महेंद्र सुमन या शैबाल गुप्ता की बातों को अगर जमीनी स्तर पर देखें तो नीतीश के प्रयोग ने बिहार की राजनीति में बदलाव तो किया ही है उन्हें एक सक्षम और साहसी नेता के तौर पर स्थापित भी किया है. सामाजिक न्याय के तहत नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ों, महादलितों, पसमांदा मुसलमानों और महिलाओं को उभार कर अपने लिए जब एक नया वर्ग तैयार करने का कदम उठाया था, तब भी उनके सामने मुश्किलें और चुनौतियां कम नहीं थी. पंचायतों में 50 प्रतिशत महिलाओं के लिए और 20 प्रतिशत अतिपिछड़ों के लिए आरक्षण देकर नीतीश ने एक साथ सवर्णों और ताकतवर पिछड़ी जातियों से बैर लिया था, जिसे लेकर अब तक गांवों में नीतीश के खिलाफ एक वर्ग विशेष का बैर दिखता है. लेकिन जिस वर्ग के लिए नीतीश कुमार ने यह रिस्क लिया था, वह उनके साथ मजबूती से खड़ा हुआ. अब भाजपा या राजद जैसी पार्टियों को सामाजिक न्याय का इससे अलग हटकर कोई ऐसा एजेंडा दिख नहीं रहा, जिसके आधार पर वे नीतीश को मात दे सकें. लालू प्रसाद से जब तहलका की बात होती है तो वे मुस्लिमों पर तो बात करते हैं लेकिन पसमांदा मुस्लिमों पर अलग से कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं दिखते. अगर वे पिछड़े मुसलमानों की बात करेंगे तो कहा जाएगा कि वे नीतीश कुमार की राह पर चल रहे हैं और इससे अगड़ों के नाराज होने का खतरा भी है. और अगर वे मुस्लिम एकता या अगड़े मुसलमानों की बात करेंगे तो हमेशा के लिए पसमांदा मुसलमान उनकी पहुंच से दूर चले जाएंगे.
ठीक इन्हीं वजहों से लालू अतिपिछड़ों और महादलितों पर भी खुलकर बोलने से परहेज करते हैं. जदयू-भाजपा अलगाव के बाद वे वैसे ही दोहरी परेशानी से गुजर रहे हैं. उन्हें इस बात का अहसास है कि जब नीतीश कुमार भाजपा के साथ रहते हुए उनके मुस्लिम मतों में जोरदार सेंध मारकर अपने पक्ष में करने में सफल होते रहे हैं तो अलगाव के बाद नीतीश के पक्ष में मुस्लिम वोट अगर न भी बढ़ें तो उनके घटने की गुंजाइश तो कहीं से नहीं दिखती.
सामाजिक न्याय के बाद नीतीश ने गवर्नेंस-विकास के मसले को पिछले आठ साल से बिहार की राजनीति में बहुत ही रणनीतिक तरीके से शामिल किया है, जिसे सभी पार्टियां अब अपने एजेंडे में शामिल कर चुकी हैं. चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव मानते हैं कि बिहार में सुशासन न सही, शासन की बात तो सामने आई ही और विकास न सही लेकिन विकास की आस तो जगी ही है. योगेंद्र यादव मानते हैं कि यह ठीक है कि चुनाव में जाति एक तत्व होता है लेकिन वही एकमात्र तत्व नहीं होता.
बिहार के विकास और केंद्र से राज्य के लिए विशेष हक पाने की लड़ाई के नाम पर बिहारी स्वाभिमान को जगाने की जो राजनीतिक लड़ाई नीतीश लड़ रहे हैं वह राजद के लिए तो गले की हड्डी बनी ही हुई थी, अब भाजपा को भी उसने चिंता में डाला हुआ है. भाजपा को डर है कि अगर केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस ने बिहार को कोई भारी-भरकम विशेष पैकेज जैसा कुछ दे दिया तो फिर नीतीश उसके जरिए चुनाव आते-आते न जाने कितनी उम्मीदें जगाकर एक बार फिर उम्मीदों के बड़े नेता बनकर उभर जाएंगे.
साफ है कि नीतीश जाति और विकास की राजनीति का कॉकटेल तैयार करने में ऐसे नेता साबित हुए हैं जिनसे पार पाने के लिए भाजपा और राजद को कोई मजबूत काट खोजनी होगी. भाजपा न तो सवर्णों और हिंदू मतों की संरक्षक पार्टी बनकर उन्हें मात देने की स्थिति में दिखती है और न राजद, मुस्लिम-यादव जैसे पुराने समीकरण के सहारे.
बताया जा रहा है कि नीतीश अगर मौन साधे हैं व भाजपा और राजद को आपस में ही खुलकर जाति की राजनीति खेलने देना चाहते हैं तो इसके पीछे भी एक रणनीति है. 28 जून को जदयू के कुछ वरिष्ठ सदस्यों और नीतीश के विश्वस्त नेताओं की बैठक हुई. सूत्रों के मुताबिक यह बैठक हुई तो मंत्रिमंडल के विस्तार के लिए थी लेकिन नीतीश ने इसमें भविष्य की रणनीति के संकेत भी दिए. एक जदयू नेता बताते हैं, ‘हम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा जल्दी से जल्दी खुलवाएंगे, जो सीमांचल के इलाके में मुसलमानों के लिए प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है, जिसका विरोध अब तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद करती रही है और विश्वविद्यालय न बनने को लेकर राजद राजनीति करता रहा है.’
नीतीश के पास अभी केंद्रीय सरकार से मिलने वाला पैकेज भी है जिसके खर्च के लिए रणनीतिक तरीके से योजनाएं बन रही हैं. पूरे देश में युवाओं की कुल आबादी का 11 प्रतिशत बिहार में ही रहता है और उनके लिए कोई आकर्षक योजना न सिर्फ उन्हें बल्कि उनके परिवारों को भी आकर्षित करेगी, वैसे ही जैसे अपने पहले कार्यकाल में लड़कियों को साइकिल देकर नीतीश कुमार ने उन लड़कियों के परिवारों को भी अपने पक्ष में कर लिया था.
बताया जा रहा है कि नीतीश कुमार महिलाओं के लिए पंचायत में आरक्षण देने के बाद पंचायत शिक्षकों की बहाली में उन्हें आरक्षण देकर, उनके लिए अलग से पुलिस बटालियन आदि गठित करके एक बार फिर महिलाओं को अपने पक्ष में करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. इसके अलावा उम्मीद है कि नीतीश जल्दी ही न सिर्फ महादलितों और अतिपिछड़ों के लिए कोई आकर्षक योजना पेश करेंगे बल्कि मुसलमानों के लिए पहले से चलाई जा रही हुनर और औजार जैसी व्यावसायिक और कौशल प्रशिक्षण योजनाओं को पटरी पर लाने की कोशिश करेंगे. एक जदयू नेता बताते हैं, ‘सवर्ण आयोग का गठन नीतीश कुमार ने किया था, लेकिन उसे अब तक हाथी का दांत माना जाता रहा है. हमारी तैयारी यह है कि सवर्णों की आर्थिक स्थिति का अध्ययन कर उनके लिए भी अलग से योजना लाई जाए.’ यानी कई जातियों और समूहों का दिल नए सिरे से जीतने की तैयारी है.
ऐसी कई बातें जदयू नेता आगामी योजनाओं के तहत बताते हैं. लेकिन इतने से यह भी नहीं कहा जा सकता कि नीतीश के लिए आगे की राह एकदम से आसान ही है. महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘नीतीश अब सामाजिक न्याय के एजेंडे को किस तरह से और कितनी प्राथमिकता से आगे बढ़ाते हैं, उस पर उनका भविष्य तय होगा. नीतीश ने अतिपिछड़ा, महादलित, पसमांदा और महिलाओं के समूह के साथ चार अलग-अलग सामाजिक समूहों को राजनीतिक तौर पर सशक्त करने का काम किया है. अब इनकी आकांक्षाओं और उम्मीदों को बढ़ाकर नहीं संभाल पाएंगे तो फिर इसके टूटने का खतरा भी उतना ही बना रहेगा.’ यह सही भी है. लालू प्रसाद के समय ऐसा ही हुआ था. उन्होंने भी पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों को एक मजबूत राजनीतिक स्वर तो दिया था. लेकिन जब वे राजनीतिक तौर पर मजबूत हुए और उन्हें अपनी आकांक्षाएं पूरी होती नहीं दिखीं तो उन्होंने लालू को सत्ता से बेदखल कर दिया.
बेशक नीतीश के पास आगे ऐसी तमाम मुश्किलें हैं, जिनसे पार पाना उनके लिए आसान नहीं होगा. लेकिन कुछ छोटी-छोटी उम्मीदें और भी हैं. बात चल रही है कि जदयू और रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा में तालमेल की संभावना बन सकती है. एक समय पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री के नाम पर बिहार की राजनीति में मुख्यमंत्री बनने तक की संभावना को ठोकर मारी थी. जानकारों के मुताबिक नीतीश और पासवान मिलकर मुस्लिम और दलित राजनीति के लिए एक और एक ग्यारह भले न बनें, दो तो बन ही सकते हैं.
नीतीश के लिए एक सदाबहार मंच की तरह बिहार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी है, जिसने सदन में उनके पक्ष में मतदान किया था. भले ही भाकपा के पास अभी एक विधायक ही हो लेकिन उसका इतिहास 35 विधायकों का है और उसका कैडर हर जगह है. इसके अलावा बिहार सरकार के साढे़ सात साल के सफर का जादुई आंकड़ा है जिसमें पिछली पंचवर्षीय योजना के दौरान बिहार ने देश में सबसे ज्यादा विकास दर हासिल की थी. बीते साल 68 लाख टन अधिक अनाज उपजाया था, और पर्यटन के क्षेत्र में भारत आने वाला हर छठा पर्यटक बिहार आया था. इसके अलावा बिहार के नाम सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर प्रति व्यक्ति आय में करीब दस प्रतिशत वृद्धि करने का रिकॉर्ड भी है.