फेलिक्स ने आदिवासी समाज को ही क्यों चुना? वे हंसते हैं, ‘इसके लिए आदिवासी इलाकों को लेकर ब्रिटिश औपनिवेशिक आकर्षण जिम्मेदार है. मेरे मन में हमेशा यह सवाल उठता रहा कि ब्रिटिश लोग भारत में शासन करने क्यों आए? और भारत में भी हमेशा वे आदिवासी इलाकों को अपने कब्जे में लाने की कोशिश क्यों करते रहे? और क्यों वे कभी इन इलाकों पर पूरा कब्जा नहीं जमा पाए? आदिवासियों से मेरे लगाव की यह वजह थी, यह बात भी मुझे उनकी तरफ खींचती थी कि आखिर वह क्या था, जिसकी वजह से आदिवासियों ने कभी अपना संघर्ष नहीं छोड़ा और हमेशा लड़ाई जारी रखी.’
एक बार आदिवासी इलाके में लंबा समय गुजार लेने के बाद फेलिक्स को बार-बार वे गांव अपनी तरफ खींचते रहे. भारत में अपने निवास के बीसवें साल में वे स्थायी रूप से ओडिशा में बस गए- अपनी उड़िया आदिवासी पत्नी के साथ रायगढ़ा जिले के एक दूर-दराज के गांव में. अपने आलोचकों और कार्यकर्ताओं के प्रति मौजूदा सरकारों के दमनकारी तौर-तरीकों के कारण फेलिक्स इस गांव की पहचान को आम करने से बचते हैं.
लेकिन ओडिशा के इन गांवों में रहते हुए उन्होंने दुनिया में सत्ता के सारे तौर- तरीकों को पहचानने की कोशिश की है. वे बताते हैं, ‘दुनिया में सत्ता की संरचना जिस तरह काम करती है उसे आप आदिवासी इलाकों में बहुत आसानी से पहचान और समझ सकते हैं. यहां की पुलिस, एनजीओ, मिशनरियों और व्यवस्था के दूसरे अंगों का जो रवैया होता है वह दुनिया की सत्ता संरचना के वास्तविक चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है.’ दुनिया पर शासन कर रहा सत्ता तंत्र तरक्की को अपने हरेक कदम के जायज तर्क के रूप में पेश करता है. लेकिन एक मानवशास्त्री के रूप में वे तरक्की के इस दावे पर शक करते हैं. इसके लिए इतिहास भी उन्हें काफी ताकत मुहैया कराता है जिसमें तरक्की के साथ जोड़ी जाने वाली सारी सभ्यताएं असल में युद्धों और हथियारों के कारोबारों के दम पर स्थापित हुई थीं- चाहे वह रोमन सभ्यता हो या यूनानी सभ्यता. तब से लेकर आज तक हर साल युद्धों और लड़ाइयों में अथाह पैसा खर्च किया जाता है और इसे तरक्की के तर्क के साथ जायज ठहराया जाता है.
फेलिक्स दलील देते हैं, ‘यह कैसी तरक्की है, जिसमें सीआरपीएफ आदिवासियों को मारती है उनकी जान ले लेती है और उनको यह तक भरोसा नहीं है कि वह पुलिस या अदालत के पास जाएगा तो उन्हें इंसाफ मिलेगा? विकास तो तब कहा जाएगा जब आदिवासी को ऐसा यकीन हो. अभी तो आदिवासी इस कथित विकास की कीमत चुका रहे हैं. रास्ते और कारखाने बनाने को तरक्की बताया जा रहा है, जबकि ये गरीबों को और गरीब बनाते हैं.’
अपने शुरुआती अध्ययन में आदिवासी समुदायों पर गौर करने के बाद अब फेलिक्स दुनिया की अर्थव्यवस्था, हथियार उद्योग और खनन उद्योग के आपसी रिश्ते और पर्यावरण आदि मुद्दों पर गहरे अध्ययन में लगे हैं. वे इसे साफ करते हैं कि कैसे विकास की मौजूदा राजनीति के पीछे बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां और विश्व बैंक की लुटेरी नीतियां हैं जो दुनिया भर के देशों को कर्जे में उलझा कर जनता और उसके संसाधनों को लूट रही हैं. उनका मानना है कि विश्व बैंक दुनिया की सत्ता संरचना को कर्जे के जरिए नियंत्रित करता है. वह इसके लिए निजीकरण को एक जरूरी औजार के रूप में इस्तेमाल करता है और भ्रष्टाचार का मुद्दा इसमें एक अहम भूमिका निभाता है. वे एक मिसाल देते हैं, ‘मान लीजिए विश्व बैंक के लोग अगर भुवनेश्वर आएंगे तो वे यहां के स्वास्थ्य मंत्रालय में भ्रष्टाचार को खोजेंगे. कहेंगे कि स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण कर दीजिए. लेकिन वे कभी नहीं देखेंगे कि खनन उद्योग में काम कर रही निजी कंपनियों में कितना भ्रष्टाचार है.’
यह फेलिक्स का शोध ही था जिसने कुछ साल पहले बॉक्साइट, जिसके अयस्क से अल्युमिनियम बनता है, के खनन के लिए वेदांता कंपनी द्वारा नियामगिरी पहाड़ की खुदाई का विरोध कर रहे कार्यकर्ताओं के पक्ष में मजबूत दलीलें मुहैया करवाई थीं. इस शोध में फेलिक्स ने दिखाया है कि किस तरह बमबार हवाई जहाजों, एटम बमों और दूसरी युद्ध सामग्री के निर्माण में अल्युमिनियम सबसे महत्वपूर्ण धातु है और आज के युद्ध बिना अल्युमिनियम के मुमकिन नहीं हैं.
फेलिक्स के अध्ययन को पेश करने वाली तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- पहली किताब सैक्रिफाइसिंग पीपुल है, जो उनके डॉक्टरल शोध का संशोधित रूप है. दूसरी किताब आउट ऑफ दिस अर्थ है, जिसमें अपने सह लेखक समरेंद्र दास के साथ मिलकर फेलिक्स ने अल्युमिनियम की बढ़ती मांग, हथियार उद्योग और बॉक्साइट के खनन के कारण उत्तरी भारत के आदिवासियों की जिंदगी की तबाही के बारे में बताया है. तीसरी किताब इकोलॉजी इकोनॉमी है, जो उन्होंने अजय दांडेकर और जीमोल उन्नी के साथ मिलकर लिखी है. इसमें पर्यावरण के लिहाज से बेहतर अर्थव्यवस्था की तलाश की गई है.
फेलिक्स एक स्वतंत्र मानवशास्त्री के रूप में व्याख्यान देते हैं, निबंध लिखते हैं और एक कार्यकर्ता के रूप में आदिवासियों के बीच भी रहते हैं. साथ ही, उनको संगीत का बेहद शौक है और वे बहुत अच्छी सांगीतिक प्रस्तुतियां भी देते हैं. उन्हें वायलिन पर बॉब डेलान के उन गीतों को गाते हुए सुना जा सकता है जिनमें गैरबराबरी और नाइंसाफी के खिलाफ गुस्से की गूंज है. और लगभग हर बार उनका यह गुस्सा भारत में युद्धों, बड़े बांधों, खनन, विस्थापन और जनसंहारों के खिलाफ आवाजों के साथ जुड़ जाता है.