आपदाग्रस्त आपदा प्रबंधन

विज्ञान के क्षेत्र में भारत की तरक्की के कई कसीदे पढ़े जाते हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था का एक अच्छा-खासा हिस्सा हर साल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में खर्च होता है. इस साल जनवरी में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के सौ साल पूरे हुए तो इसका जश्न भी मनाया गया. उस वक्त बहुत कम बोलने वाले प्रधानमंत्री ने विज्ञान की तरक्की के बारे में बहुत कुछ कहा. लेकिन हकीकत यह भी है कि देश में हर साल हजारों लोग प्राकृतिक आपदाओं में मारे जाते हैं और देश का सारा विज्ञान धरा का धरा रह जाता है.

वैसे आपदाओं से निपटने के लिए 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम लागू किया गया था. इसी के चलते राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) का भी गठन किया गया. वर्ष 2011-12 में इसका कुल बजट 348 करोड़ रुपये था. लेकिन इसी साल जारी हुई कैग की रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलता है कि ये प्राधिकरण स्वयं ही आपदाग्रस्त है.

रिपोर्ट में बताया गया है कि अधिनियम के लागू होने के इतने सालों बाद भी आपदा प्रबंधन की कोई राष्ट्रीय योजना नहीं बन सकी है. रिपोर्ट यह भी बताती है कि एनडीएमए की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति ने मई, 2008 के बाद से एक भी बैठक नहीं की है. इस दौरान कई आपदाएं आकर जा चुकी हैं. रिपोर्ट के अनुसार, ‘इस प्राधिकरण को सौंपा गया कोई भी बड़ा कार्य आज तक पूरा नहीं हो सका है. अनुचित नियोजन के चलते ये कार्य या तो बीच में ही बंद करने पड़े या निर्धारित समय के बाद भी अधूरे हैं.’ रिपोर्ट के मुताबिक प्राकृतिक आपदा के दौरान उपयोग होने वाला ‘सिंथेटिक अपर्चर राडार’ तंत्र 28.99 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी स्थापित नहीं किया जा सका है. जबकि ऐसा छह साल पहले हो जाना चाहिए था. आपदा प्रबंधन के लिए जरूरी संचार तंत्र के अन्य तमाम उपकरणों के बारे में भी रिपोर्ट यही बताती है कि कई साल बीत जाने और करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी ये अभी योजना बनाने के स्तर पर ही अटके हुए हैं.

राज्यों में गठित राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए) की बात करें तो स्थिति और भी बदतर है. बाढ़ की स्थिति में बड़े बांध और भी ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं. लेकिन देश भर के एसडीएमए इस मामले में कितने संवेदनशील हैं इसका खुलासा भी कैग की रिपोर्ट से हो जाता है. रिपोर्ट के अनुसार केवल आठ राज्यों द्वारा ही सिर्फ 192 बड़े बांधों  के लिए आपात योजनाएं बनाई गई हैं. जबकि देश में कुल बड़े बांधों की संख्या 4,728 है.

उत्तराखंड में जो तबाही हुई उसे काफी हद तक कम किया जा सकता था. लेकिन ऐसा तभी हो सकता था यदि राज्य का आपदा प्रबंधन मंत्रालय और प्राधिकरण वे सारे काम ठीक तरह से कर रहे होते जिनके लिए इनका गठन हुआ था. उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन अक्टूबर, 2007 में हुआ था. पिछले साल आई आपदा में उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग में जानमाल का भारी नुकसान हुआ था,  फिर भी कैग की रिपोर्ट के मुताबिक ‘आज तक इसकी एक भी बैठक नहीं हुई है, न ही इसने अब तक कोई नियम, प्रावधान, नीतियां या दिशानिर्देश ही बनाए हैं.’ इसके चलते आपदा के मद में केंद्र सरकार से आने वाला करोड़ों रु का बजट या राहत पैकेज मुख्यमंत्री, आपदा प्रबंधन मंत्री और विभाग के अधिकारियों के वरदहस्त से खर्च होता है. आपदा नीति होती तो उसमें बचाव व राहत कार्यो के लिए योजना व धन का वितरण भी होता.

यह तथ्य भी ध्यान देने लायक है कि 2011-12 में केंद्र सरकार ने राज्य में आपदा प्रबंधन के लिए कोई फंड ही जारी नहीं किया. रिपोर्ट के मुताबिक ऐसा इसलिए किया गया कि इससे पहले दिया गया फंड खर्च ही नहीं हुआ था. उत्तराखंड एकमात्र ऐसा प्रदेश है जहां आपदा प्रबंधन मंत्रालय के अधीन एक प्राधिकरण के अलावा एक स्वायत्त ‘आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र’ भी गठित किया गया है. लेकिन ऐसे संस्थानों पर यहां हमेशा आरोप लगते रहे हैं कि ये सेवानिवृत्त नौकरशाहों की आरामगाह बन कर रह जाते हैं और इनमें जमीनी स्तर पर काम करने वाले लोग नियुक्त तक नहीं किए जाते.

कैग रिपोर्ट में भी यह बात सामने आई है कि उत्तराखंड के एसडीएमए के पास उन लोगों की भारी कमी है जो आपदा के समय बुनियादी काम करते हैं. राज्य में जिला स्तर पर बने इमरजेंसी ऑपरेशन सेलों के करीब 44 फीसदी पद खाली पड़े हैं. यही नहीं, जिला, ब्लॉक और गांव के स्तर पर स्टाफ को प्रशिक्षण देने के लिए ढंग के प्रशिक्षक तक नहीं थे. न ही स्वास्थ्यकर्मियों को ऐसे हालात से निपटने के लिए कोई प्रशिक्षण दिया गया था. ऐसा उस राज्य में हुआ जिसमें 2007 से 2012 तक 653 लोग प्राकृतिक आपदा के चलते जान गंवा चुके थे. इनमें 55 फीसदी मौतें तो चट्टानें खिसकने और भारी बारिश के चलते हुई थीं. इस दौरान राज्य में भूस्खलन की 27 बड़ी घटनाएं हुईं. अकेले 2012 में ही प्राकृतिक आपदाओं के चलते 176 लोगों की जानें गई थीं. रिपोर्ट के मुताबिक जून, 2008 में भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने आपदा प्रभावित 233 गांवों में से 101 को संवेदनशील बताया था.

तीन साल पहले भी कैग ने उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी की समीक्षा की थी. इस समीक्षा का हिस्सा रही एक रिपोर्ट ने काफी पहले ही केंद्र और राज्य सरकार को आने वाले खतरे के प्रति आगाह कर दिया था. रिपोर्ट का कहना था कि भागीरथी और अलकनंदा पर परियोजनाओं की भीड़ से पहाड़ों को नुकसान तो हो ही रहा है इससे अचानक आने वाली बाढ़ का खतरा भी बढ़ रहा है, जिससे जान-माल का भारी नुकसान हो सकता है. रिपोर्ट का कहना था कि इन नदियों पर 42 परियोजनाएं काम कर रही हैं और 203 का निर्माण कार्य अलग-अलग स्तरों पर है. यानी औसतन देखा जाए तो हर पांच-छह किलोमीटर पर एक परियोजना है. रिपोर्ट चेताती है कि इनकी वजह से खत्म होते जंगलों से भारी नुकसान हो रहा है जिसकी भरपाई भी नहीं हो रही. कैग के मुताबिक जिन आठ परियोजनाओं का अध्ययन किया गया उन्होंने कोई वृक्षारोपण नहीं किया था. लेकिन इतनी सारी चेतावनियों  और संकेतों के बाद भी राज्य सरकार के आपदा प्रबंधन विभागों की नींद नहीं खुली.

इस पूरे आपदा प्रबंधन तंत्र में यदि किसी की सराहना की जा सकती है तो वह है ‘राष्ट्रीय आपदा मोचन बल’ (एनडीआरएफ). इसका गठन जनवरी, 2006 में विशेष तौर पर आपदा से निपटने के लिए हुआ था और आपदा की स्थिति में सबसे पहले इसी को सहायता और बचाव कार्यों के लिए भेजा जाता है. उत्तराखंड में भी ऐसा ही किया गया. हजारों लोगों को बचाते हुए 25 जून को इस बल के नौ जवान हेलीकॉप्टर दुर्घटना में शहीद हो गए. कैग की रिपोर्ट की मानें तो इन जवानों की जिंदगी से भी खिलवाड़ किया जा रहा है. रिपोर्ट बताती है कि इन जवानों को पर्याप्त प्रशिक्षण तक नहीं दिया जा रहा है. 2006 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने इनके प्रशिक्षण के लिए ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर रिस्पांस’ स्थापित करने की बात कही थी. महाराष्ट्र सरकार ने 2007 में इसके लिए नागपुर में 110 एकड़ जमीन देने का प्रस्ताव रखा जिसे प्राधिकरण ने स्वीकार कर लिया. लेकिन कैग की रिपोर्ट बताती है कि आज तक इस संस्थान की स्थापना नहीं हो सकी है. कैग की रिपोर्ट में यहां तक कहा गया है कि एनडीआरएफ का इस्तेमाल चुनाव के दौरान सुरक्षा व्यवस्था में भी किया जाता रहा है.

एनडीआरएफ की तर्ज पर राज्यों में भी ‘राज्य आपदा मोचन बल’ (एसडीआरएफ) का प्रावधान है. लेकिन अभी तक सिर्फ आठ राज्यों ने इसका गठन किया है जिनमें उत्तराखंड शामिल नहीं हैं. ऐसे राज्यों में बड़ी आपदा आने की स्थिति में एनडीआरएफ को ही भेजा जाता है. केदारघाटी में बचाव कार्य के लिए तैनात एक मेजर बताते हैं, ‘यहां एनडीआरएफ के जवानों ने सराहनीय काम किया है. सबसे पहले उन्हीं लोगों को यहां भेजा गया था. लेकिन प्रशिक्षण की कमी उनमें साफ देखी जा सकती है. ऐसे में इन जवानों की जान से भी खिलवाड़ किया जा रहा है. बिना प्रशिक्षण के जवानों को ऐसी खतरनाक जगह पर भेजना गलत है.’ एनडीआरएफ की स्थिति का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड में हुए हादसे के लगभग दस दिन बाद इसके महानिदेशक का पद भरा गया है जो लंबे समय से खाली था.

आपदा प्रबंधन विभाग को कई वजहों से अन्य विभागों पर भी निर्भर रहना पड़ता है. जैसे मौसम विभाग, केंद्रीय जल आयोग आदि. लेकिन अक्सर इन विभागों में आपसी ताल-मेल की कमी देखने को मिलती है. पिछले कई सालों से लगातार गलत अनुमान जारी करने वाले मौसम विभाग के अनुमान इस बार सही निकले लेकिन इसके बावजूद आपदा प्रबंधन द्वारा उचित कदम नहीं उठाए गए. दूसरी तरफ नदियों के जल स्तर बढ़ने या कम होने सम्बन्धी सूचनाएं केंद्रीय जल आयोग को आपदा प्रबंधन तक पहुंचानी होती हैं. लेकिन कैग की रिपोर्ट बताती है कि केंद्रीय जल आयोग द्वारा ये सूचनाएं जारी ही नहीं की जातीं. रिपोर्ट बताती है कि देश के 4,728 बांधों में से सिर्फ 28 की सूचनाएं ही जल आयोग जारी कर रहा है. यानी हमारे आपदा प्रबंधन को ही पहले आपदा से बाहर लाना होगा.

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