आसान नहीं खडग़े की राह

खडग़े पर सबसे मुश्किल ज़िम्मेदारी यह भी है कि राज्यों में बिना कांग्रेस की क़ीमत पर उन्हें सहयोगियों के साथ चलना होगा। अगले चुनाव के लिए अभी भी पौने दो साल हैं और राज्यों में भारत जोड़ो यात्रा जैसे और अभियान चलाकर वह कांग्रेस को खड़ा कर सकते हैं। कांग्रेस के लिए यह इसलिए भी ज़रूरी है कि उसे यदि मुख्य विपक्षी दल बने रहना है और भविष्य में केंद्र की सत्ता हासिल करनी है, तो राज्यों में ज़मीन मज़बूत करनी होगी। अन्यथा आम आदमी पार्टी जैसा दल उसकी जगह लेने में देर नहीं करेगा, जो राज्यों पर फोकस कर अपना देशव्यापी आधार बनाने में जुट गयी है। आम आदमी पार्टी राज्यों में सरकार बनाने के लिए जैसे मेहनत कर रही है, उससे वह निश्चित ही आने वाले समय में कांग्रेस के लिए चुनौती बन सकती है।

खडग़े ने पद का ज़िम्मा सँभालते ही सबसे पहले सीडब्ल्यूसी को भंग कर दिया और उसकी जगह संचालन समिति का गठन कर दिया। इसमें कमोवेश वही चेहरे हैं, जो हाल के वर्षों में कांग्रेस में चर्चा में रहे हैं। हालाँकि यह बहुत अच्छा सन्देश होता यदि खडग़े अध्यक्ष पद के चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वी रहे शशि थरूर को भी इस महत्त्वपूर्ण समिति में जगह देते। थरूर पार्टी के ही भीतर के चुनाव में उनके प्रतिद्वंद्वी थे। लिहाज़ा उन्हें स्थान देने से खडग़े की तारीफ़ ही होती और विपक्ष में इसका सन्देश जाता कि चुनाव के बाद पार्टी अब फिर एकजुट है। थरूर और जी-23 के कुछ अन्य नेताओं को भी इस समिति से बाहर रखा गया है, जिनमें मनीष तिवारी भी हैं। इससे यह भी हो सकता है कि पार्टी के भीतर एक विरोधी गुट का अस्तित्व बना रहे, भले चुनाव हो जाने के बाद उनका ज़्यादा दबाव या विरोध शायद अब नाममात्र को ही रहे। इस गुट के आनंद शर्मा जैसे नेताओं को संचालन समिति में लेकर यह सन्देश देने की कोशिश की गयी है। यदि आप सँभल जाते हैं, तो आपके लिए स्थान है। यह तो साफ़ है ही कि खडग़े को अध्यक्ष चुनकर पार्टी के बहुमत ने सोनिया गाँधी (गाँधी परिवार) के ही हक़ में मुहर लगायी है। स्टीरियंग कमिटी बनानी के बाद खडग़े को अब अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का गठन करना है। इसमें महासचिवों से लेकर उपाध्यक्ष और दूसरे पदाधिकारी मनोनीत होने हैं। यह देखा दिलचस्प होगा कि थरूर जैसे नेताओं को वह कैसे समायोजित करते हैं, क्योंकि अध्यक्ष का चुनाव लड़ चुका नेता शायद महासचिव या उपाध्यक्ष न बनना चाहे।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, खडग़े राज्यों में वरिष्ठ नेताओं को बड़ी ज़िम्मेदारियाँ दे सकते हैं। पार्टी ज़मीन से जुड़े नेताओं को राज्यों का ज़िम्मा देने जा रही है, ताकि संगठन को ज़मीन पर मज़बूत किया जा सके।

राहुल का प्रभाव

यह तय है कि संगठन में राहुल गाँधी से असहयोग करते रहे नेताओं को अब जगह नहीं मिलेगी। एक पद-एक व्यक्ति के नियम का भी पालन होगा। ज़ाहिर है जो व्यक्ति विधायक या सांसद हैं, उन्हें दूसरा पद शायद न मिले। इससे यह भी लगता है कि प्रदेश के पदाधिकारी यदि विधायक बनते हैं, तो उन्हें पदाधिकारी का पद छोडऩा पड़ेगा। राहुल गाँधी आने वाले समय में सभी चुनाव घोषणा-पत्र जनता की राय से बनाने के हक़ में हैं। तेलंगाना को लेकर तो उन्होंने यह कह ही दिया है।

हिमाचल प्रदेश और गुज़रात में विधानसभा चुनाव में पार्टी ने तामझाम वाले प्रचार की जगह ज़मीनी स्तर के प्रचार अभियान की रणनीति अपनायी है। देखना दिलचस्प होगा कि इसका क्या नतीजा निकलता है। गुज़रात में कांग्रेस को देखकर लगता है कि वहाँ वह प्रचार में कहीं नहीं है; लेकिन हक़ीक़त यह है कि उसने प्रचार और जनता तक पहुँचने के लिए अलग रणनीति अपनायी है। उसके नेता ज़मीनी स्तर पर मैदान में डटे हुए हैं। इसके नतीजे दिलचस्प हो सकते हैं। खडग़े के अध्यक्ष बनने से पहले ही यह रणनीति बना ली गयी थी। हालाँकि इसमें उनकी भी सहमति थी।

वास्तव में इस रणनीति के पीछे गुज़रात के चुनाव प्रभारी अशोक गहलोत थे। राहुल गाँधी चाहते थे कि कांग्रेस भारी भरकम प्रचार अभियान की जगह ज़मीनी स्तर पर जनता तक पहुँचे। यही किया गया। यही कारण है कि पार्टी ने अभियान में बड़े नेताओं की $फौज नहीं झोंकी है। आख़िरी दिनों में हो सकता है कि राहुल गाँधी की सभाएँ पार्टी करवाये।

उधर आम आदमी पार्टी और उसके नेता केजरीवाल बहुत उम्मीद में हैं कि वह पंजाब की तरह गुज़रात में सत्ता पा सकते हैं। भारतीय मुद्रा (करंसी) पर गणेश जी और लक्ष्मी जी की तस्वीर लगाने की माँग करके केजरीवाल ने एक तरह से भाजपा वाली हिन्दुत्व की लकीर पकड़ ली है। हाल में महीनों में केजरीवाल ने ऐसे बहुत-सी चीज़ें की हैं, जिनसे ज़ाहिर होता है कि वह हिन्दुत्व को अपनी राजनीति का मज़बूत हिस्सा बनाकर रखना चाहते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि वह इस मुद्दे पर भाजपा को भी मात देने की कोशिश कर रहे हैं। देखना होगा कि चुनाव में उन्हें इसका क्या लाभ मिलता है।

हिमाचल प्रदेश में पार्टी ने साझे नेतृत्व के साथ लडऩे की रणनीति बनायी है। वहाँ भाजपा डबल इंजन की सरकार की बात कह रही है; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर उतने बेहतर रणनीतिकार साबित नहीं हुए हैं। लिहाज़ा भाजपा की नैया पार हुई, तो प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ही हो पाएगी। वहाँ कांग्रेस मज़बूती से भाजपा का मुक़ाबला कर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल इस बार चुनावी दृश्य से बाहर हैं, क्योंकि उन्हें टिकट नहीं दिया गया है। इस पहाड़ी राज्य में धूमल ऐसे नेता थे, जो भाजपा को आश्चर्यजनक नतीजा देने की क्षमता रखते थे। राजनीति के बहुत-से जानकार मानते हैं कि बिना धूमल के बिना भाजपा का ‘रिवाज़ बदल देंगे’ नारा फेल हो सकता है। राजनीतिक विश्लेषक बी.डी. शर्मा ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि पिछली बार भाजपा को सत्ता में लाने का काफ़ी श्रेय धूमल को जाता है। मुख्यमंत्री नहीं बनने के बावजूद वह ज़मीन पर लगातार पार्टी के लिए काम करते रहे हैं। धूमल को टिकट नहीं मिलने से पार्टी के एक बड़े वर्ग ही नहीं, जनता में भी मायूसी है। इसका भाजपा के मिशन रिपीट पर विपरीत असर पद सकता है।

पंजाब में सरकार बनाने के बाद आप को भरोसा था कि हिमाचल में उसको चुनाव में लाभ मिलेगा। लेकिन हाल के महीनों में पार्टी इस पहाड़ी राज्य में अपना आधार नहीं बना पायी। उसके पास कोई ऐसा नेता नहीं, जो उसका मज़बूत नेतृत्व कर सके। यहाँ तक कि उसके पास मज़बूत उम्मीदवार भी नहीं हो पाये। ऐसे में वह कितनी सीटें जीत सकेगी या कितने फ़ीसदी मत (वोट) ले सकेगी, यह देखना दिलचस्प होगा। साथ ही यह भविष्य में उसकी सम्भावनाएँ भी तय करेगा।

गाँधी परिवार कहाँ?

काफ़ी साल बाद कांग्रेस को ग़ैर-गाँधी अध्यक्ष मिलने के बाद सभी के मन में यह सवाल उठा कि क्या अब गाँधी परिवार पार्टी में अप्रासंगिक हो गया? इस सवाल का एक ही जवाब नहीं कि ऐसा बिलकुल नहीं है। अध्यक्ष पद सँभालने के बाद खडग़े ने तो यह कहा ही कि पार्टी के लिए गाँधी परिवार हमेशा महत्त्वपूर्व रहेगा। पार्टी के अधिकांश नेता भी मानते हैं कि गाँधी परिवार की पार्टी में भूमिका को $खत्म करने का मतलब होगा, पार्टी को शून्य कर देना। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कांग्रेस को नये विचार और नेतृत्व की ज़रूरत थी; लेकिन यह भी सच है कि यदि कांग्रेस के भीतर देशव्यापी पहचान किसी नेता की है, तो वह गाँधी परिवार के ही नेता हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हाल के वर्षों में भाजपा की तरफ़ से इतने झटके मिलने के बाद भी गाँधी परिवार के ही कारण कांग्रेस मज़बूती से अपना अस्तित्व बनाये रख पायी है।

भाजपा यदि आज भी किसी पार्टी या नेता से ख़ुद के लिए चुनौती मानती है, तो वह कांग्रेस और गाँधी परिवार ही है। यहाँ तक कि खडग़े को भी राहुल गाँधी की पसन्द माना जाता है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गाँधी दक्षिण राज्यों में जैसे भीड़ खींचने में सफल रहे हैं, उसकी चर्चा अब हर जगह है। यह कहा जाने लगा है कि भविष्य के चुनावों में कांग्रेस दक्षिण में बहुत बेहतर नतीजे ला सकती है। लिहाज़ा इन तमाम हालात में यह तो साफ़ है कि कांग्रेस में गाँधी परिवार की भूमिका हमेशा रहेगी। उनके प्रति वफ़ादार नेताओं में ज़्यादातर ऐसे हैं, जिनका ज़मीनी आधार भी है। ख़ुद खडग़े को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। जबकि हाल के महीनों में जिन नेताओं ने विरोध का स्वर उठाया था, उनमें से कई ऐसे हैं, जिनकी राजनीति हाल के वर्षों में राज्यसभा तक सीमित रही है।