‘अराजक स्वतंत्रता के उपभोग से उपजे चित्र’

Husen

समकालीन भारतीय चित्रकला के सर्वाधिक चर्चित एवं विवादित कलाकार मकबूल फिदा हुसैन पर कुछ भी लिखने-बोलने के पहले मुझे एक श्वेत-श्याम चित्र सहसा याद आता है. उस चित्र में तत्कालीन प्रगतिशील चित्रकारी की आकाशगंगा के नक्षत्र बैठे हैं. सूजा, रजा आदि आगे बैठे हैं तथा इन दीप्त किरदारों के पीछे, एक ‘डि-क्लास’ सा लगता, काली टोपी और लंबी दाढ़ी वाला शख्स बैठा है- लगभग अचिह्नित-सा. उसके चेहरे पर कोई तेज नहीं है. एक नजर में लगता है, गालिबन उसे वहां पकड़कर बैठा दिया गया है. लेकिन, इतिहास की यह गति रही कि एक दिन वही पृष्ठभूमि का धूमिल चेहरा भारतीय चित्रकला के आकाश में सबसे तेजोमय होकर सामने आया. यकीनन यह उसके काम का सामर्थ्य था कि वह अपनी काम करने की जबरदस्त गति से अपने समय और समाज को कला में महत्वपूर्ण ढंग से दर्ज करता आगे बढ़ता रहा. मकबूल फिदा हुसैन की कला यात्रा की यही बेलाग सच्चाई है. यदि हम उस दौर में कला की वैश्विक हलचल के संदर्भों को खंगालें तो पाते हैं कि यह वही दौर था जब शीत युद्ध की रणनीतियां पूरी दुनिया में एक अधिक सतर्कता और अतिरिक्त चातुर्य से प्रगतिशील शक्तियों से सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी छाया युद्ध लड़ने में लगी हुई थीं. चूंकि, उन्हें रूस की प्रगतिशील कला दृष्टि को संदिग्ध और संकटग्रस्त करना था. इसी उद्देश्य के तहत लगभग पैंतीस राष्ट्रों में उन्होंने वहां की उस कला दृष्टि को अपने अप्रकट वर्चस्व में घेरना शुरू किया जो ‘प्रगतिशीलता’ से सरोकार रखती थी. निश्चय ही भारत में भी प्रगतिशील कलाकारों का समूह उभर रहा था- हालांकि, उसके नाम के आगे जरूर प्रगतिशील शब्द जुड़ा था, लेकिन उनका किसी किस्म की मार्क्सवादी सौंदर्यदृष्टि से कोई रिश्ता नहीं था. अलबत्ता वे आधुनिकतावाद से आसक्त और ग्रस्त थे. निश्चय ही इस समूह के दो कलाकार भाषा में सर्वाधिक अभिव्यक्तिसक्षम थे. ये कलाकार थे रजा और सूजा.

यही वह दौर था जब अमेरिका में येल विश्वविद्यालय के ग्रैजुएटों को कला में सांस्कृतिक रणनीति की पैरोकारी में जोत दिया गया था. वे ‘सारगर्भित लगने वाली वाचालता’ के जरिए ‘साम्राज्यवादी एजेंडे’ को पूरा करने में आम तौर पर आधुनिक कला की और उसमें भी अमूर्तन की खास तौर पर पुरजोर वकालत कर रहे थे. ये तभी के रेडीमेड तर्क थे, जिसके तहत ‘मिथ्या दार्शनिकता’ का मुखौटा लगा कर कहा जा रहा था कि ‘अब कला अपने अभीष्ट में शब्द हो जाना चाहती है.’ बहरहाल, इन स्थापनाओं ने ‘कैनवास पर अराजक होकर कर दी गई मूर्खता’ में भी नए सौंदर्यशास्त्र को आविष्कृत करने का मार्ग खोल दिया. कृति से बड़ी उसकी व्याख्या हो गई. कहना न होगा कि ऐसा भारत में भी होने लगा था. मसलन, सूजा के काम की अधिकांश व्याख्याएं पढ़ें तो आप देखेंगे कि ‘शब्द के सहारे जिस महान सौंदर्यदृष्टि’ को उनकी कृतियों में खोजा जा रहा था वह वहां थी ही नहीं. उनके ‘विरूपित चित्रों’ की महिमा में ‘येल ग्रैजुएटों’ की तब की ईजाद शब्दावली का हास्यप्रद इस्तेमाल यहां के कला टिप्पणीकारों की भाषाओं में आज भी देखा जा सकता है. हां, रजा के पास ऐसा नहीं था. उन्होंने ज्यादा सोच-समझकर अपना मार्ग तय किया. आप देखें कि उनके आरंभिक काम में लैंडस्केप्स भी हैं, जिन्हें देखकर पता चलता है कि वे आगे चलकर, उसमें अपने लिए कोई रास्ता नहीं बना पाएंगे. आकृतिमूलकता के तत्कालीन रास्ते पर भी उनका तब का कोई खास काम दिखाई नहीं देता- उन्हें वस्तुत: उनकी चिंतन-क्षमता ने उस मार्ग को खोजने में मदद की जिस पर वे लगातार चलते आए हैं. दार्शनिकता उनके लिए सबसे बड़ा भरोसा बनकर सामने आई. इसमें किसी किस्म की तुलना की आक्रामकता से कोई खतरा नहीं था. रंग, रेखा और रूपाकार से ज्यादा, उनकी व्याख्या ही कवच की भूमिका में रहनी थी. रचना और संरचना के तमाम उत्तर उस कृति के भीतर से नहीं, कलाकार की चिंतन क्षमता से आने वाले थे. हालांकि, रामकुमार में भी एक लेखक वाली भाषा संपदा थी, लेकिन वे अत्यंत अल्पभाषी थे. उन्होंने अपने काम के बारे में बहुत कम शब्दों में बोला और आक्रामकता के साथ तो कदाचित एक पंक्ति भी नहीं कही.

लेकिन हुसैन का मार्ग इन सबसे एकदम अलग था. उन्होंने आकृतिमूलकता को अपना एकमात्र अभीष्ट बनाया. मसलन, आप देखिए कि वे जीवन भर मुंबई में समुद्र के पड़ोस में रहे लेकिन उन्होंने कभी समुद्र को लैंडस्केप की तरह नहीं पकड़ा, न देखा. सर्वाधिक बेचैन यायावरी वृत्ति के बावजूद उनके काम में जगहों से अधिक लोग हैं. कहने को बनारस चित्र शृंखला का हवाला दिया जा सकता है लेकिन वह उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा. बहरहाल, शायद ही कोई ऐसा विषय शेष रहा जो उनकी रंगरेखा के दायरे में न आया हो तथा उस पर उन्होंने अपनी कोई कृति न रची हो. हुसैन ने रंग संयोजन की आरंभिक युक्ति, जो जीवन भर उनके साथ रही, अपने शिक्षा काल में इंदौर स्कूल के अपने सहपाठी डीजे जोशी से ली थी तथा रेखांकन में सारल्य, अपने दूसरे साथी विष्णु चिंचालकर से. उन्होंने स्वयं आकाशवाणी इंदौर पर दिए गए अपने 45 मिनट लंबे साक्षात्कार में यह बात इंदौर की स्मृतियों को बटोरते हुए स्वीकार की थी. उन्होंने कहा था, ‘मैंने कलर स्कीम डीजे जोशी से सीखी और आइकनोग्राफिक सिंपलीफिकेशन ऑफ लाइंस विष्णु चिंचालकर से.’ इसके साथ यह भी कहा था कि आधुनिक भारतीय कला का उद्भव इंदौर से माना जाना चाहिए. यह अलग बात है जब मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व उन्हें अपने इन मित्रों की रचनात्मकता के साहचर्य की बात याद दिलाई गई तो वे अपने ही कहे से साफ मुकर गए थे.

बहरहाल, लगातार और ज्यादा तादाद में काम करना उनकी प्रकृति में था, जिसके चलते रचना और अपने रचे हुए को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाना उनकी विवशता थी. यह एक गहरी रचनात्मक बेचैनी थी उनमें. यह वृत्ति ही उनमें रिजेक्ट टु अवर ओन सेल्फ वाले बर्गसां के कथन को चरितार्थ करती थी.

अत: जब आप उनकी कृतियों में से किसी एक कृति को रखकर उसको डिकोड करें तो बहुत सारे प्रश्न और तर्क आपको घेर लेंगे. हुसैन की कृतियां यों भी अपने लिए व्याख्या की जगह नहीं छोड़तीं. वे गूढ़ को छिपाने के यत्न में नहीं रची गई हैं. वे अधिकतम लोगों से अधिकतम तादात्म्य के लिए सदैव खुली और तत्पर रहती हैं. वे संरचना के स्तर पर भी दु:साध्य कलात्मकता का दावा नहीं करतीं. उनकी किसी भी कृति में ऐसा कुछ भी नहीं है जो व्याख्याओं की अनुपस्थिति में प्रकट होकर सामने न आ सके. वे अर्थाभिव्यक्ति में स्वयंसिद्ध हैं. इसीलिए उनकी किसी एक कृति के बजाय, उनकी कुछ विवादित कृतियों को सामने रखकर बात करना चाहेंगे, जिन्हें हमारी समकालीन कला के कारोबारी किस्म के समीक्षक अपने वाग्जाल में ऐसा ‘अज्ञेय’ सा बताते रहे हैं जिसे सौंदर्यशास्त्र या कला का गहन अध्ययन किए बगैर समझा नहीं जा सकता. इसके अतिरिक्त हुसैन के उन विवादित चित्रों का बचाव करने वे लोग भी आगे आते रहे हैं जो ‘मिथ्या धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाए बगैर जनतांत्रिक नहीं कहलाएंगे’ के भय से भयभीत रहते हैं.

दरअसल हुसैन के द्वारा बनाए गए सीता से संबंधित वे विवादित चित्र अपने आप में कोई मुकम्मल चित्रकृतियां नहीं हैं. वे महज उस आरंभिक दौर में सिद्ध किए गए आइकनोग्राफिक सिंपलीफिकेशन ऑफ लाइंस के अभ्यास के उत्पाद हैं. ये मकबूल फिदा हुसैन की स्वभावगत उतावली में, धर्मानुभव को सरल कला-अनुभव में बदलने की चेष्टा की विफलता के प्रमाणीकरण हैं जिसमें विषय के साथ अपनी तरह के ट्रीटमेंट को लेकर ली गई अराजक और निर्बाध स्वतंत्रता नजर आती है. जबकि धर्मानुभव की संलिष्टता को आकृतिमूलकता में व्यक्त करते समय ऐसे सरलीकरण का मार्ग चित्रकृति को संदिग्ध और संकटग्रस्त बनाता है. बखान के जरिए सृजित अलौकिकता को रंग रेखाओं में ले जाकर लौकिक बनाते हुए एक कलाकार को संभावित खतरों की पुख्ता पहचान और संभावनाओं के सूक्ष्म और सुरक्षित दोहन की जरूरत होती है. फिर हुसैन के पास धर्मानुभव के नाम पर भारतीय पुराकथाओं और मिथकों के सपाट बखान से बनी स्मृति की बहुत सीमित पूंजी रही है जबकि ऐसी सामग्री को चित्र भाषा में उभारने के लिए मूर्त-अमूर्त की कलागत युक्ति, जिसे ‘डायलेक्टिकल डबलिंग’ कहा जाता है, बहुत जरूरी है. लेकिन हुसैन के लिए यह अपने अभ्यस्त कला मुहावरे के चलते संभव ही नहीं था. चूंकि वे हिंदू प्रतीकों या मिथकीय चरित्रों को लेकर ली जाती रही छूट से परिचित थे लेकिन बावजूद बतौर एक गंभीर कलाकार क्रीड़ावृत्ति या चित्रण की स्वतंत्रता भी आपसे किसी एक बिंदु तक पहुंचने के बाद ठिठकने की मांग करती है. ऐसा नहीं हो सकता कि यदि स्त्री देहाकृति किसी कृति के विषय में समाहित है तो आप चाक्षुष संभावनाओं को खोजते हुए ‘पवित्र में विकृति’ का विन्यास रचने लगें.

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मकबूल फिदा हुसैन के लिए तथाकथित विवादित चित्र में सीता को हनुमान की पूंछ के बजाय कंधों पर बिठाने की अलग मुश्किलें थीं.

बहरहाल, हुसैन के लिए सीता के उस तथाकथित विवादित चित्र के अभ्यांतर में हनुमान की पूंछ रैखिकता के वितान को रचने में एक सहज आश्रय थी. उन्होंने उसे लंबा करते हुए उसके छोर पर सीता का चित्र बना दिया. कारण यह था कि चित्र में सीता को हनुमान के कंधों पर बिठाने की भी कुछ मुश्किलें थीं. मसलन, यदि वे सीता को कंधे पर अलांग-फलांग बिठाते तब वस्त्र रहित बनाई गई सीता की जांघों पर हनुमान के हाथ होते, तब तो राजनीतिक हिंदुत्व में लंका से भी बड़ा अग्निकांड हो जाता. तो कुल मिलाकर कहना यही है कि ये रेखांकन अलौकिकता को लौकिक युक्ति से उकेरने में हुई त्रुटि से ज्यादा ‘पवित्र में विद्रोह’ का अभीष्ट प्रकट करने का लांछन बन गए. इसके साथ हुआ यह भी कि अबाधित स्वतंत्रता की उपलब्धता ने एक बड़े कलाकार को अपने सृजनकर्म की अंतर्निहित प्रश्नात्मकता पर एकाग्र ही नहीं होने दिया. उन्हें शायद स्वप्न में भी यह प्रतिप्रश्न नहीं आया होगा कि पवित्रता से घिरे मिथकीय चरित्र का रेखांकन परंपरागत चित्रण से अलग और अराजक ढंग से करने पर कुछ प्रश्न भी खड़े हो सकते हैं. फिर उन दिनों सेक्स को पारदर्शी बनाने की कोशिश में तर्कमूलक भाववाद का सहारा लेते हुए, एक मॉडर्न आचार्य संभोग से समाधि की ओर यात्रा पर ले जा रहा था. इसी के चलते, दैहिकता के गोपन के विरुद्ध सामान्य साहसिकता भी दुस्साहस में बदलने के लिए बेचैन हो रही थी.

अत: निर्विवाद रूप से इस तरह का रेखांकन किसी को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं, सिर्फ स्वतंत्रता का अराजक होने की सीमा तक किया गया असावधान उपभोग भर है. फिर सहज रूप से एक सामान्य कलाप्रेक्षक यह प्रश्न भी उठा सकता है कि क्या पुरा कथाओं या पवित्र और पूज्य के रूप में परंपरागत रूप से चित्रित पात्रों को आधुनिकता का संस्पर्श देने के लिए क्या यह कोई अपरिहार्य रूढ़ि है कि उन्हें वस्त्रहीन ही बनाया जाए. क्या उससे वे देवाकृतियां अतिदैवी हो जाएंगी या उनका अधिकाधिक मनुष्यवत होना प्रमाणित हो सकेगा? क्या वस्त्रहीन चित्रित न किए जाने पर वे समकालीन या आधुनिक कृति बनने से स्थगित हो जाएंगी या वे आधुनिक दृष्टि से बहिष्कृत हो जाएंगी?

husenचूंकि तब उन्हें रचते हुए स्वयं हुसैन को भी इस बात का स्पष्ट विश्वास था कि उनके नए तथा आधुनिक रचनात्मक प्रयास को राम मनोहर लोहिया जैसा देश का प्रखरतम राजनैतिक बुद्धिजीवी देखने वाला है या कि आक्टोवियाे पाज जैसा विश्वस्तरीय मैक्सिकन कवि देखने वाला है, उनका बौद्धिक समर्थन मिलने वाला है. शायद इसीलिए उन्होंने सामान्य दृष्टि वाले कला रसिक की इरादतन, निर्भयता के साथ अवहेलना की, जो कि निश्चय ही उत्कृष्ट कला के लिए नितांत जरूरी भी होती है. लेकिन मिथकीयता के चित्रण में अतिरिक्त छूट लेने के बारे में आशंकित होकर किसी ईमानदार संदेह के साथ देखा ही नहीं. क्योंकि हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की देहाकृति का कोई प्रतिमानीकरण नहीं है. लोक में तो बिना आंख-नाक का एक गोल पत्थर, सिंदूर से पुतने के पश्चात, गणपति, हनुमान या भैरव हो सकता है और आपादमस्तक, कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण देवमूर्ति के समकक्ष ही उसकी प्रतिष्ठा होगी. कलात्मकता का अभाव उसके देवत्व में कोई कमी नहीं पैदा करता. दिलचस्प बात है कि चकमक पत्थर, वहां शीतला माता है, वहां कछुआ, सांप, सुअर जैसे डरावने देवता भी हैं और कृष्ण या कामदेव जैसे अत्यंत सुंदर भी. वहां पवित्र में विद्रोह की वैधता प्राप्त है. पंचकन्याएं कुंवारेपन में गर्भवती हो सकती हैं तथा यमी अपने भाई सूर्यपुत्र यम के समक्ष संसर्ग का प्रस्ताव भी रख सकती है. बहरहाल, ऐसे सारे आख्यान साहित्य या कला के सर्जक को खुलकर कर सकने वाले ध्वंस की प्रेरणा के समान लगते हैं. वह संशयमुक्त रहता है कि उसके पास निर्विघ्न स्वतंत्रता है. हुसैन ने इसका बेधड़क होकर उपभोग किया. उन्हें लगा कि एकेश्वरवादियों की सी कट्टरता से यहां भला काहे की मुठभेड़ होनी है, लेकिन उन्हें यह कहां पता था कि आर्थिक उदारता के आगमन के साथ ही सांस्कृतिक उदारता का प्रस्थान शुरू हो जाएगा.

एक सावधान सर्जक को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये तमाम अंतर्विरोधी चीजें शास्त्र या पुराकथाओं से उठकर जब सामाजिक जीवन के अतिपरिचय की परिधि में प्रवेश करती हैं तो वे लोक के अनुरूप ही अपनी वैधता का प्रवेश पत्र प्राप्त करती हैं. मसलन ब्रह्मा ने वाणी (सरस्वती) को जन्म दिया और उस प्रलयशून्यता में उस वाणी को सुनने या ग्रहण करने वाला कोई था ही नहीं. अत: उसे पैदा करने के बाद ब्रह्मा ने ही उसे ग्रहण किया. लेकिन सृष्टि कथा में लीला भाव की रूपकात्मकता अर्जित करते हुए वह पिता ही द्वारा पुत्री को भोगने का रूपक बन जाता है. लेकिन क्या आधुनिक कलायुक्ति से सरस्वती को ब्रह्मा से मैथुनरत किया जा सकता है? यह मिथकों का कैसा कलान्वय होगा? इसे इन्सेस्ट (परिवार के भीतर होने वाला व्यभिचार) की तरह मजा लेते हुए पेंट नहीं किया जा सकता. शायद कोई मोटी बुद्धि का व्यक्ति ही ऐसी व्याख्या कर सकता है कि भाइयों, भारतीयों की परंपरा में तो पिता द्वारा पुत्री को भोगना होता रहा है, अत: यह सब स्वीकार्य होना चाहिए. इन्सेस्ट भारतीयता का यथार्थ है. उस पर या उसके चित्रण पर निषेध नहीं खड़े किए जा सकते. फिर हुसैन के पास अपराजेय तर्कों का जखीरा नहीं था न ही वे सारगर्भित लगने वाली वाचालता से तर्कों का कोई स्थापत्य खड़ा करने में समर्थ थे. वैसे जहां भी जीवन है और कल्पना के लिए अवकाश है, कला का प्रवेश वहां वर्जित नहीं किया जा सकता. फिर चाहे किसी को उससे ठेस ही क्यों न लगती हो, कला का तो काम ही ठेस लगाना है. बिना ठेस लगाए वह अपना कोई उद्यम नहीं करती. अत: हुसैन के वे चित्र विवादित ही हुसैन की उस ठेस की वजह से हुए. इसके लिए किसी कलाकार को क्षमा मांगने की भी जरूरत नहीं है लेकिन उसे परिणाम भुगतने के लिए तैयार भी रहना चाहिए. पिकासो महान अराजक माने जाते रहे लेकिन मरियम को लेकर वैसा ‘पवित्र में ध्वंस’ का साहस उन्होंने नहीं किया. हुसैन की उन विवादित कृतियों की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हमारी बुद्धिजीवियों की फौज लगातार जो तर्क देती रही वे बहुत हास्यास्पद ही रहे. उस रेखांकन का महान कलात्मकता से कोई रिश्ता नहीं था न है. वे एक बड़े चित्रकार के रोजमर्रा के उत्पाद से अधिक हैसियत ही नहीं रखते.

(यह लेख तहलका के संस्कृति विशेषांक में स्थानाभाव के कारण प्रकाशित नहीं हो सका था)