कांग्रेस के ‘छत्तीस’गढ़

चरणदास महंत और प्रिय दत्त नक्सलवादी हमले में मारे गए नेताओं की श्रद्धांजलि सभा में; फोटो-अशोक साहू
चरणदास महंत और प्रिय दत्त नक्सलवादी हमले में मारे गए नेताओं की श्रद्धांजलि सभा में; फोटो-अशोक साहू

छत्तीसगढ़ में 2008 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा, भूपेश बघेल, मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण वोरा समेत कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता सत्यनारायण शर्मा अपनी-अपनी सीटें हार गए थे. ये राज्य के दिग्गज नेता थे. इनकी हार के साथ ही कांग्रेस में सिरफुटौव्वल मच गई. तमाम नेता एक-दूसरे पर भीतरघात का आरोप लगाने लगे. यह पार्टी में गुटबाजी के सतह पर आने का दौर था. वोरा गुट, जोगी गुट (अजीत जोगी), शुक्ल गुट (विद्याचरण शुक्ल) और महंत गुट (चरणदास महंत) खुलेआम एक-दूसरे पर आरोप लगाने लगे. इसके बाद तीन साल में कांग्रेस की हालत यह हो गई कि विपक्ष की भूमिका निभाना तो दूर कांग्रेस के नेता खुद एक-दूसरे पर सरकार से सांठ-गांठ का आरोप लगाने लगे. यहां तक कि कांग्रेस के पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र सिंह कर्मा को भाजपा की रमन सिंह सरकार का कैबिनेट मंत्री कहा जाने लगा. पार्टी की इसी हालत के बीच अप्रैल, 2011 में नंदकुमार पटेल को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. पटेल को राज्य में एक हद तक गुटनिरपेक्ष कांग्रेसी नेता माना जाता था. यही वजह रही कि अध्यक्ष बनने के बाद से कांग्रेस के धरने-प्रदर्शन सफल होने लगे. इसका पहला नजारा जून, 2011 में कांग्रेस की भ्रष्टाचार विरोधी महारैली में देखने को मिला जब रायपुर में तकरीबन 70-80 हजार लोगों की भीड़ जुट गई. इसे कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं का समर्थन मिला और इसके साथ पार्टी में एकजुटता दिखाई देने लगी.

यह सिलसिला हाल की परिवर्तन यात्रा तक जारी रहा. लेकिन बीती मई इसी परिवर्तन यात्रा में नक्सलवादी हमले और नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा और विद्याचरण शुक्ल की हत्या के बाद कांग्रेस फिर 2008 की हालत में लौटती दिख रही है. इसी जून में चरणदास महंत के कार्यवाहक अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में एक बार फिर गुटबाजी होने लगी है. इसकी वजह बताते हुए वरिष्ठ पत्रकार नारायण शर्मा कहते हैं, ‘चरणदास महंत की अपनी कोई मौलिक राजनीतिक शैली नहीं है. उनके बारे में विख्यात है कि वे दिग्विजय सिंह से संचालित होते रहे हैं. केंद्र में कृषि राज्य मंत्री बनने के बाद भी उनकी ऐसी कोई उपलब्धि नहीं दिखी जिसे रेखांकित किया जा सके. जहां तक संगठन का सवाल है तो उन्होंने अपने पूर्व के कार्यकाल में ही कभी यह साबित नहीं किया कि वे कार्यकर्ताओं को उत्साह से लबरेज करने के लिए कुछ कर सकते हैं. उनका और उनके समर्थकों का अधिकांश समय अजीत जोगी के शक्तिशाली खेमे से निपटने में ही जाया होता रहा है.’

महंत के बारे में नारायण की राय एक हद तक सही मालूम पड़ती है. बस्तर के कोंडागांव जिले में केशकाल नगर पंचायत के अध्यक्ष पद के लिए इसी जून में हुए चुनाव में इस बात के स्पष्ट संकेत मिले. इनमें पहले कांग्रेस ने अजीत जोगी के समर्थक अमीन मेमन की भाभी शाहिना मेमन को अपना प्रत्याशी बनाया था. लेकिन महंत के कार्यवाहक अध्यक्ष बनने के साथ ही शाहिदा के स्थान पर ममता चंद्राकर नाम की एक महिला को टिकट दे दिया गया. टिकट कटने से नाराज शाहिदा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और वे चुनाव जीत गईं. इसके बाद से महंत गुट लगातार आरोप लगा रहा है कि यहां अजीत जोगी के समर्थकों ने कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ काम किया है. हारी हुई कांग्रेस प्रत्याशी तो आधिकारिक रूप से प्रदेश कांग्रेस कमेटी में इसकी शिकायत दर्ज करवा चुकी हैं.

गौरतलब है कि वर्ष 2003 में जोगी के सत्ता से हटने के बाद महंत को संगठन में कई मौके मिल चुके हैं. (राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि यह मौके उन्हें दिग्विजय सिंह के करीबी होने की वजह से हासिल होते रहे) कभी उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है, कभी कार्यवाहक तो कभी पूर्णकालिक. वर्ष 2006 और 2007 में वे पूर्णकालिक अध्यक्ष बनाए गए थे लेकिन संगठन में उनकी निष्क्रियता को लेकर सवाल उठते ही उनसे अध्यक्ष पद की जवाबदारी वापस ले ली गई. इस बार जब चरणदास महंत को दोबारा प्रदेश राज्य कांग्रेस की कमान सौंपी गई तो छत्तीसगढ़ के राजनीतिक प्रेक्षकों के लिए यह चौंकाने वाली घटना थी. दरअसल इसके साथ ही कांग्रेस हाईकमान ने राज्य में पार्टी के सबसे प्रभावी नेता अजीत जोगी को एक तरह से किनारे कर दिया. और अब महंत और जोगी गुट आमने-सामने दिख रहे हैं. हालांकि महंत किसी तरह की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से इनकार करते हैं. संगठन में अपनी बार-बार की पदस्थापना को लेकर सफाई देते हुए वे बस इतना कहते हैं, ‘ मैं तो कांग्रेस का एक अदना-सा सिपाही हूं. संगठन जब-जब जिम्मेदारी सौंपता है, मैं उसका निर्वाह पूरी ईमानदारी के साथ करता हूं.’

दिग्विजय यहां भी
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को छत्तीसगढ़ में सीधे तौर पर कभी कोई जिम्मेदारी नहीं मिली. लेकिन राज्य कांग्रेस में उनकी दिलचस्पी और कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव होने के नाते दखल हमेशा बना रहा है. सिंह पर कांग्रेस के सबसे पुराने और ताकतवर शुक्ल खेमे को तबाह करने का आरोप भी काफी पुराना है. प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक रमेश नैय्यर बताते हैं, ‘दिग्विजय सिंह ने एक समय शुक्ल बंधुओं के लिए ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी थीं जिनमें वे सांसद और विधायकों के टिकट वितरण में राय-मश्विरा दिए जाने के काम से भी वंचित कर दिए गए.’ जहां तक जोगी और दिग्विजय सिंह के बीच तनातनी की बात है तो इसकी जड़ें 1992 की एक घटनाक्रम में खोजी जा सकती हैं. उस समय मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए सिंह ने छत्तीसगढ़ के मैनपुर इलाकों में स्थित हीरा खदानों को डी-बियर्स कंपनी को सौंपने का फैसला लिया था.

इस पर जोगी सहमत नहीं थे. उन्होंने पदयात्रा निकालकर इसका विरोध किया और राज्य सरकार का फैसला खटाई में पड़ गया. तब से शुरू हुई राजनीतिक दुश्मनी इन दोनों के बीच अभी तक जारी है. इसकी एक बानगी अभी हाल के दिनों में तब देखने को मिली जब दिग्विजय सिंह नक्सली हमले में मृत नेताओं को श्रद्धांजलि देने छत्तीसगढ़ पहुंचे.

यहां कांग्रेस भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में जोगी ने सिंह को बाहरी नेता बताकर उनके इलाके राघोगढ़ को तुकबंदी में जोड़ते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ का भला छत्तीसगढ़ के नेता ही कर सकते हैं, प्रतापगढ़ और फतेहगढ़ के नेता नहीं. सिंह ने भी पलटवार करते हुए जवाब दिया कि उनका विरोध वे लोग ही कर सकते हैं जो भाजपाई हैं या नक्सली. गौरतलब है कि चरणदास महंत दिग्विजय सिंह के करीबी माने जाते हैं. ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि महंत के कार्यवाहक अध्यक्ष रहते हुए जोगी गुट को राज्य कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका से दूर ही रखा जाएगा.

G2जोगी पर नजर
छत्तीसगढ़ के राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा है कि जोगी पर उनके समर्थक नई पार्टी गठित करने के लिए दबाव बनाए हुए हैं. जबकि बदले हुए राजनीतिक समीकरण के मद्देनजर जोगी के एक करीबी नेता का दावा है कि उनसे बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के आला नेता लगातार संपर्क बनाए हुए हैं. हालांकि तमाम चर्चाओं पर पूर्व मुख्यमंत्री तहलका से बात करते हुए साफ कहते हैं, ‘मेरा कांग्रेस छोड़ने का कोई इरादा नहीं है. लेकिन सक्रिय राजनीति में जब उतार-चढ़ाव का दौर आता है तो समर्थकों के बीच सही और गलत फैसलों को लेकर मंथन चलता ही है.’ क्या महंत की नियुक्ति से कांग्रेसियों में असंतोष है, यह पूछे जाने पर जोगी वर्तमान अध्यक्ष के बजाय नंदकुमार पटेल की तारीफ करते हुए कहते हैं, ‘पटेल के भीतर संघर्ष का माद्दा सिर्फ इसलिए था क्योंकि उन्होंने अपने आस पास कभी व्यापारी और बदनाम लोगों को भीड़ एकत्रित नहीं की. वे जितने सरल और सहज थे उनके आस पास भी उतने ही सरल-सहज और जुझारू लोग मौजूद रहते थे.’

दरअसल पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी के काफिले पर नक्सलवादी हमले के बाद राज्य में ऐसी अफवाहें उड़ी थीं कि इसमें जोगी का हाथ है. दिलचस्प बात थी कि इस बारे में सबसे ज्यादा सवाल कांग्रेस पार्टी की ओर से ही उठाए गए. जोगी के एक विश्वासपात्र बताते हैं, ‘यह पार्टी के सामने जोगी को खलनायक दिखाने का खेल था. कांग्रेस के बाकी गुटों का मानना था कि पटेल के बाद जोगी या उनके किसी समर्थक को अध्यक्ष बनाया जा सकता है इसलिए उन्हें बदनाम करके पार्टी से बाहर कर दिया जाए.’ तो क्या इस गुटीय लड़ाई में जोगी का पार्टी से बाहर होना कांग्रेस के लिए सामान्य घटना होगी? वरिष्ठ पत्रकार विक्रम जनबंधु कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ में जोगी का व्यापक जनाधार है, यह बात उनके राजनीतिक विरोधी भी स्वीकारते हैं. उनके पार्टी छोड़ने या अन्य संभावनाओं को तलाशने से कांग्रेस को निर्णायक नुकसान उठाना पड़ सकता है.’

दरअसल अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के कुछ फीसदी वोटों पर जोगी की अपनी पकड़ आज भी  कायम है. ऐसे ही कुछ फीसदी वोटों के चलते महंत और वोरा गुट से जुड़े लोगों के भीतर जोगी के हस्तक्षेप का एक डर बना हुआ है. इन गुटों के कई नेताओं का विचार है कि जोगी चुनाव में जीत तो नहीं दिलवा सकते लेकिन उनके समर्थकों की परोक्ष अथवा अपरोक्ष कोशिश किसी जीत को हार में जरूर बदल सकती है.

नेताओं की हार के बारे में जोगी का अपना नजरिया है. वे कहते हैं, ‘भीतरघात जैसा शब्द उन लोगों का गढ़ा हुआ है जिनका अपना कोई जनाधार नहीं होता.’ जोगी आगे कहते हैं, ‘प्रदेश अध्यक्ष रहे धनेंद्र साहू चुनाव हारे. हाल में ही कार्यक्रम समन्वयक बनाए गए भूपेश बघेल को पहले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा. यहां तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा अपने पुत्र अरुण वोरा की जीत सुनिश्चित नहीं कर सके तो इन नेताओं को समझ लेना चाहिए कि जनता के बीच उनका जनाधार कितना कमजोर है.’ नंदकुमार पटेल के नेतृत्व में कांग्रेस यह साबित कर चुकी है कि वह यहां दमदार विपक्ष है. लेकिन हाल की गुटबाजी से यह भी साबित हो रहा है कि राज्य में अपने अतीत की तरफ कांग्रेस कभी भी लौट सकती है.