क्या सेना में महिलाओं को मिलेगा बराबरी का हक़?

भारतीय रक्षा अकादमी (नेशनल डिफेंस एकेडमी) की प्रवेश परीक्षा 10 अप्रैल को होना तय है और इसके लिए संघ लोक सेवा आयोग ने महिलाओं के लिए मात्र 19 सीटें ही रखी हैं। इससे पहले 2021 में भी 19 सीटें ही रखी थीं। तब सर्वोच्च न्यायालय से केंद्र सरकार ने कहा था कि बुनियादी ढाँचे की समस्या के कारण इतनी कम संख्या रखी गयी है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से दिल्ली के वकील कुश कालरा की अपील पर सरकार से सवाल किया था। पर 2022 में होने जा रही प्रवेश परीक्षा के लिए भी जब सीटें 19 ही रखी गयीं, तो कुश कालरा फिर सर्वोच्च न्यायालय में गये। इस पर न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश की खण्डपीठ ने सरकार के अतिरिक्त महा न्यायाभिकर्ता (सॉलिसीटर जनरल) ऐश्वर्या भाटी से कहा कि सरकार को यह बताना होगा कि उसके आदेश के बावजूद संघलोक सेवा आयोग द्वारा 2022 के लिए अधिसूचित प्रवेश परीक्षा के लिए महिलाओं के वास्ते 19 सीटें ही क्यों रखी गयीं?

खण्डपीठ ने सरकार को अपना जवाब तीन सप्ताह में दाख़िल कर देने और उसके बाद दोनों पक्षों को दो सप्ताह के भीतर उस पर अपना अपना पक्ष पेश करने का समय दिया है। मामले पर अगली सुनवाई अब 6 मार्च  को होगी। यह उम्मीद किसी को भी नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के मार्च में फ़ैसले के बाद भारतीय सेना में महिलाएँ पुरुषों की बराबरी के स्तर पर आ जाएँगी। फिर भी सरकार के तर्क अपने पक्ष में रहे। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिछले कुछ समय से भारतीय सेना में महिलाओं के प्रवेश या पदोन्नतियों को लेकर दिये जा रहे फ़ैसले सरकार व सेना में कूट-कूटकर भरी पुरुष मानसिकता पर कड़ा प्रहार ज़रूर कर रहे हैं। इसलिए यह संख्या 19 से आगे बढ़ेगी, इसकी उम्मीद वे 1002 महिलाएँ ज़रूर करेंगी, जिनका चयन 14 नवंबर, 2021 को हुई एनडीए की प्रवेश परीक्षा के बाद सेवा चयन बोर्ड परीक्षा और चिकित्सा परीक्षण के लिए किया गया है।

वैसे प्रवेश परीक्षा अधिसूचना के मुताबिक, इस परीक्षा में पास महिलाओं में से थल सेना में मात्र 10, नौसेना में तीन और वायुसेना में छ: महिलाएँ ही जा पाएँगी। याचिकाकर्ता कुश कालरा के वकील चिन्मय प्रदीप शर्मा ने परीक्षा में चयनित कुल 8,009 उम्मीदवारों में महिला-पुरुषों की संख्या को आधार बना एक अतिरिक्त हलफ़नामा पेश करके सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान इस बात की ओर दिलाया कि कैसे 2022 में होने जा रही प्रवेश परीक्षा में भी महिलाओं के लिए कुल सीटें और महिला-पुरुष अनुपात 2021 जितना ही है। उन्होंने बताया कि 2021 की परीक्षा के लिए कुल 400 कैडेट चुने जाने थे और उनमें से महिलाएँ मात्र 19 ही थीं। 2022 में होने जा रही परीक्षा से भी 400 कैडेट चुने जाने हैं और उनमें महिलाएँ केवल 19 ही हैं। जबकि केंद्र सरकार की ओर से 20 सितंबर, 2021 को दायर हलफ़नामें में कहा गया था कि मई, 2022 तक महिला कैडेटों की संख्या बढ़ाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाएँ जाएँगे। लेकिन 10 अप्रैल को होने जा रही परीक्षा सम्बन्धी अधिसूचना से साफ़ है कि स्थिति जस की तस है। और यह संविधान के अनुच्छेद-14, 15, 16 व 19 का उल्लंघन है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने अतिरक्त सॉलिसीटर जनरल ऐश्वर्या भाटी से पूछा कि उसके पिछले आदेश के बावजूद यूपीएससी की ओर से 2023 के लिए तय सीटों में महिलाओं का आँकड़ा बढ़ा क्यों नहीं? तब आपने बुनियादी ढाँचे की कमी को कारण बताया था। पर समझ लें कि 19 सीटों की संख्या हमेशा नहीं हो सकती। यह केवल एक तदर्थ उपाय ही था। अप्रैल, 2022 में होने वाली प्रवेश परीक्षा में सफल होने वाले उम्मीदवारों में 400 कैडेटों की भर्ती 2023 में होनी है। तदर्थ उपाय से न्यायालय का क्या अभिप्राय है?

असल में अगस्त, 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले से एनडीए में महिलाओं की भर्ती के लिए रास्ता साफ़ किया था और फ़ैसले की अनुपालना के लिए सरकार ने फोरी तौर पर 19 महिलाओं की भर्ती यह कहकर की थी कि महिलाओं के लिए एनडीए में अभी बुनियादी ढाँचा तैयार करना पड़ेगा। यह एनडीए में महिलाओं की पहली भर्ती थी। इससे पहले सेना में उनके प्रवेश पर बहस व विचार-विमर्श तो लम्बे समय से चल रहा था, मगर भर्ती का फ़ैसला सरकार नहीं ले रही थी, क्योंकि सेना के अधिकारी इसके पक्ष में नहीं थे। इसके पीछे दिये जाने वाले समस्त कारण लैंगिक ही थे। पर दिल्ली के वकील कुश कालरा की अपील पर जब मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और ऋषिकेश राय की खण्डपीठ ने उसे लैंगिक समानता के संवैधानिक तराजू में तौला, तो सरकार व सेना दोनों को हथियार डालने पड़े। संघ लोक सेवा आयोग ने 9 जून, 2021 को अधिसूचना जारी कर एनडीए की प्रवेश परीक्षा के लिए आवेदन माँगे थे। यह केवल पुरुषों के लिए ही थे। कुश कालरा ने इसे संविधान के लैंगिक समानता के अनुच्छेदों का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी।

न्यायालय ने इस पर सरकार व सेना (दोनों) को पार्टी बना न केवल आड़े हाथ लिया, बल्कि सरकार के नीतिगत निर्णय में दख़लंदाज़ी के तर्क की भी धज्जियाँ उड़ायीं। अंतरिम फ़ैसला देते हुए न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि 9 सितंबर को होने जा रही परीक्षा में महिलाओं को भी आवेदन करने दिया जाए। तब आयोग ने नये सिरे से अधिसूचना जारी कर 14 नवंबर को परीक्षा की तारीख़ तय की।

एनडीए में महिलाओं की भर्ती को लेकर उस समय सरकार ने अपना बचाव यह कहकर भी किया था कि सैनिक स्कूलों में लड़कियों का प्रवेश शुरू हो चुका है। इस पर न्यायालय ने उससे पूछा था कि राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज 99 साल पुराना संस्थान है। इसमें लड़कियों का प्रवेश नहीं है। क्या यह अपने 100 साल लैंगिक समानता के आधार पर मना सकेगा? न्यायालय का सवाल ऐसे ही नहीं था। भारतीय सेना में ग़ैर-चिकित्सकीय पदों पर महिला अधिकारियों का पहला जत्था (बैच) लघु सेवा आयोग (शॉर्ट सर्विस कमीशन) के ज़रिये सन् 1992 में आया था। स्थायी आयोग की लड़ाई जीतने में उसे 30 साल लग गये थे। न्यायालय के फ़ैसले के बाद रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट ने कहा कि परीक्षा के लिए कुल 5,75,856 अभ्यर्थियों में से 1,77,654 महिलाएँ थीं। पहली बार में ही इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं का परीक्षा में बैठना बताता है कि वे सेना में जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं और ज़ाहिर है कि शारीरिक मज़बूती व कड़ी मशक़्क़त का अंदाज़ भी उन्हें होगा ही। ऐसे में मात्र 19 सीटों की संख्या को ही दोहरा दिया जाना या तो सरकार व सेना के पितृसत्ता के रवैये का प्रतीक है या फिर लापरवाही। राज्यसभा में दिये गये अपने जवाब में मंत्री ने यह भी बताया था कि सेना में 7,476 अधिकारियों की कमी है। माना जाता है कि इसके पीछे मुख्य कारण अब युवकों का सेना के प्रति रुझान का कम हो जाना है। एक समय था, जब सैनिक परिवारों के बच्चे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सेना में जाते थे। पर अब नयी पीढ़ी कार्पोरेट सेक्टर में जाना पसन्द करती है। ऐसे में महिलाओं की भर्ती न केवल इस कमी को पूरा कर सकती है, बल्कि उनके आने से हमारी सेना का महिला विरोधी चेहरा भी बदलेगा। रक्षा मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, 2020 में चिकित्सा को छोड़ दें, तो भारतीय सेना में महिला अधिकारी मात्र तीन फ़ीसदी थीं। वहीं अमेरिका में 16, फ्रांस में 15, और रूस व ब्रिटेन में 10-10 फ़ीसदी थीं। दुनिया में शिखर पर पहुँचने के सपने देख रहा भारत इस क्षेत्र में अगर पिछड़ा रह जाता है, तो उसके दावों में कमी तो रहेगी ही, संविधान के प्रति उसकी निष्ठा भी शंका के दायरे में खड़ी रहेगी।

सेना के मौज़ूदा रवैये से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। फिर भी सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवणे का बयान उम्मीद बँधाता है। हाल ही में एनडीए परेड देखने के बाद उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला सेना में लैंगिक समानता की दिशा में एक बड़ा क़दम है। मुझे उम्मीद है कि बतौर कैडेट लड़कियाँ लडक़ों से बेहतर प्रदर्शन करेंगी। 40 साल बाद हो सकता वे वहाँ खड़ी दिखायी दें,जहाँ मैं आज खड़ा हूँ।

पर सवाल है कि क्या वह उन 19 महिलाओं को अपने संगठन के भीतर कट्टर-पुरुषवादी नज़रिये से बचाकर अपनी पूरी क्षमताओं के साथ काम करने का माहौल दे पाएँगे, जो 2022 में बतौर कैडेट भर्ती होने जा रही हैं? आगे की राह तो उसी माहौल से आसान होगी।

(लेखिका स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार हैं।)