, जिन्होंने उसे सलाख़ों के पीछे रखा था? ध्यान रहे, फादर स्टेन स्वामी पार्किंसन के मरीज़ थे; लेकिन राष्ट्रीय जाँच एजेंसी ने दावा किया कि वह माओवादी थे और भीमा-कोरेगाँव मामले में एक प्रमुख साज़िशकर्ता थे। हालाँकि विडम्बना यह भी है कि एनआईए ने उनसे एक दिन के लिए भी हिरासत में पूछताछ की माँग नहीं की, जबकि उन्हें उसने 8 अक्टूबर, 2020 को 2018 की प्राथमिकी के आधार पर गिरफ़्तार किया था। उन्हें ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के प्रावधानों के तहत अंतरिम जमानत से वंचित कर दिया गया था। क्योंकि एनआईए अदालत ने अधिनियम के अध्याय-ढ्ढङ्क और ङ्कढ्ढ को जोड़ा, जो आतंकवादी गतिविधियों से सम्बन्धित है। लेकिन यहाँ एक पुजारी था; जिसने कभी कोई हथियार नहीं उठाया। उन पर आरोप है कि वह झारखण्ड के जंगलों में सक्रिय प्रतिबन्धित माओवादी संगठन के साथ नृत्य कर रहे थे। हालाँकि सभी स्रोतों में यही पाया गया कि वह आदिवासियों को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करते थे। यहाँ बताना उचित होगा कि आदिवासी लोग सदियों से अपने मुख्य जीविका संसाधन जल, जंगल और ज़मीन के लिए सदियों से केंद्र तथा राज्य सरकारों के साथ-साथ उद्योगपतियों और दबंगों के प्रति संघर्षरत हैं।

पुजारी के मामले में सवाल यह उठता है कि अगर उनके ख़िलाफ़ सुबूत इतने मज़बूत थे, तो उनकी गिरफ़्तारी के बाद एनआईए ने इतने महीनों तक पूछताछ के लिए उन्हें रिमांड पर लेने की माँग क्यों नहीं की? हालाँकि यूएपीए क़ानून बिना किसी मुक़दमे के किसी भी राज्य / केंद्र शासित प्रदेश के किसी व्यक्ति को वर्षों तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है। आँकड़ों से पता चलता है कि यूएपीए के तहत मुक़दमा चलाने वाले मामलों में से सिर्फ़ दो फ़ीसदी मामलों में ही आज तक सज़ा हो पायी है। लेकिन बिडम्बना है कि इस क़ानून के तहत आरोपी को बिना मुक़दमे के वर्षों तक जेल में बन्द किया जा सकता है। यहाँ विदेश मंत्रालय का कहना है कि सारी कार्रवाई पूरी तरह क़ानून के मुताबिक की गयी थी और फादर स्टेन को उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद एनआईए द्वारा गिरफ़्तार किया गया था। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने फादर स्टेन स्वामी की मृत्यु के आसपास की परिस्थितियों को ‘परेशान करने वाला’, ‘अक्षम्य’ और ‘विनाशकारी’ के रूप में चिह्नित किया है। भारत में 10 विपक्षी दलों के नेताओं ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर जेल में कार्यकर्ता के साथ कथित ‘अमानवीय व्यवहार’ करने के लिए ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की माँग की है।

कम-से-कम यह सुनिश्चित करने के लिए कि 05 जुलाई को हुई फादर स्टेन की मृत्यु व्यर्थ न जाए, विचाराधीन कै़दियों को जमानत देने से इन्कार करने और क़ानून में कुछ प्रावधानों के दुरुपयोग पर एक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बहस शुरू हो सकती है। आख़िरकार यह कोई साधारण मौत नहीं है। स्टेन एक पुजारी थे और राज्य की हिरासत में उनकी मृत्यु हुई है। वास्तव में राज्य देश के क़ानून और संविधान के अधीन है। फादर स्टेन के अन्तिम संस्कार में उन्हें लाल वस्त्र पहनाया गया था, जो कैथेलिक समुदाय में शहादत का प्रतीक है। समय आ गया है कि न्यायपालिका को सन्देह के घेरे में आने वाली इस मौत में अधिकारियों की भूमिका पर स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। और राज्य सरकार भी कम-से-कम यह तो कर ही सकती है कि फादर स्टेन स्वामी की विरासत को दोष देने के बजाय उन्हें मरणोपरांत एक उच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित करे।

चरणजीत आहुजा