कुछ सच्चे बारू और कुछ विरोधी भी

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

अगर मनमोहन सिंह राजनेता और उसपर भी महत्वाकांक्षी दिखने वाले होते तो वे न तो प्रधानमंत्री बनते और न ही शायद पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्तमंत्री बनते. 2004 में अगर उन्हें मनोनीत किया गया (वे अंत तक मनोनीत प्रधानमंत्री ही रहे और कभी लोकसभा का चुनाव तक नहीं लड़ा) तो इसकी वजह उनका भारतीय राजनीतिज्ञों के किसी भी खांचे में फिट नहीं होना ही था. अब संजय बारू अपनी किताब के जरिये उन्हीं मनमोहन सिंह को राजनेता बनाने पर तुले हुए हैं. वे यह बताना चाहते हैं कि मनमोहन सिंह ने तो तमाम ऐसे काम किए जो एक योग्य प्रधानमंत्री को करने चाहिए लेकिन यदि किसी को उनके बारे में पता नहीं है तो इसलिए कि उन्होंने अपने इन कृत्यों को कभी प्रचारित नहीं किया. उनकी किताब से यह बात भी निकलती है कि ऐसा उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार को श्रेय देने की वजह से नहीं किया.

बारू ने अपनी किताब में यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री के रूप में वे ऐसे कई काम नहीं कर सके जिन्हें करना चाहते थे. लेकिन अगर वे, उन्होंने जो किया उससे अलग या बड़ा करने के इतने ही काबिल थे तो उनमें ऐसे कामों को करने के रास्ते निकालने की काबिलियत भी होनी चाहिए थी. और अपने कृत्यों का श्रेय खुद लेने और अपनी विफलताओं के सही कारणों को दुनिया के सामने लाने की हिम्मत भी.

सोनिया गांधी ने जब 2004 में लोकसभा चुनाव की सफलता के बाद प्रधानमंत्री का पद ठुकराया था तो क्षुद्र से क्षुद्र स्वार्थों के लिए मरने-मिटाने वाली राजनीति के बीच कई लोगों ने इसे उनका अद्भुत त्याग माना. इस कथित त्याग ने उन्हें तब के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी के भी ऊपर स्थापित कर दिया. हालांकि सच यही था कि वे प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बनी क्योंकि बन नहीं सकती थीं. जिस तरह का अभियान भाजपा, संघ और उनके खुद के पूर्व सहयोगियों ने उस वक्त विदेशी मूल के मुद्दे पर चला रखा था उसके चलते उनका प्रधानमंत्री बनना असंभव था. ऊपर से 90 के दशक की तरह के गठबंधन वाली संप्रग-1 सरकार पर भी शायद वे उतना भरोसा नहीं कर पा रही थीं. उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया.

कोई अनाड़ी भी बता सकता है कि उस वक्त मनमोहन सिंह से ज्यादा अनुभवी और योग्य कई लोग कांग्रेस में थे जिन्हें प्रधानमंत्री बनाना ज्यादा उपयुक्त होता. लेकिन वे तिकड़मी भी थे. और इसीलिए शायद राजनेता भी. तो मनमोहन सिंह खुद में कुछ खासियतें न होने की वजह से प्रधानमंत्री बने थे उसके लिए जरूरी गुणों के होने की वजह से नहीं. उनकी सबसे बड़ी खासियत ही यही थी कि वे बिना किसी तीन-पांच के जैसा कहो वैसा करने वाले का सा आभास देते थे. यानी कि उनके नाम पर खुद की सत्ता चलाई जा सकती थी. वे सत्ता साधने का सहारा बने, सत्ता त्यागने का नहीं.

अगर सत्ता त्यागने और पार्टी का भला चाहने की ऐसी ही निष्काम प्रवृत्ति सोनिया गांधी में थी जैसे कांग्रेसी बताते हैं तो वह उस समय क्यों नहीं दिखी जब 1999 में उनके पुराने सहयोगियों – संगमा, पवार और तारिक अनवर आदि – ने पार्टी के भीतर विदेशी मूल का मुद्दा उठाया था. इनका मानना था कि सोनिया गांधी के विदेशी होने के मुद्दे को संघ और विपक्ष जोर-शोर से उठाने वाले हैं इसलिए इस पर पार्टी में बहस हो और इसे भोंथरा करने के लिए विदेशी मूल के व्यक्ति को सर्वोच्च पद पर बैठने से रोकने वाला संविधान संशोधन लाने की बात पार्टी के घोषणापत्र में शामिल की जाए. इन नेताओं का यह भी मानना था कि सोनिया खुद इस संशोधन को संसद में पारित करवाने की पहल करें.

लेकिन सोनिया गांधी ने इस पर बहस कराना तो दूर अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा देकर ऐसी स्थितियां पैदा कर दीं कि समूची पार्टी ने न केवल उनके कदमों में झुककर उन्हें अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए ‘मजबूर’ किया बल्कि विरोध का झंडा उठाने वालों को बाहर का रास्ता भी दिखा दिया.

तो फिर बारू की किताब के मुताबिक मनमोहन और सोनिया ने जो किया उसमें आश्चर्य कैसा? सोनिया ने वही किया जिसकी उनसे उम्मीद होनी चाहिए थी और मनमोहन सिंह ने भी वही किया जिसकी सोनिया गांधी को उनसे उम्मीद होनी चाहिए थी. नहीं तो वे अपने दो-दो कार्यकाल पूरे ही कैसे कर सकते थे.

रही बात बारू की किताब का विरोध करने वालों की तो उनके विरोध में भी कुछ सच्चाई तो है ही. उनकी किताब आने के समय पर उंगली उठाई जा रही है. कहा जा रहा है कि ऐसा उन्होंने किताब को चर्चा में लाने और व्यावसायिक फायदे के लिए किया. बारू अगर इस बात से इनकार करते हैं तो वह सच नहीं होगा. वे एक बेहद पढ़े-लिखे वरिष्ठ पत्रकार हैं जो यह तो समझते ही होंगे मनमोहन की विरासत का मूल्यांकन तो दो महीने बाद भी हो सकता है लेकिन एक चुके हुए ‘राजनेता’ और (शायद) हारी हुई सोनिया के बारे में पढ़ने में ज्यादा लोगों की दिलचस्पी नहीं होगी.

किताब के जवाब में यह भी कहा जा रहा है कि संजय बारू की प्रधानमंत्री कार्यालय में वह हैसियत और प्रधानमंत्री तक वैसी पहुंच नहीं थी कि वे इतनी और ऐसी बातें लिख सकें जितनी और जैसी उन्होंने लिखी हैं. बात सही है. वे प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव तो थे नहीं कि देश से जुड़ी गोपनीय जानकारियों और प्रधानमंत्री के निजी क्षणों तक भी उनकी पहुंच हो. लेकिन वे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार और मुख्य प्रवक्ता होने के साथ-साथ एक बेहद वरिष्ठ पत्रकार भी तो थे जिसके लिए अपने आसपास की घटनाओं के बारे में जानना और ठीकठाक अंदाजा लगाना उतना मुश्किल भी नहीं रहा होगा.

लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी किताब में लिखी कुछ बातों की तीव्रता सुविधानुसार थोड़ी कम या ज्यादा भी हो सकती है. यदि वे व्यावसायिक मकसद से किताब को ऐन चुनाव के बीच बाजार में ला सकते हैं तो इसी मकसद से उसे थोड़ा-बहुत रंगीन भी बना ही सकते हैं. यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो आज की राजनीति में प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार और प्रवक्ता भी नहीं हो सकते.

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