‘कुछ नहीं हुआ तो ‘आप’ ने एफआईआर दर्ज करवा दी’

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दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट में 15 फीसदी की गिरावट आई. आपको इसकी क्या वजह लगती है? दिल्ली मेट्रो से पहले तक घर से दफ्तर आने-जाने में जूझते रहे वर्ग ने कांग्रेस के बजाय आम आदमी पार्टी को वोट देने का फैसला क्यों किया?
मुझे लगता है कि इसकी सिर्फ एक वजह नहीं थी. कई कारण थे. शायद पूरे देश में भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ गुस्सा था और इसलिए वह गुस्सा खासकर दिल्ली में निकला क्योंकि केंद्र सरकार यहां से चलती है और मीडिया का जमावड़ा भी यहीं रहता है.  घोटाले की खबर लोग देश के किसी भी कोने में सुन सकते हैं, लेकिन उसका असर सबसे ज्यादा दिल्ली में ही महसूस किया जाता है.

दूसरा मुझे लगता है कि हमारी पार्टी को और ज्यादा मिलजुलकर काम करना चाहिए था. हो सकता है कि ऐसा इसलिए भी हुआ हो कि जनता हमसे ऊब चुकी थी. हम 15 साल सत्ता में रहे हैं. लोगों ने सोचा हो कि एक बार बदलाव करके देखते हैं. यह भी याद रखिए कि दिल्ली में त्रिकोणीय मुकाबला था. आम आदमी पार्टी ने ऐसे कई वादे किए जो पॉश इलाकों में रह रहे एक बड़े वर्ग को काफी भाए–बिजली की कीमतों में 50 फीसदी की कमी, 700 लीटर मुफ्त पानी, सबको नौकरियां, दो लैपटॉप, ठेकेदारी पर काम कर रहे लोगों को स्थायी नौकरी आदि. अब ये वादे आकर्षक तो हैं, लेकिन व्यावहारिक नहीं. अगर ऐसा संभव होता तो मैं बिजली की कीमतें 70 फीसदी घटा देती. हमारे यहां वैसे भी बिजली की दरें देश में सबसे कम हैं. दिल्ली में पांच हजार मेगावॉट बिजली की खपत होती है, लेकिन यहां पैदा होती है सिर्फ 300-400 मेगावॉट. बाकी हम एनटीपीसी और दूसरी कंपनियों से खरीदते हैं. हमने बवाना में 1, 500 मेगावॉट का एक प्लांट लगाया था, लेकिन हमें उतनी गैस ही नहीं मिल सकी इसलिए यह सिर्फ 100-150 वॉट बिजली बना रहा है. कहने का मतलब यह है कि दिल्ली में बिजली नहीं बनती. हमारे पास जमीन नहीं है. यहां तक कि हमारा पानी भी हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश से आता है. इसके पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं हैं न ही यहां खेती होती है. तो यहां और जगहों की तुलना में एक अलग आर्थिक परिदृश्य में काम करना पड़ता है.

अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने आप पर दो मुद्दों को लेकर हमला किया है. उनका दावा है कि राष्ट्रमंडल खेल गांव के निर्माण में भ्रष्टाचार हुआ. दूसरा आरोप 1, 200 कॉलोनियों के नियमितीकरण को लेकर है.
केजरीवाल शुंगलू कमेटी और कैग रिपोर्ट के बारे में बात कर रहे हैं. लेकिन सीबीआई मुझे सारे आरोपों से क्लीनचिट कर चुकी है. मेरे खिलाफ अकेला आरोप यह है कि मैंने कुछ लाइटों का चयन अपने आवास पर किया. हां, मैंने ऐसा किया था. आप जरा जाइए और दिल्ली सेक्रेटेरिएट को देखिए. यह देश की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है. वहां की हर चीज मैंने ही चुनी है. केजरीवाल और उनके साथियों को पता होना चाहिए कि कोई मंत्री मनमाना फैसला नहीं लेता. मंत्री (कार्यपालिका) एक निर्णय पर पहुंचते हैं और किसी चीज के लिए बजट का आवंटन कर देते हैं. राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बने बजट पर जैसे भारत सरकार या डीडीए या अन्य संस्थाओं का हक था, वैसे ही हमारा हक भी था. बजट आवंटन के बाद इंजीनयर और अफसर यह तय करते हैं कि कितना पैसा किस मद में जाएगा. यह पैसा कभी किसी मंत्री तक नहीं आता, मुख्यमंत्री की बात तो छोड़िए. तो यह पूरी तरह से गलत आरोप है. आप लोगों को बरगलाने की कोशिश कर रही है. उनसे कुछ नहीं हो रहा था तो उन्होंने एक एफआईआर दर्ज करवा दी.

शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट में एक इतना-सा वाक्य और भी है कि मुख्यमंत्री ने स्ट्रीट लाइटों के चयन में कुछ दिलचस्पी दिखाई थी. स्ट्रीट लाइटें कैसी होंगी, इसका चयन संबंधित विभागों ने किया था यानी पीडब्ल्यूडी और एमसीडी ने. हमने इस आरोप के बाद न सिर्फ मेरे बल्कि पूरी सरकार के संदर्भ में एक बिंदुवार जवाब लिखा था. यह जवाब शुंगलू कमेटी और प्रधानमंत्री कार्यालय के पास गया था. वह फाइल बिना किसी टिप्पणी के हमारे पास वापस लौट आई जिसका मतलब है कि इसमें कुछ नहीं था. सीबीआई ने भी यह फाइल बिना किसी टिप्पणी के वापस भेज दी थी.

तो जब आप आरोप लगाने के बाद कुछ नहीं ढूंढ़ पाए तो आपने एक ऐसी चीज शुरू कर दी जो स्पष्ट ही नहीं है. लेकिन आम आदमी को लगता है कि एफआईआर दर्ज हो गई तो कुछ गड़बड़ तो रही ही होगी. बस यही बात है. अब वे सलीमगढ़ फोर्ट फ्लाइओवर का मुद्दा उठा रहे हैं जिसका निर्माण रिकॉर्ड समय में हो गया था. वे चाहते हैं कि किसी भी तरह मेरे खिलाफ कुछ मिल जाए. लेकिन जब भी संसद या लोक लेखा समिति, कैग या शुंगलू कमेटी ने कोई सवाल उठाया है हमने उसका जवाब दिया है. मैं आपको वे जवाब दिखा सकती हूं.

‘आप’ यह भी आरोप लगा रही है कि आपने सिर्फ वोट बटोरने या अमीर व मध्य वर्ग के लोगों की मदद करने के लिए अधिकृत कॉलोनियों को नियमित कर दिया.
नहीं, ऐसा नहीं है. अभी भी 1,400 से ज्यादा अनधिकृत कॉलोनियां हैं.

इनको वैध करने की अनुमति शहरी विकास मंत्रालय को देनी थी और केंद्र सरकार ने इसमें कुछ समय लिया. चुनाव के पहले (2008 में) हमने इन कॉलोनियों को प्रॉविजनल सर्टिफिकेट (अस्थायी नियमन प्रमाणपत्र) दिए थे. जो कॉलोनियां लाखों लोगों का घर हैं क्या आप उन्हें ढहा सकते हैं? और वे अमीरों की कॉलोनियां नहीं हैं. वहां मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लोग रहते हैं. हमने एक प्रक्रिया शुरू की थी जहां वे एक तयशुदा रकम देकर अपने घर का मालिकाना हक ले सकते थे. लेकिन यह भी आसान नहीं था क्योंकि कुछ कॉलोनियां आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग) के तहत चिह्नित इलाकों में आती हैं या वन्य क्षेत्र में. उन्हें नियमित नहीं किया जा सकता था.

नगर निगम, जिनमें भाजपा सत्ता में है, को भी यह प्रमाणपत्र देना था कि ये कॉलोनियां किसी नियम का उल्लंघन नहीं कर रही हैं. वहां भी इस प्रक्रिया को धीमा करने की कोशिश की गई. यदि ‘आप’ को लगता है कि वह इन कॉलोनियों को नियमित करने जा रही है तो यह प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है और मेरे हिसाब से 895 कॉलोनियों को नियमित किया जा चुका है. इंदिरा गांधी के समय कई झुग्गी-झोपड़ी वालों को इन कॉलोनियों में बसाया गया था, उनको हाल तक मालिकाना हक नहीं मिला था. हमने इन 40 लाख लोगों को उनके आवास का मालिकाना हक दिया है.

तो फिर दिल्ली में कांग्रेस को इतने कम वोट क्यों मिले? क्या देश की आर्थिक मंदी को इसके लिए किसी हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
मैं नहीं जानती कि वास्तव में आर्थिक मंदी से दिल्ली की आबादी कितनी प्रभावित हुई है. हां, लेकिन हमारी पार्टी इस मोर्चे पर जरूर नाकाम रही कि हम अपनी उपलब्धियों के बारे में जनता को नहीं बता पाए.

तो क्या यह कहना सही होगा कि सरकार जनता से कटी हुई थी?
नहीं, हम जनता से कटे हुए नहीं थे. यदि ऐसा होता तो हम वे काम नहीं कर पाते जो हमने सरकार में रहते हुए किए.

हां, लेकिन वह अलग तरह के जुड़ाव की बात है. आप लोगों की कोई जरूरत महसूस करते हैं और उसे पूरा कर देते हैं. लेकिन एक अन्य तरह का जुड़ाव भी होता है जहां आप जनता से कहते हैं कि देखिए यह काम हमने किया है, आप यह कर सकते हैं, फलाना काम आपके लिए इस वजह से जरूरी था. मेरा मतलब जनता से जुड़कर लगातार उसकी प्रतिक्रिया लेने से है.
हां, इसकी कमी रही क्योंकि हमारी पार्टी उतनी सक्रिय नहीं थी. विधायक अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में काम कर रहे थे. फिर ये ‘आप’ वाले आए जो एक कल्पनालोक बनाना चाहते थे चाहे वह कितना भी बेसिरपैर का या अव्यावहारिक हो. बिना यह समझे कि उनकी बात का क्या मतलब है वे दावा कर रहे थे कि भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा. मेरे ख्याल से लोग इसकी वजह से भावनाओं में बह गए. जैसा मैंने कहा कि यह त्रिकोणीय मुकाबला था और लोग थक भी चुके थे कि हो गया, 15 साल हो गए. तो चलो एक बदलाव करके देखते हैं.

दिल्ली में ऐसा नहीं हुआ कि बहुत लोगों को अपनी नौकरी खोनी पड़ी हो लेकिन यह भी सही है कि पिछले सालों में रोजगार के अवसर भी नहीं बढ़े. साथ ही जैसा राष्ट्रीय आंकड़ों से साफ होता है कि युवाओं को उनकी योग्यता के हिसाब से रोजगार नहीं मिला. यह एक तरह की बेबसी और खुद को कमजोर समझने की भावना थी जिसकी वजह से ‘आप’ को मजबूती और समर्थन मिला.
नहीं, यह तो पूरे देश में हुआ है. लेकिन दिल्ली के लिए यह सच नहीं है. यदि ऐसा होता तो उत्तर-पूर्व या गुजरात से लड़के दिल्ली के कॉलेजों में पढ़ने के लिए क्यों आते और इसके साथ यह भी याद रखा जाए कि देश में एनसीआर वह क्षेत्र है जहां रोजगार के सबसे ज्यादा अवसर होते हैं. लोग गुड़गांव जा सकते हैं, नोएडा जा सकते हैं. इस आने-जाने में 30-40 मिनट ही तो लगते हैं. मेरे हिसाब से तो ऐसा नहीं था कि लोगों के भीतर कोई असुरक्षा की भावना हो. पर मुझे यह जरूर लगता है कि लोग एकरसता से ऊब गए थे या कहें कि वे बदलाव चाहते थे. 2012 का निर्भया मामला भी हमारे लिए काफी नुकसानदायक साबित हुआ. बदकिस्मती से वह हमारे नियंत्रण के बाहर की चीज थी. पुलिस दिल्ली सरकार के अधीन नहीं आती, लेकिन लोगों ने यह बात नहीं समझी. इसकी वजह से छात्रों में काफी असंतोष था.

लेकिन क्या एक सरकार को बदलने भर से असली बदलाव आ सकते हैं?
नहीं, बिल्कुल नहीं. आज भी दिल्ली में बलात्कार हो रहे हैं. आखिर बाकी चीजें तो वैसी ही हैं. खिड़की एक्सटेंशन मामले को ही देख लीजिए. लेकिन निर्भया मामले के समय लोगों ने यह महसूस किया था कि सरकार के बदलने से ही बदलाव आएगा. दुर्भाग्य से लोग दिल्ली में सरकार के अधिकार क्षेत्र और कार्य करने के तौर-तरीकों के बारे में नहीं जानते.

‘आप’ लोकपाल कानून के तहत मुख्यमंत्री को भी लाना चाहती है.  ‘चपरासी से मुख्यमंत्री तक’ यह उनका नारा है. क्या यह व्यावहारिक है? यदि मुख्यमंत्री को इस कानून के तहत लाया जाता है तो इसका क्या असर होगा?
मुझे यह बात समझ नहीं आती कि एक निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने में सरकार को क्या दिक्कत है. केंद्र सरकार तो पहले ही लोकपाल कानून पास कर चुकी है. अन्ना हजारे जी ने कांग्रेस और राहुल गांधी को इसके लिए बधाई भी दी थी. लेकिन हमारे जैसे देश में जहां संघीय व्यवस्था लागू है क्या ऐसा कानून बनाया जा सकता है जो पहले से संसद द्वारा बनाए गए कानून की कुछ बातों का विरोध करता हो? तो आप कर क्या रहे हैं, आप क्या संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं? यह कि देखो मेरे एक जनलोकपाल कानून है और जिसे मैं बिना संविधान में अपने अधिकारों को समझे लागू करना चाहता हूं. आप लोगों से यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि देखो मैं यह चाहता हूं. मैं यह करूंगा. लेकिन मैं किसी प्रक्रिया का पालन नहीं करूंगा. प्रक्रिया यह है कि इसे पहले उपराज्यपाल के पास जाना चाहिए. अब यहां तो ऐसा लग रहा है कि उपराज्यपाल से उन्हें कोई मतलब ही नहीं है. अब यदि आप प्रक्रिया का पालन नहीं करना चाहते और सरकार भी चलाना चाहते हैं तो आप या तो धरना कार्यकर्ता हैं या ऐसे ही कुछ और.

‘आप’ ने विधानसभा से जुड़े प्रशासनिक कामकाज के नियमों से संबंधित खामियों पर कुछ विशेष सवाल उठाए थे. आप भी सरकार के काम करने की इन सीमाओं पर चिंता जाहिर कर चुकी थीं. क्या अब आप इन प्रावधानों को खत्म करना चाहती हैं? जैसे कि कम से कम दिल्ली पुलिस पर कुछ आंशिक नियंत्रण दिल्ली सरकार का भी होना चाहिए.
हां कुछ सीमाओं के भीतर मैं भी ऐसा चाहती. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि दिल्ली देश की राजधानी है. यहां अतिविशिष्ट लोग और विदेशी दूतावास के कर्मचारी रहते हैं. इसलिए इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं है. मुझे लगता है हमें जमीन जैसी कुछ चीजों पर ज्यादा अधिकार मिलना चाहिए क्योंकि सरकार स्कूल बनाती है, अस्पताल बनाती है. दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) यह नहीं करता. तो उसके पास जमीन के सारे अधिकार क्यों हैं? हर बार जब आप कोई स्कूल बनाना चाहते हैं आपको डीडीए के पास जाना पड़ता है. फिर एक बात यह भी है कि पुदुचेरी, गोवा, अंडमान और निकोबार और दिल्ली के सरकारी अधिकारी एक ही कैडर से आते हैं. इतना बड़ा इलाका है और कैडर सबका साझा है. इन सब इलाकों की संस्कृतियां और चुनौतियों में काफी फर्क है, इसलिए कैडर एक ही होने से बहुत मुश्किल हो जाती है. इस मसले को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा तीन समितियां बनाई जा चुकी हैं. मोइली समिति हाल ही की है. इससे पहले वेद प्रकाश समिति और बालकृष्णन समिति का गठन भी किया गया था. इन तीनों ने कहा है कि कम से कम कानून व्यवस्था और ट्रैफिक के लिए दिल्ली सरकार की अपनी पुलिस होनी चाहिए. आप पुलिसबल को विभाजित कर सकते हैं. अतिविशिष्ट लोगों की सुरक्षा गृह मंत्रालय अपने पास रख ले. मैं बस यही कहना चाहती थी लेकिन इसे लागू नहीं किया गया.

तीन समितियों ने यही बात कही है?
बिल्कुल, तीन समितियों ने कही, लेकिन किसी की संस्तुति को लागू नहीं किया गया.

यानी केजरीवाल मजबूत तर्कों की जमीन पर खड़े हैं.
उनके पास भले ही तर्क हों लेकिन उन्हें सबसे पहले प्रक्रियाओं को समझना होगा. मेरा मानना है कि फिलहाल उन्हें इसकी समझ नहीं है.

लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में आप किसी तरह का बदलाव होता देख रही हैं? इस समय ऐसी स्थिति है जिनमें अधिकतर लोग राहुल गांधी को देख कर कहते हैं कि राजनीति कुछ चुनिंदा लोगों के लिए ही है, आम आदमी इसमें घुस ही नहीं सकता. आम आदमी के मन में यह भावना भर गई है कि वे राज्य के बंधक हैं. छुटभैये सरकारी अधिकारी उनके ऊपर एकतरफा फैसले थोपते हैं और उनसे उगाही करते हैं. अगर हम केजरीवाल की तमाम बातों का केंद्रीय बिंदु तलाशें तो वह यही है कि आम आदमी के प्रति नौकरशाही का जो गैरजवाबदेह और अत्याचारी रवैया है उसका अंत होना चाहिए. आपके हिसाब से राजनीतिक वर्ग को इस चुनौती का जवाब कैसे देना चाहिए क्योंकि यह चुनौती तो वास्तविक है?
मैं केजरीवाल से सिर्फ एक सवाल करना चाहती हूं. आपको ऐसा करने से कौन रोक रहा है? अगर आप अपनी सरकार को ज्यादा से ज्यादा सुलभ बनाना चाहते हैं तो इसे और प्रभावी बनाइए, इसे और ज्यादा पारदर्शी बनाइए. आपके पास सूचना का अधिकार है, इसका बेहतर तरीके से इस्तेमाल करिए. दिल्ली से इसकी शुरुआत कीजिए क्योंकि दिल्ली जो आज सोचती है बाकी देश उसे अगले दिन सोचता है. आप दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, आप नौकरशाही को बदल सकते हैं, उसे आधुनिक बना सकते हैं. किसी दूर-दराज के गांव में आप ई-रजिस्ट्रेशन नहीं करवा सकते लेकिन यहां पर करवा सकते हैं. आप मिनट भर में यहां जन्म प्रमाणपत्र, मृत्यु प्रमाणपत्र हासिल कर सकते हैं. कोई आपको रोक नहीं रहा है, बस इच्छाशक्ति की जरूरत है. हमें सिर्फ वादे करने और धोखा देने वाली इच्छाशक्ति नहीं चाहिए. अपने वादों को लेकर बेहद यथार्थवादी होना पड़ता है. आप बिजली कीमतें ऐसे ही कैसे कम कर सकते हैं? कीमतें पहले से ही बेहद दबाव में हैं. पहले उन्होंने कहा कि कीमतों में 50 फीसदी कमी का लाभ सबको मिलेगा, बाद में कहने लगे नहीं सिर्फ 400 यूनिट तक ही लागू होगा जो कि हमने पहले ही कर दिया था.

केजरीवाल को भारत के दूसरे हिस्सों में भी जबरदस्त समर्थन मिल रहा है. लोगों को लग रहा है कि उन्हें एक नया विकल्प मिल गया है. वे उम्मीदों पर खरा उतरें या नहीं लेकिन फिलहाल लोगों को एक नई उम्मीद का अहसास तो हो ही रहा है. राजनीतिक दलों को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए इसका जवाब ढूंढ़ना होगा. मैं आपसे दो बातें विशेष तौर पर पूछना चाहता हूं. पहला, ये जो राजनीतिक भ्रष्टाचार का मुद्दा है उसकी जड़ में राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए होने वाली भारी-भरकम पैसे की जरूरत है. और यह पैसा लेने का कोई कानूनी जरिया नहीं है. व्यक्तिगत चंदा या व्यक्तिगत कॉरपोरेट चंदा पर्याप्त नहीं है. इस पर काफी बहस पहले ही हो चुकी है. सरकारी खर्च पर चुनाव को लेकर आपकी क्या राय है?
बिल्कुल, मैं सरकारी खर्च पर चुनाव के पक्ष में हूं. आपको अपने चुनाव का खर्च खुद ही जुटाना पड़ता है. हम इतना पैसा कहां से इकट्ठा करेंगे और अगर नहीं कर पाएंगे तो पेट्रोल का पैसा भी नहीं चुका पाएंगे.

दूसरी बात पर भी काफी बहस हो चुकी है. फंडिंग के मामले में हमेशा आपसी लेन-देन की बात सामने आती है. लोगों से पैसा लोन के रूप में लिया जाता है और बदले में उन्हें तमाम तरीकों से फायदा पहुंचाया जाता है.
नहीं, मुझे नहीं लगता कि कोई भी लोन लेता है. मैंने आज तक किसी के लोन लेने की बात नहीं सुनी क्योंकि इसमें बहुत खतरा है. अगर मैं हार गई तो मैं क्या करूंगी?

आपके पास उन्हें लाभ पहुंचाने के तमाम रास्ते होते हैं.
जो भी हो, आपसी लेन-देन की स्थिति तब पैदा होती है जब कोई व्यक्ति आपकी जरूरत के समय आपका साथ देता है. अगर सरकार इस मुद्दे पर विचार करे तो इसमें और पारदर्शिता लाई जा सकती है. आप एक चीज के लिए इतना दे दें, पेट्रोल के लिए इतना दे दें, वगैरह-वगैरह. राज्य सरकार को इसकी पहल करनी चाहिए. हम पश्चिमी यूरोप और ऑस्ट्रेलिया की तर्ज पर भी आगे कदम बढ़ा सकते हैं. इन चीजों पर लगातार विचार होता रहना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र को सजीव बनाए रखने के लिए चुनाव बेहद जरूरी हंै.

नौकरशाही की गैरजवाबदेही बहुत चिंताजनक है. यह बात जाहिर है कि भ्रष्टाचार एक तरह की सरकारी उगाही है. यह ऐसा है कि हम आपको वह सब करने की छूट देंगे बदले में आप हमें कुछ देते रहिए, यह एक किस्म की उगाही है. सिटिजन चार्टर के जरिए जवाबदेही की दिशा में एक कदम बढ़ाया गया है. अगला कदम धारा 311 में संशोधन का हो सकता है. इसके जरिए ऐसे लोगों को सजा देने का प्रावधान किया जा सकता है जो अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं. क्या यह संभव है?
नौकरशाही कानून के दायरे में काम करती है. कोई भी नौकरशाह इस दायरे से बाहर जाकर कोई काम नहीं कर सकता. वह इससे बाहर कैसे जा सकता है?  आप नौकरशाहों को दिए जा रहे प्रशिक्षण पर ध्यान दीजिए. जो व्यवस्था इतने सालों में हमने विकसित की है, वह बेहद जटिल है. आप जानते हैं मुझे अपनी पेंशन के लिए दस पन्ने का फॉर्म भरना पड़ा जो कि मेरा अधिकार है. मेरा मन खिन्न हो गया. मैंने कहा मैं दस्तखत कर देती हूं, आपका जो मन करे करना. हमने ऐसा सिस्टम बनाया है जिसमें अधिकारी कह सकता है कि फलां नियम का अर्थ यह है. और जब हम उसे दूसरा अर्थ बताते हैं तो वह कहता है कि यहां वह अर्थ लागू नहीं होता. फलां नियम सही है, फलां नियम गलत है. हमें इन जटिलताओं को समाप्त करके उन्हें आसान बनाना होगा, हम अंग्रेजी राज में नहीं रह रहे. हमें लोगों पर विश्वास करना होगा. अगर आप आपसी विश्वास और भरोसे पर काम करते हैं तो आपके सफल होने की संभावना काफी बढ़ जाती है. नौकरशाह इस सोच के साथ काम करता है कि अच्छा, शीला दीक्षित आ रही है, जरूर उसे कोई गलत काम करवाना होगा, और मैं सोचती हूं कि वह मेरे सही काम के लिए भी पैसा जरूर मांगेगा. यह सोच बदलनी होगी.

आप कह रही हैं कि जटिल नियम-कायदों का इस्तेमाल नौकरशाहों को जवाबदेही से बचाने के लिए हो रहा है. तो फिर शुरुआत कहां से होगी? यहां असंख्य विभाग हैं, और आपको हर विभाग के भीतर जाकर इन प्रक्रियाओं को सुधारना होगा. इसके लिए किस तरह की संस्था की जरूरत है? 
मैं किसी नई संस्था के पक्ष में कतई नहीं हूं. यहां पहले से ही अनगिनत संस्थाएं और समितियां हैं. मेरे हिसाब से मैं उन दो-चार संस्थाओं को चुनूंगी जो आम आदमी की रोजमर्रा की गतिविधियों को प्रभावित करते हैं. कोई दो या तीन विभाग चुन लीजिए. इसके बाद उनमें मौजूद समस्याओं को समझने के लिए दो या तीन महीने से ज्यादा नहीं लगने चाहिए. बड़ी-बड़ी चीजों की शुरुआत ऐसे ही छोटे-छोटे बदलावों से होती है. आपको अपने यहां टाटा मोटर्स का प्लांट लगाना है, इसमें छह महीने लगते हैं, आप एक छोटी-सी परचून की दुकान खोलना चाहते हैं, इसमें भी छह महीने लग जाते हैं. मेरा कहना बस यह है कि चीजों का कोई तुक होना चाहिए.