कपड़ा उद्योग पर फिर संकट के बादल

पिछले दिनों भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ (सिटी) के सदस्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले। उन्होंने प्रधानमंत्री से घरेलू उद्योग के संरक्षण के लिए कपास पर आयात शुल्क हटाने की माँग करते हुए कहा कि भारत में कपास की क़ीमतें अन्तरराष्ट्रीय स्तर से अधिक हो गयी हैं। इससे कपड़े पर तेज़ी से महँगाई बढ़ी है, जो स्वाभाविक है। परिसंघ ने कहा कि आसमान छू रही कपास की क़ीमतों ने कपड़े के दाम में बढ़ा दिये हैं, जिससे कपड़ा उद्योग का सम्भावित विकास रुक रहा है और बाज़ार में अनिश्चितता पैदा हो रही है।

उसने कहा कि सितंबर, 2020 में कपास की क़ीमत 37,000 रुपये प्रति कैंडी (प्रति 355 किलोग्राम) थी। ठीक एक साल बाद अक्टूबर, 2021 में यह बढ़कर 60,000 रुपये प्रति कैंडी हो गयी। कपास होता है। वहीं नवंबर, 2021 में फिर प्रति कैंडी की क़ीमत 64,500 रुपये से 67,000 रुपये के बीच पहुँच गयी। इसके बाद 31 दिसंबर, 2021 को कपास की क़ीमत में फिर जबरदस्त उछाल आया और यह 70,000 रुपये प्रति कैंडी के उच्चस्तर पर पहुँच गयी।

इतना ही नहीं कपड़ा उद्योग निकाय ने तर्क दिया कि भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ ने बताया कि वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में पाँच फ़ीसदी मूल प्रतिपूर्ति शुल्क, पाँच फ़ीसदी कृषि अवसंरचना विकास उपकर (एआईडीसी) और 10 फ़ीसदी समाज कल्याण उपकर लगाये जाने से कपास पर लगने वाला आयात शुल्क 11 फ़ीसदी हो गया है। इससे न केवल भारतीय कपास की क़ीमत अन्तरराष्ट्रीय मूल्य से ज़्यादा हो गयी है, बल्कि यह देश में पहली बार हुआ है। इससे निर्यातकों को ऑर्डर प्राप्त में कठिनाई हो रही है और कपड़े के दाम अनाप-शनाप बढ़ रहे हैं।

भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ (सिटी) के अध्यक्ष टी. राजकुमार ने कहा कि बाज़ार में 31 दिसंबर, 2021 तक कपास की क़रीब 121 लाख गाँठें ही आ सकी थीं, जबकि पहले इस मौसम में आमतौर पर कम-से-कम 170 से 200 लाख गाँठों की आवक हुआ करती थी। आपूर्ति की इस कमी को व्यापारियों की चिन्ता बढ़ी हुई है, जो स्वाभाविक है।

कपास का मिलों तक नहीं पहुँचने और अच्छी गुणवत्ता वाले कपास की कमी से परेशानी बढ़ रही है, जिसका फ़र्क़ वस्त्र उत्पादन पर पड़ रहा है। उन्होंने परिसंघ की तरफ़ से प्रधानमंत्री को बताया कि इन दिनों कपास की क़ीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से क़रीब 65 फ़ीसदी ज़्यादा है, इसलिए वे आयात शुल्क घटाएँ, ताकि वस्त्र उद्योग को सुगमता हो सके। क्योंकि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारतीय वस्त्र उद्योग को बढ़ावा देने और संकट से बचाने के लिए सरकार द्वारा वस्त्र उद्योग की मदद बहुत ज़रूरी है।

आगे की चिन्ता

कपड़ा उद्योग से जुड़े व्यापारियों की चिन्ता यह है कि पिछले दो साल से कोरोना के चलते और उससे पहले नोटबंदी के बाद से ठप हो रहे इस बेहद ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण उद्योग के लिए यह साल भी ख़राब साबित न हो। क्योंकि जिस तरह देश में कोरोना के इस नये वायरस के मामले बढ़ रहे हैं, उससे भले ही अभी थोड़ा-बहुत काम चल रहा हो, लेकिन आगे की चिन्ता सभी में बनी हुई है। देखने में आया है कि पिछले दो साल में हुई तालाबंदी से कपड़ा उद्योग काफ़ी हद तक चौपट हुआ है और इस साल की शुरुआत ही ख़राब हुई है। इतना ही नहीं इससे कपड़ों पर भी महँगाई बढ़ी है। पिछले साल ठप हुए कारोबार ने बीती दीपावली पर थोड़ी-सी रफ्तार पकड़ी ही थी कि नवंबर-दिसंबर में कपास पर बढ़े आयात शुल्क और ओमिक्रॉन की दस्तक ने इस पर पानी फेर दिया। कोरोना के चलते कपड़ों के निर्यात पर भी बुरा असर पड़ा है।

एक अनुमान के मुताबिक, अगर केवल सूरत में एक दिन कारोबार ठप रहे, तो कपड़ा कारोबार को 150 करोड़ रुपये से ज़्यादा नुक़सान होता है। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे गुजरात में एक दिन काम ठप रहने से कितना बड़ा नुक़सान देश को होता होगा? इन दिनों हालत कुछ सुधर रही थी, वह अब फिर से बदतर होने के कगार पर है। 2020 की तालाबंदी में पलायन कर चुके इस उद्योग से जुड़े कामगार लोग पूरी तरह लौट भी नहीं पाये थे कि दोबारा कोरोना की दस्तक और सम्भावित तालाबंदी के हालात ने उन्हें डरा रखा है।