लेकिन सोनिया गांधी ने इस पर बहस कराना तो दूर अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा देकर ऐसी स्थितियां पैदा कर दीं कि समूची पार्टी ने न केवल उनके कदमों में झुककर उन्हें अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए ‘मजबूर’ किया बल्कि विरोध का झंडा उठाने वालों को बाहर का रास्ता भी दिखा दिया.
तो फिर बारू की किताब के मुताबिक मनमोहन और सोनिया ने जो किया उसमें आश्चर्य कैसा? सोनिया ने वही किया जिसकी उनसे उम्मीद होनी चाहिए थी और मनमोहन सिंह ने भी वही किया जिसकी सोनिया गांधी को उनसे उम्मीद होनी चाहिए थी. नहीं तो वे अपने दो-दो कार्यकाल पूरे ही कैसे कर सकते थे.
रही बात बारू की किताब का विरोध करने वालों की तो उनके विरोध में भी कुछ सच्चाई तो है ही. उनकी किताब आने के समय पर उंगली उठाई जा रही है. कहा जा रहा है कि ऐसा उन्होंने किताब को चर्चा में लाने और व्यावसायिक फायदे के लिए किया. बारू अगर इस बात से इनकार करते हैं तो वह सच नहीं होगा. वे एक बेहद पढ़े-लिखे वरिष्ठ पत्रकार हैं जो यह तो समझते ही होंगे मनमोहन की विरासत का मूल्यांकन तो दो महीने बाद भी हो सकता है लेकिन एक चुके हुए ‘राजनेता’ और (शायद) हारी हुई सोनिया के बारे में पढ़ने में ज्यादा लोगों की दिलचस्पी नहीं होगी.
किताब के जवाब में यह भी कहा जा रहा है कि संजय बारू की प्रधानमंत्री कार्यालय में वह हैसियत और प्रधानमंत्री तक वैसी पहुंच नहीं थी कि वे इतनी और ऐसी बातें लिख सकें जितनी और जैसी उन्होंने लिखी हैं. बात सही है. वे प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव तो थे नहीं कि देश से जुड़ी गोपनीय जानकारियों और प्रधानमंत्री के निजी क्षणों तक भी उनकी पहुंच हो. लेकिन वे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार और मुख्य प्रवक्ता होने के साथ-साथ एक बेहद वरिष्ठ पत्रकार भी तो थे जिसके लिए अपने आसपास की घटनाओं के बारे में जानना और ठीकठाक अंदाजा लगाना उतना मुश्किल भी नहीं रहा होगा.
लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी किताब में लिखी कुछ बातों की तीव्रता सुविधानुसार थोड़ी कम या ज्यादा भी हो सकती है. यदि वे व्यावसायिक मकसद से किताब को ऐन चुनाव के बीच बाजार में ला सकते हैं तो इसी मकसद से उसे थोड़ा-बहुत रंगीन भी बना ही सकते हैं. यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो आज की राजनीति में प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार और प्रवक्ता भी नहीं हो सकते.