क़ानून के सही प्रयोग और कुछ सुधारों से मिटेगा भ्रष्टाचार

6. इसके अतिरिक्त प्रभावशाली ढंग से जाँच के लिए यह भी आवश्यक है कि किसी भी अपराध के लिए यथासम्भव एक ही जाँच अधिकारी या एक जाँच अधिकारी के नेतृत्व में एक ही टोली (टीम), अपराध की जाँच करे। इसका एक यह भी लाभ होगा कि सत्र परिक्षण के अन्त में त्रुटिपूर्ण या बेईमानी के जाँच के लिए उत्तरदायित्व निर्धारित किया जा सके।

7. अपराध की सूचना देने वाले की पहचान को पूर्ण रूप से गोपनीय रखा जाए। सही सूचना देने वाले को अपराधी की सज़ा होने पर ईनाम का प्रावधान होना चाहिए। इसी प्रकार से जानबूझकर या द्वेष की भावना से ग़लत सूचना देने वाले का उत्तरदायित्व निर्धारित कर उसे भी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए। इससे ईमानदार व्यक्ति के विरुद्ध द्वेषपूर्ण शिकायतों में कमी आएगी।

राज्य सरकारों की जाँच संस्थाएँ
1. राज्य सरकारों के अधीन काम करने वाले पुलिस विभाग की तो और भी हालत दयनीय है। एक दारोग़ा जो आज चौराहे पर यातायात नियंत्रण कर रहा होता है, उसे दूसरे ही दिन किसी नेता के सुरक्षा में लगा दिया जाता है। फिर किसी जाँच में लगा दिया जाता है। कितने क्षेत्रों में समाज और सरकार के विभाग बँटे हुए हैं? इसकी गिनती भी करना मुश्किल है। जैसे संगीत, शिक्षा के कई स्तर, विश्वविद्यालय की डिग्री सम्बन्धित अपराध, बिजली विभाग, चिकित्सा, शिक्षा चिकित्सा, महापालिका आदि। ऐसे में एक साधारण से पुलिस वाले से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह सभी क्षेत्रों में निपुणता प्राप्त कर लेगा।

2. इसी कारणवश पुलिस जाँच में इतनी $खामियाँ रह जाती हैं कि मुक़दमे छूटने का फ़ीसद इतना रहता है कि कभी किसी के साथ न्याय हो पाना मुश्किल हो जाता है। कई बार असल अपराधी के विरुद्ध आरोप पत्र ही नहीं प्रस्तुत हो पाता है और कभी-कभी पूर्ण निर्दोष के विरुद्ध आरोप-पत्र प्रस्तुत हो जाता है। यही नहीं, कई बार तो असल अपराधी साफ़-साफ़ बच जाता है और निर्दोष को सज़ा हो जाती है।

3. ऐसे में आवश्यकता है कि केंद्रीय विभागों और केंद्र सरकार से सम्बन्धित विभागों के जाँच के लिए जाँच संस्था का स्वतंत्र संवर्ग बनाकर केंद्र सरकार की ही तरह उन जाँच संस्थाओं को स्वतंत्र रूप से काम करने का अवसर दिया
जाना चाहिए।

4. इसका एक लाभ यह भी होगा कि त्रुटिपूर्ण जाँच या बेईमानी से हुई जाँच में उत्तरदायित्व निर्धारित करने में भी आसानी होगी।

विशेष लोक-अभियोजक
1. जिस प्रकार से निष्पक्ष और योग्य जाँच अपराध के लिए उत्तरदायित्व ठहराने के लिए अभियुक्त निर्धारित करना आवश्यक होता है, उसी तरह उस अभियुक्त को न्यायालय से सज़ा दिलाने के लिए एक योग्य लोक-अभियोजक की भी आवश्यकता होती है। भ्रष्टाचार सम्बन्धी मुक़दमों को न्यायालय में प्रस्तुत करने, साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए और बहस के लिए एक स्वतन्त्र, योग्य और ईमानदार लोक-अभियोजक की भी आवश्यकता होती है।

2. अत: विशेष न्यायालयों में सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए एक स्वतंत्र विशेष लोक-अभियोजक का संवर्ग हो। इन लोक अभियोजकों को कम-से-कम 10 वर्ष तक वकालत का अनुभव होना चाहिए और इनकी सेवानिवृत्ति की आयु निर्धारित होनी चाहिए। ऐसा न हो कि एक सरकार के बनने पर सत्ताधारी पार्टी के चहेतों को लोक-अभियोजक बना दिया जाए और शासन परिवर्तन होते ही उन्हें हटा दिया जाए।

3. उच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के मुक़दमों की पैरवी के लिए इसी संवर्ग के विशेष लोक-अभियोजक के अधिकारियों को ही बहस और पैरवी के लिए पदोन्नति देकर ज़िम्मेदारी देनी चाहिए। इससे संवर्ग के विशेष लोक-अभियोजकों के मन में और भी मेहनत तथा ईमानदारी से काम करने की रुचि बढ़ेगी।

विशेष न्यायालय
1. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में यह प्रावधान है कि अधिनियम के अंतर्गत सभी अपराधों के परिक्षण के लिए विशेष अदालतें होंगी, जो किसी भी अपराध का सीधा संज्ञान लेंगी। उन मुक़दमों को दण्डाधिकारी (मजिस्ट्रेट) के यहाँ ले जाने की ज़रूरत नहीं होगी।

2. इसी प्रकार से वर्तमान अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि यथासम्भव प्रतिदिन के हिसाब से किसी भी परीक्षण की कार्यवाही सम्पन्न की जाएगी और दो वर्ष के अन्दर यथासम्भव परिक्षण सम्पन्न कर दिया जाएगा। और यदि दो वर्ष में कार्यवाही समाप्त नहीं हो पाती है, तो एक समय में कारण बताते हुए छ: माह तक के लिए कार्यवाही सम्पन्न करने की कोशिश की जाएगी। ऐसे विभिन्न कारणों से कभी भी क़ानून का पालन नहीं हो पाता है। इसे स$ख्ती से पालन कराने की आवश्यकता है।

3. आज की तिथि में उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की विशेष अदालतें लखनऊ और गा•िायाबाद में ही हैं। इतनी दूर और इतने कम विशेष न्यायालय होने के कारण मुक़दमों की सुनवायी में बहुत कठिनायी होती है। मेरे विचार से ऊपर लिखे गयी जाँच एजेंसीज के गठन के बाद एकाएक मुक़दमों की भरमार होगी। यह अत्यंत आवश्यक होगा कि विशेष न्यायाधीशों की अदालतें प्रत्येक ज़िले में उसी तरह बनायी जाएँ जैसे कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति उत्पीडऩ अधिनियम के अंतर्गत विशेष न्यायाधीश की अदालतों की स्थापना प्रत्येक ज़िले में की गयी है।

4. अधिनियम में यह भी प्रावधान किया जाए कि सत्र परिक्षण के समापन के समय यदि मुक़दमा छूटता है, तो न्यायालय जाँच अधिकारी द्वारा जानबूझकर की गयी लापरवाही या किसी को लाभ पहुँचाने के लिए किये गये कृत्य के लिए उसके उत्तरदायित्व को निर्धारित करे।

निचोड़
1. भ्रष्टाचार एक ऐसा रोग है, जो मानव उत्पत्ति के समय से ही तक़रीबन सभी देशों में क्षेत्र, जाति, वर्ग, धर्म के आधार पर हर स्थान और संस्था में व्याप्त है। हाँ, कभी और कहीं-कहीं यह कम होता है और कहीं बहुत अधिक भी होता है। परन्तु इसको रोकने का प्रयत्न सदैव से होता रहा है। इसे रोकना शासक की इच्छाशक्ति, ईमानदारी और प्रयत्न पर निर्भर करता है। इससे हारकर हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाने से कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला है।

2. यदि शासक और शासन एक बार ठान ले और इसे दूर करने की सोच लें, तो मानव कल्याण के लिए इससे अच्छी और कोई बात नहीं हो सकती। भ्रष्टाचारियों से निपटने के लिए भारत में उसी तरह से क़ानून, व्यवस्था और सज़ा का प्रावधान करना चाहिए जैसा कि नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेन्सेज के अपराधियों और बाल यौन शोषण करने वाले अपराधियों के साथ किया जा रहा है।

3. ऑस्टिन का सिद्धांत है कि प्रतिबन्ध या भय या कठोरता ही ऐसा उपाय है, जिससे अपराध को कम किया जा सकता है। भ्रष्टाचारियों से निपटने के लिए किसी भी उदारता का परिचय नहीं देना चाहिए। सरकार प्रत्येक वर्ष आम जनता के कल्याण के लिए एक-से-एक कर कई योजनाएँ बनाती है और उन्हें लागू करने के लिए कार्यपालिका पर छोड़ देती है। यदि भ्रष्टाचार से कठोरता से योजनाबद्ध तरीक़े से नहीं निपटा जाएगा, तो सरकार के जन-कल्याण के सारे प्रयत्न विफल होते रहेंगे।

4. मैं जो कुछ भी सुझाव दे सकता हूँ, वो सभी मेरे अपने अनुभवों पर आधारित हैं। मैं यह तो नहीं कह सकता कि मेरे सुझाव सर्वोत्तम हैं। परन्तु यदि सरकार की इच्छा शक्ति भ्रष्टाचार को कम करने की है, तो इन पर जन-हित और देश-हित में विचार किया जा सकता है।

मुझे आशा है कि सरकार भ्रष्टाचार के मामले में जो जीरो टॉलरेंस (शून्य सहनशीलता) की बात कहती है; उसे लागू भी करेगी।

(लेखक लखनऊ उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं समाजसेवी हैं।)