ख़तरे के मुहाने पर दुनिया

डराने वाली है जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी की रिपोर्ट

मानव के लालच ने दुनिया को ख़तरे के किस ढेर पर लाकर बैठाया है, इसका संकेत जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट से मिलता है। रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि आने वाला समय जीव, जगत के लिए कितना विनाशकारी सिद्ध होने वाला है। पिछले चार-पाँच दशक में प्राकृतिक संसाधनों का जिस स्तर पर दोहन किया गया है, उसने ख़ुद हमारे लिए स्थिति विकराल कर दी है। तापमान बढऩे से हमारी दुश्वारियाँ भी बढऩे वाली हैं। सबसे ज़्यादा चिन्ताजनक बात यह है कि ये परिवर्तन अनुमानित समय से कहीं पहले ही हो रहे हैं। ऐसी ही तमाम स्थितियों और ख़तरों को लेकर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट मानव सहित जीव जगत के लिए डराने वाली है। सन् 2013 के बाद यह पहली रिपोर्ट है, जिसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े विज्ञान का व्यापक तौर पर विश्लेषण किया गया है। इसमें कहा गया है कि पृथ्वी की औसत सतह का तापमान साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा और यह बढ़ोतरी पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही होने जा रही है, जो बहुत चिन्ताजनक है। रिपोर्ट जारी होने के बाद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा कि आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप-1 रिपोर्ट मानवता के लिए एक कोड रेड है। दुनिया के कई बड़े कार्बन उत्सर्जक देश घोषणा कर चुके हैं कि साल 2050 तक वो कार्बन के मामले में न्यूट्रल हो जाएँगे; यहाँ तक कि चीन ने साल 2060 तक के लिए अन्तिम तिथि तय कर दी है। वहीं भारत ने कहा है कि वह सन् 2005 के स्तर के हिसाब से 2030 तक 33-35 फ़ीसदी कार्बन उत्सर्जन कम करेगा। आईपीसीसी की यह छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (एआर-6) का पहला हिस्सा है और इसके बाक़ी दो हिस्से अगले साल जारी किये जाएँगे।

रिपोर्ट के आधार पर संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि भूमंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) बहुत तेज़ी से हो रहा है और इसके लिए साफ़तौर पर मानव जाति ही ज़िम्मेदार है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते तापमान से दुनिया भर में मौसम से जुड़ी भयंकर आपदाएँ आएँगी। दुनिया पहले ही बर्फ़ की चादरों के पिघलने, समुद्र के बढ़ते स्तर और बढ़ते अम्लीकरण में अपरिवर्तनीय बदलाव झेल रही है। रिपोर्ट के मुताबिक, वायुमण्डल को गर्म करने वाली गैसों का उत्सर्जन जिस तरह से जारी है, उसकी वजह से सिर्फ़ दो दशक में ही तापमान की सीमाएँ टूट चुकी हैं। आईपीसीसी के इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं का मानना है कि मौज़ूदा हालात को देखते हुए यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इस शताब्दी के अन्त तक समुद्र का जलस्तर लगभग दो मीटर तक बढ़ सकता है। पैनल के शोधकर्ताओं का नेतृत्व करने वाली वैलेरी मैसन-डेलोमोट ने रिपोर्ट में कहा है कि कुछ बदलाव सौ या हज़ारों वर्षों तक जारी रहेंगे। इन्हें केवल उत्सर्जन में कमी से ही धीमा किया जा सकता है।

यह रिपोर्ट आने वाले महीनों में सिलसिलेवार आने वाली कई रिपोट्र्स की पहली कड़ी है, जो ग्लासगो में होने वाले जलवायु सम्मेलन (सीओपी-26) के लिए अहम रहेगी। यह शिखर सम्मलेन नवंबर के पहले पखवाड़े में होना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वार्मिंग गैसों के उत्सर्जन से एक दशक से भी अधिक समय में तापमान की एक महत्त्वपूर्ण सीमा टूट सकती है। संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिकों ने ऐतिहासिक अध्ययन में कहा है कि जलवायु पर मानवता का हानिकारक प्रभाव हुआ है। मतलब, मानव जाति के लालच को ही जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार बताया गया है। इसमें साफ़ कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से धरती पर मँडरा रहा ख़तरा और भी ज़्यादा विनाशकारी होने वाला है। बता दें कि संयुक्त राष्ट्र के आईपीसीसी की इस रिपोर्ट से क़रीब आठ साल पहले की रिपोर्ट में भी जलवायु परिवर्तन के वैश्विक संकट से दुनिया को आगाह किया गया था। लेकिन नयी रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि त्रासदी दरवाज़े के सामने खड़ी है। यह भी ज़ाहिर होता है कि विशेषज्ञों की रिपोट्र्स में जो चेतावनियाँ दीं, उन पर कोई अमल नहीं हुआ और इंसान ने प्रकृति से खिलवाड़ जारी रखा है।

कार्बन उत्सर्जन के मामले में चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है। वह यह भी कह चुका है कि वह पेरिस जलवायु समझौते के अपने वादे को पूरा करने की दिशा में अग्रसर है। लेकिन आईपीसीसी की रिपोर्ट संकेत देती है कि उसका पिछला लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा है। भारत ही नहीं, वैश्विक तापमान बढऩे की दिशा में दुनिया के कई देश तेज़ी से कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं कर पा रहे हैं।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत को जलवायु ख़तरे की सन् 2019 की सूची में सातवें पायदान पर रखा गया है, जिसे वह नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु विज्ञान संगठन की इस छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में बेहद गम्भीर परिणाम पाये गये हैं, जो बताते हैं कि हमारी पृथ्वी की पर्यावरण प्रणाली ने लगातार होते जलवायु परिवर्तन के कारण पहले ही न ठीक होने वाले परिवर्तन देख लिये हैं।

ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन

यूएनईपी उत्सर्जन गैस रिपोर्ट-2020 ज़ाहिर करती है कि जलवायु संकट को कम करने के लिए कठोर और सख़्त कार्रवाई की ज़रूरत है। इसके मुताबिक, दुनिया अभी भी 21वीं सदी के आख़िर तक तीन डिग्री सेल्सियस से अधिक के तापमान में वृद्धि की ओर बढ़ रही है।

दरअसल शहर पृथ्वी की सतह के केवल दो फ़ीसदी हिस्से को कवर करते हैं, जो जलवायु संकट को बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन वर्तमान शहरी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य इस सदी के अन्त तक वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काफ़ी नहीं है। आजकल दुनिया भर की आबादी की 50 फ़ीसदी से अधिक आबादी शहरों में रहती है।

डाउन टू अर्थ की जुलाई की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) की पहली बैलेंस शीट (संतुलन पत्र) प्रस्तुत की गयी थी। इसका उद्देश्य दुनिया भर के 167 अलग-अलग शहरों में ग्रीनहाउस गैसों पर लगाम कसने की कोशिशों के असर को देखना था। रिपोर्ट के मुताबिक, छ: साल पहले दुनिया भर के 170 देशों ने पेरिस समझौते को अपनाया था। इसमें रखे गये लक्ष्य में औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना था। समझौते के बाद कई देशों और शहरों ने ग्रीनहाउस गैसों पर लगाम कसने के लिए लक्ष्य रखे।

रिपोट्र्स के मुताबिक, दुनिया के 167 शहरों में से सबसे ऊपर 25 देश, जो कि कुल का 15 फ़ीसदी हैं; सारे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का 52 फ़ीसदी उत्सर्जित करते हैं। इनमें मुख्य रूप से एशिया के देशों, जैसे- चीन के हैंडन, शंघाई और सूजौ, जापान के टोक्यो और यूरोपीय संघ के देशों में रूस के मास्को तथा तुर्की के इस्तांबुल आदि शामिल हैं। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट बताती है कि चीन, जो विकासशील देशों की श्रेणी में वर्गीकृत है; में भी ऐसे शहर थे, जहाँ प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकसित देशों के बराबर था। यह बहुत अहम बात है कि कई विकसित देश चीन को उच्च कार्बन उत्पादन शृंखलाओं की भूमिका से जोड़ते हैं।

जर्नल फ्रंटियर्स इन सस्टेनेबल सिटीज के एक अध्ययन के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोतों की भी पहचान की है। इसके अलावा अध्ययन में सामने आया कि 30 शहरों में सन् 2012 से सन् 2016 के बीच उत्सर्जन में कमी आयी थी। प्रति व्यक्ति सबसे बड़ी कमी वाले शीर्ष चार शहर- ओस्लो, ह्यूस्टन, सिएटल और बोगोटा थे। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में सबसे अधिक वृद्धि वाले शीर्ष चार शहर- रियो डी जनेरियो, कूर्टिबा, जोहान्सबर्ग और वेनिस थे।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 167 शहरों में से 113 ने विभिन्न प्रकार के जीएचजी उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य निर्धारित किये हैं, जबकि 40 ने कार्बन को शून्य करने के लक्ष्य निर्धारित किये हैं। लेकिन यह अध्ययन कई अन्य रिपोट्र्स और शोधों से जुड़ता है, जो बताते हैं कि हम पेरिस समझौते द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने से बहुत दूर हैं।

क्या है आईपीसीसी?

जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी का गठन विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने सन् 1988 में किया था। वैसे आईपीसीसी ख़ुद वैज्ञानिक अनुसंधान में शामिल नहीं होता और दुनिया भर के वैज्ञानिकों को साथ जोडक़र जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित सभी ज़रूरी वैज्ञानिक जानकारियाँ पढऩे और तार्किक निष्कर्ष निकालने का आह्वान करता है।

इसकी रिपोर्ट पृथ्वी की जलवायु स्थिति का सबसे व्यापक वैज्ञानिक मूल्यांकन माना जाता है। वर्तमान रिपोर्ट को मिलाकर आईपीसीसी ने अब तक छ: रिपोट्र्स दी हैं और इनके निष्कर्ष कमोवेश सही निकले हैं। हालाँकि इन पर विभिन्न देशों की सरकारों ने उस स्तर पर ख़तरे से बचने के उपाय नहीं किये हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्यीय अंतर-सरकारी पैनल में भारत भी एक सदस्य है, जिसने हाल में छठी मूल्यांकन रिपोर्ट जारी की है। आईपीसीसी ने पहली रिपोर्ट सन् 1990 में जारी की थी। इसकी रिपोट्र्स दुनिया भर के लिए पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में मार्गदर्शक का काम करती हैं।

आईपीसीसी की रिपोर्ट तीन वैज्ञानिक वर्क ग्रुप्स (एसडब्ल्यूजी) तैयार करते हैं, जिनमें से ग्रुप-1 की रिपोर्ट जारी हुई है। यह ग्रुप जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार से सम्बन्धित हिस्से पर काम करता है; जबकि दूसरा वर्किंग ग्रुप सम्भावित प्रभावों, कमज़ोरियों और अनुकूलन के मुद्दों को देखता है। तीसरे ग्रुप के ज़िम्मे वे कार्यवाहियाँ हैं, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए की जा सकती हैं।

आज तक दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो भी कार्य योजना (एक्शन प्लान) तैयार की गयी है, वह आईपीसीसी की रिपोट्र्स पर आधारित रही है। जैसे सन् 1990 में आईपीसीसी ने अपनी पहली रिपोर्ट में ही कार्बन उत्सर्जन से वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में जबरदस्त बढ़ोतरी को लेकर चेताया था। रिपोर्ट में इसके लिए इंसानी गतिविधियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।

रिपोर्ट में साफ़ कहा गया था कि दुनिया का तापमान और समुद्र का स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है। इस रिपोर्ट का महत्त्व इससे ज़ाहिर हो जाता है कि इसे चिन्ताजनक मानते हुए सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की बैठकों का मुख्य एजेंडा बनाया था।

दिलचस्प बात यह है कि आईपीसीसी की दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं रिपोट्र्स में भी वायुमण्डल का तापमान बढऩे के ख़तरे के प्रति दुनिया को सचेत किया था। इन रिपोट्र्स में तापमान बढऩे का आँकड़ा और चिन्ताजनक हो गया था। चौथी रिपोर्ट में तो यह भी बताया गया था कि सन् 1970 और सन् 2004 के बीच ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 70 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। सन् 1997 में आईपीसीसी की रिपोर्ट क्योटो प्रोटोकॉल के लिए वैज्ञानिक आधार बनायी गयी थी। इन रिपोट्र्स में तथ्यों के साथ यह बताया गया था कि मानव इन ख़तरों के पैदा होने के लिए सबसे बड़ा ज़िम्मेदार है।

तीसरी आकलन रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गयी थी कि साल 2100 तक समुद्र का स्तर सन् 1990 के स्तर से 80 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है। आईपीसीसी की रिपोर्ट को तब दुनिया भर में बड़ी स्वीकृति मिली, जब चौथी रिपोर्ट को सन् 2007 का नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला। सन् 2009 में कोपेनहेगन जलवायु बैठक के लिए भी इसी रिपोर्ट को वैज्ञानिक आधार बनाया गया।

आज से छ: साल पहले पाँचवीं आकलन रिपोर्ट में आईपीसीसी ने साफ़तौर पर कहा कि साल 2100 तक वैश्विक तापमान में अभूतपूर्व वृद्धि से धरती पर प्रजातियों का बड़ा हिस्सा विलुप्त होने का ख़तरा झेल रहा होगा। इस रिपोर्ट में खाने की चीज़ें की कमी होने का भी ज़िक्र था। पेरिस समझौते (2015) का एजेंडा इसी रिपोर्ट के आधार पर तय हुआ था। दिलचस्प यह हुआ कि उस समय डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका की सत्ता सँभाल चुके थे और उन्होंने इस रिपोर्ट से अमेरिका को अलग कर लिया था। हालाँकि जो बाइडन ने ट्रंप के फ़ैसले को पलटते हुए समझौते से अमेरिका को फिर जोड़ दिया।

अब आईपीसी की छठी रिपोर्ट सामने आ गयी है, जिसमें बाक़ायदा तथ्यों के साथ भविष्य के ख़तरों के प्रति सचेत किया गया है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारों के लिए उत्सर्जन कटौती को लेकर यह रिपोर्ट गम्भीर स्तर की चेतावनी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने पिछली रिपोर्ट से भी बहुत कुछ सीखा है। हाल के वर्षों में दुनिया ने रिकॉर्ड तोड़ तापमान, जंगलों में आग लगने और विनाशकारी बाढ़ की दर्जनों भयावह घटनाएँ झेली हैं। रिपोर्ट का सार यही है कि मानव ने अपने तात्कालिक लाभ के लिए पर्यावरण का जैसा बँटाधार किया है और उससे जो विनाशकारी परिवर्तन सामने आये हैं, उन्हें आने वाले हज़ारों साल में भी वापस पुरानी स्थिति में नहीं लाया जा सकता है।

 

क्या कहती है रिपोर्ट?

रिपोर्ट का लब्बोलुआब यह है कि औद्योगिक-काल के पहले के समय से हुई तापमान वृद्धि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी गर्मी को सोखने वाली गैसों के उत्सर्जन से हुई। इसमें से अधिकतर उत्सर्जन कोयला, तेल, लकड़ी और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन जलाये जाने के कारण हुए हैं। वैज्ञानिकों ने कहा कि 19वीं सदी से दर्ज किये जा रहे तापमान में हुई वृद्धि में प्राकृतिक वजहों का योगदान बहुत-ही थोड़ा है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि पिछली रिपोर्ट में इसके पीछे इंसानी गतिविधियों के ज़िम्मेदार होने की सम्भावना जतायी गयी थी, जबकि इस बार इसे ही सबसे बड़ा कारण माना गया है।

यह सब स्थितियाँ तब बन रही हैं, जब सन् 2015 में 198 देशों ने ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तख़त किये थे। इस समझौते का उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस (3.6 डिग्री फारेनहाइट) से कम रखना था, जो पूर्व औद्योगिक समय की तुलना में सदी के अन्त तक 1.5 डिग्री सेल्सियस (2.7 फारेनहाइट) से अधिक न हो। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। रिपोर्ट में ज़्यादातर शोधार्थियों ने पाँच परिदृश्यों पर ध्यान केंद्रित किया है।

रिपोर्ट के मुताबिक, किसी भी सूरत में दुनिया साल 2030 के दशक में 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की बढ़ोतरी के आँकड़े को पार कर लेगी। इसमें चिन्ता का सबसे बड़ा कारक यह है कि तापमान की यह वृद्धि पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही घटित हो रही है। उन परिदृश्यों में से तीन परिदृश्यों में पूर्व औद्योगिक समय के औसत तापमान से दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा की वृद्धि दर्ज की जाएगी।

यह रिपोर्ट काफ़ी विस्तृत है और 3,000 पृष्ठों में है। इसे 234 वैज्ञानिकों / शोधार्थियों ने तैयार किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तापमान से समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। उधर बर्फ़ का दायरा सिकुड़ रहा है। भयंकर लू, सूखा, बाढ़ और तूफ़ान आने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उष्णकटिबंधीय चक्रवात और मज़बूत तथा बारिश वाले हो रहे हैं, जबकि आर्कटिक महासागर में गर्मियों में बर्फ़ पिघल रही है और इस क्षेत्र में हमेशा जमी रहने वाली बर्फ़ का दायरा घट रहा है।

रिपोर्ट के मुताबिक, वर्तमान स्थिति में यह सब स्थितियाँ और ख़राब होती जाएँगी। शोधार्थियों के मुताबिक, इंसानों द्वारा वायुमण्डल में उत्सर्जित की जा चुकी हरित गैसों के कारण तापमान निर्धारित (लॉक्ड इन) हो चुका है। इसके मायने हैं- ‘यदि उत्सर्जन में नाटकीय रूप से कमी आ भी जाए, तो भी कुछ बदलावों को सदियों तक पलटा नहीं जा सकेगा।’

रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने का वक़्त हाथ से निकल चुका है। आईपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2100 तक दुनिया का तापमान काफ़ी बढ़ जाएगा। भविष्य में लोगों को प्रचण्ड गर्मी का सामना करना पड़ेगा। कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण नहीं रोका गया, तो तापमान में औसत 4.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी। अगले दो दशक में तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। जब इस तेज़ी से पारा चढ़ेगा, तो ग्लेशियर भी पिघलेंगे, जिनका पानी मैदानी और समुद्री इलाकों में तबाही लेकर आएगा।

 

दावा : डूब जाएँगे भारत के 12 शहर!

हाल में हिमाचल के किन्नौर में पहाड़ दरकने की घटना हो या फरवरी में उत्तराखण्ड के चमोली में आयी आपदा। सुपर साइक्लोन ताउते और यास हों और देश के कुछ हिस्सों में हो रही जबरदस्त बारिश। भारत जलवायु से सम्बन्धित जोखिमों का सामना कर रहा है। आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि भारत दुनिया के 10 में से छ: सबसे प्रदूषित शहरों का घर है। यही नहीं, भारत लगातार वायु प्रदूषण से जूझ रहा है। सन् 2019 में वायु प्रदूषण के चलते देश में 1.67 मिलियन लोगों का जीवन दाँव पर लगा है। इसकी चपेट में सबसे ज़्यादा ग़रीब, मेहनतकश और शहरों में रोज़ी-रोटी कमाने वाले हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, दूसरी तरफ़ यह वैश्विक स्तर पर दुनिया का तीसरा सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित करने वाला देश है। इन दोनों प्रदूषकों पर लगाम कसने की चुनौती हमारे सामने खड़ी है। विशेषज्ञों के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक जाने पर भारत के मैदानी इलाकों में तपिश, अत्यधिक गर्मी और जानलेवा आसमान से बरसती आग जैसी मौसम की मार वाली घटनाएँ में इज़ाफ़ा होना तय है।

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगले 10 साल में जानलेवा गर्मी की घटनाओं में बढ़ोतरी से निपटने के लिए भारतीयों को कमर कस लेनी चाहिए। इनमें 10 वर्ष में 5 गुना तक इज़ाफ़ा मुमकिन है। अगर ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस तक होती है, तो देश के अधिकांश मैदानी हिस्सों में तपती गर्मी के चलते जीना दूभर हो जाएगा। रिपोर्ट के मुताबिक, क़रीब 80 साल बाद यानी साल 2100 तक भारत के 12 तटीय शहर समुद्री जलस्तर बढऩे से क़रीब तीन फीट पानी में चले जाएँगे। ओखा, मोरमुगाओ, कांडला, भावनगर, मुम्बई, बेंगलूरु, चेन्नई, तूतीकोरिन (तूतुकुड़ी) और कोच्चि, पारादीप के तटीय इलाक़े छोटे हो जाएँगे। ऐसे में भविष्य में तटीय इलाकों में रह रहे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ेगा। पश्चिम बंगाल का किडरोपोर इलाक़ा, जहाँ पिछले साल तक समुद्री जलस्तर के बढऩे का कोई ख़तरा महसूस नहीं हो रहा है; वहाँ पर भी साल 2100 तक आधा फीट पानी बढ़ जाएगा।

अध्ययन कहता है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते यदि समुद्र का स्तर 50 सेंटीमीटर बढ़ जाता है, तो छ: भारतीय बंदरगाह शहरों चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुम्बई, सूरत और विशाखापत्तनम में 28.6 मिलियन लोग तटीय बाढ़ की चपेट में आ जाएँगे। इस बाढ़ के सम्पर्क में आने वाली सम्पत्ति क़रीब 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की होगी। भारत के वे क्षेत्र, जो समुद्र के स्तर से नीचे होंगे; क्योंकि समुद्र के स्तर में एक मीटर की वृद्धि होगी।

यही नहीं, भारत में वार्षिक औसत वर्षा में वृद्धि का अनुमान है। वर्षा में वृद्धि से भारत के दक्षिणी भागों में अधिक गम्भीर होगी। दक्षिण-पश्चिमी तट पर सन् 1850 से सन् 1900 के सापेक्ष वर्षा में क़रीब 20 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। यदि हम अपने ग्रह (पृथ्वी) को 4 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करते हैं, तो भारत में सालाना वर्षा में क़रीब 40 फ़ीसदी की वृद्धि देखी जा सकती है। ऐसे में अत्यधिक वर्षा जल और बाढ़ से बचने का बंदोबस्त हमारे सामने एक बड़ी चुनौती होगी। क़रीब 7,517 किलोमीटर समुद्र तट के साथ भारत को बढ़ते समुद्री जलस्तर का सामना करना पड़ेगा।

भारत में हिन्दू कुश हिमालय क्षेत्र में (बर्फ़ीले क्षेत्र में) रहने वाले 240 मिलियन लोगों के लिए एक महत्त्वपूर्ण जलापूर्ति है, जिसमें 86 मिलियन भारतीय शामिल हैं; जो संयुक्त रूप से देश के पाँच सबसे बड़े शहरों के बराबर है। पश्चिमी हिमालय के लाहुल-स्पीति (हिमाचल) क्षेत्र में 21वीं सदी की शुरुआत से बड़े पैमाने पर हिमनदियों (ग्लेशियर) को खो रहे हैं। यदि उत्सर्जन में गिरावट नहीं होती है, तो हिन्दू कुश हिमालय में ग्लेशियरों में दो-तिहाई की गिरावट आएगी। ख़ुद भारत सरकार ने पिछले साल जलवायु परिवर्तन के आकलन पर अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें कहा गया है कि देश में सन् 1951 से सन् 2016 के कालखण्ड में सूखे की गति और तीव्रता तेज़ी से बढ़ी है। रिपोर्ट में गम्भीर चेतावनी दी गयी थी कि सदी के अन्त तक लू का स्तर चार गुना तीव्र हो जाएगा।

यह ख़तरे वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की सन् 2019 की वैश्विक रिपोर्ट से मेल खाते हैं, जिसमें कहा गया था कि भारत उन 17 देशों में से एक है, जहाँ पानी को लेकर दबाव बहुत ज़्यादा है। इसमें दिखाया गया है कि भारत मध्य, पूर्व और उत्तरी अफरीका के उन देशों के साथ इस सूची में है, जहाँ भूजल और सतह का जल ख़त्म हो रहा है। भारत सरकार स्वीकार कर चुकी है कि बीते दो दशक में देश में बाढ़ की ज़द में आने वाले इलाकों में बड़ी बढ़ोतरी हुई है।

सीओपी 26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा कहते हैं- ‘यदि भारत अब भी कोई क़दम नहीं उठाता है और कार्रवाई नहीं करता है; तो हमारे सामने जीवन, आजीविका और प्राकृतिक आवासों पर सबसे ख़राब प्रभाव की भीषणता खड़ी होगी। आने वाला दशक निर्णायक है और हमें विज्ञान का अनुसरण करते हुए 1.5 डिग्री के लक्ष्य को जीवित रखने के लिए अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी होगी। साल 2030 एमिशन रिडक्शन लक्ष्यों और सदी के मध्य तक नेट ज़ीरो के मार्ग के साथ दीर्घकालिक रणनीतियों के साथ आगे बढक़र और कोयला बिजली को समाप्त करने के लिए अभी से कार्रवाई करके इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग में तेज़ी लाकर वनों की कटाई रोककर और मीथेन उत्सर्जन को कम करके ही हम संकट को टाल सकते हैं।’

रिपोट्र्स कहती हैं कि हिमालयी क्षेत्र में बर्फ़ की नदियों के बार-बार फटने से निचले तटीय क्षेत्रों में बाढ़ के अलावा अन्य कई बुरे प्रभावों का सामना करना पड़ेगा। देश में अगले कुछ दशक में सालाना औसत बारिश में इज़ाफ़ा होगा, ख़ासकर दक्षिणी प्रदेशों में हर साल घनघोर बारिश हो सकती है।

भारत में समुद्री प्रदूषण भी एक बड़े ख़तरे के रूप में हमारे सामने आ रहा है। समुद्र का धरती पर 71 फ़ीसदी हिस्सा है, जिससे 70 फ़ीसदी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है। यह सूर्य के नीचे सभी प्राणियों के लिए साँस लेने के लिए ज़रूरी है। समुद्र कई प्रकार की दुर्लभ प्रजातियों का एक जल अभयारण्य है, जो अब विकट प्रदूषण के ख़तरे का सामना कर रहा है। यह न केवल समुद्री जीवों के जीवन को, बल्कि मानव जीवन को भी ख़तरे में डाल देगा। पिछले दिनों समुद्र ने मुम्बई में कई टन कचरा वापस फेंक दिया था। विशेषज्ञों के मुताबिक, तमिलनाडु जैसे तटीय क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तन ख़तरे के संकेत कर रहे हैं।

 

रिपोर्ट के सकारात्मक पहलू

रिपोर्ट के कई पूर्वानुमान पृथ्वी पर इंसानों के प्रभाव और आगे आने वाले परिणाम को लेकर गम्भीर चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं; लेकिन आईपीसीसी को कुछ हौसला बढ़ाने वाले संकेत भी मिले हैं। इनमें पहला यह है कि विनाशकारी बर्फ़ की चादर के ढहने और समुद्र के बहाव में अचानक कमी जैसी घटनाओं की कम सम्भावना है। हालाँकि इन्हें पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता। आईपीसीसी सरकार और संगठनों द्वारा स्वतंत्र विशेषज्ञों की समिति जलवायु परिवर्तन पर श्रेष्ठ सम्भव वैज्ञानिक सहमति प्रदान करने के उद्देश्य से बनायी गयी है। यह वैज्ञानिक वैश्विक तापमान में वृद्धि से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर समय-समय पर रिपोर्ट देते रहते हैं, जो आगे की दिशा निर्धारित करने में अहम होती है।

ख़तरा बढ़ा, बजट घटा

ऐसी स्थिति में जब हम पर्यावरण से जुड़े गम्भीर संकट से दो-चार हैं, केंद्रीय बजट 2021-22 में पर्यावरण मंत्रालय को दी जाने वाली राशि घटा दी गयी। इस वर्ष मंत्रालय के लिए आवंटित कुल बजट 2,869.93 करोड़ रुपये है, जबकि पिछले साल यह 3,100 करोड़ रुपये था। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कितनी राशि आवंटित की गयी है, इसका ज़िक्र भी बजट में नहीं किया गया है। काफ़ी विशेषज्ञों ने कहा है कि यह किसी भी सूरत में ‘ग्रीन बजट’ नहीं कहा सकता है। सरकार ने भले ने 42 शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए अलग से 2,217 करोड़ रुपये की राशि रखी है। हालाँकि सबसे अहम माने जाने वाली जलवायु परिवर्तन कार्य योजना में राशि को 10 करोड़ रुपये घटा दिया गया है।

 

आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप की पहली रिपोर्ट मानवता के लिए ख़तरे का संकेत है। मिल-जुलकर जलवायु त्रासदी को टाला जा सकता है। लेकिन ये रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि इसमें देरी की गुंजाइश नहीं है और अब कोई बहाना बनाने से भी काम नहीं चलेगा। विभिन्न देशों के नेताओं और तमाम पक्षकारों को आगामी जलवायु शिखर सम्मेलन (सीओपी 26) को सफल बनाने में जुट जाना चाहिए।

एंटोनियो गुटरेस

संयुक्त राष्ट्र महासचिव

 

रिपोर्ट की प्रमुख बातें

 पहले हर 50 साल में भीषण गर्मी (हीट वेव) का जो दौर एक बार आता था, वह वर्तमान में हर 10 साल में आना शुरू हो गया है। यही नहीं, बारिश और सूखा भी अब हर दशक के हिसाब से प्रभाव डाल रहा है।

 अगले 20 साल में वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री तक (या इससे भी ज़्यादा) बढ़ जाएगा।

 पूर्व औद्योगिक समय से हुई क़रीब पूरी तापमान वृद्धि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी ऊष्मा को अवशोषित करने वाली गैसों के उत्सर्जन से हुई।

 बढ़ते तापमान का असर समुद्र पर भी पड़ रहा है और उसका स्तर बढ़ रहा है।

 बर्फ़ (गलेशियर) का दायरा सिकुड़ रहा है। इस कारण सूखा, तेज़ गर्मी (लू), बाढ़, तूफ़ान जैसे घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है।

 

हमारे लिए चिन्ता की बात यह है कि पहली बार केंद्र सरकार ने इस बार के बजट में जलवायु परिवर्तन कार्य योजना में आवंटित राशि को 10 करोड़ रुपये कम कर दिया है। जहाँ तक आईपीसीसी रिपोर्ट की बात है, पहले जो बदलाव हमें 100 साल में देखने को मिल रहे थे, वो अब 10 से 20 साल के बीच देखने को मिल रहे हैं। यह बेहद चिन्ताजनक और ख़तरनाक स्थिति है। भारत समेत पूरी दुनिया पर वैश्विक तापमान बढऩे का गहरा प्रभाव पड़ेगा। रिपोर्ट साफ़ संकेत करती है कि इसके नुक़सान की भरपाई नहीं हो सकती है।

गुमान सिंह

पर्यावरण विशेषज्ञ

 

हमारे ग्रह का औसत तापमान पहले ही 1.1 डिग्री तक बढ़ चुका है। बहुत कम देश हैं, जो उत्सर्जन को कम करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। इस रिपोर्ट में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिस पर हैरत हो। यह रिपोर्ट सिर्फ़ उन्हीं बातों को पुष्ट करती है, जो हम हज़ारों रिपोट्र्स और शोधों से जान चुके हैं कि यह आपातकाल है। हम अब भी सबसे बुरे परिणामों से बच सकते हैं; लेकिन जो कुछ आज चल रहा है, वैसे नहीं। संकट को संकट की तरह समझे बिना तो बिल्कुल भी नहीं।

ग्रेटा थनबर्ग

पर्यावरण अभियानकर्ता